मुश्किल में आसानी
क्या हमने तुम्हारा सीना तुम्हारे लिए खोल नहीं दिया। और तुम्हारा वह बोझ उतार दिया जो तुम्हारी पीठ को तोड़ रहा था। और हमने तुम्हारा ज़िक्र बुलन्द किया। तो मुश्किल के साथ आसानी है, बेशक मुश्किल के साथ आसानी है। फिर जब तुम मुक्त हो जाओ तो मेहनत करो। और अपने रब की तरफ़ ध्यान लगाओ। (सूरह अल-इन्शिराह)।
यह सूरह मक्का के शुरू के ज़माने में उतरी। रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने मक्का में जब लोगों को एकेश्वरवाद (तौहीद) की तरफ़ बुलाना शुरू किया तो यह उन तमाम लोगों को अविश्वसनीय ठहराने के बराबर था, जो अल्लाह के सिवा दूसरे खुदाओं के आधार पर बड़ाई और सरदारी का दर्जा पाए हुए थे। इसलिए ये लोग आपके सख़्त दुश्मन हो गए। वे आपको तरह-तरह की तकलीफ़ें पहुंचाने लगे। आप सख़्त परेशानी में पड़ गए।
उस वक़्त इस सूरह के ज़रिए आपको अल्लाह की एक सुन्नत से बाख़बर किया गया। वह यह कि इस दुनिया में ‘मुश्किल’ का रिश्ता ‘आसानी’ से बंधा हुआ है। इस दुनिया में मुश्किल का आना किसी नई आसानी की भूमिका होता है, बशर्ते कि आदमी हौसला न खोए और आने वाले बेहतर कल का इंतेज़ार कर सके।
रसूलुल्लाह (स.अ.व.) नुबूवत से पहले सच्चाई की तलाश में सख़्त परेशान और प्रयत्नशील रहे। उस वक़्त के माहौल और मज़हब में आपको इत्मीनान नहीं मिल रहा था। ‘सच्चाई क्या है’ इस सवाल ने आपकी रातों की नींद और दिन का सुकून ख़त्म कर दिया। यह परेशानी हालांकि शुरू की ‘मुश्किल’ थी, लेकिन इसके अन्दर ‘आसानी’ का पहलू निकल आया। क्योंकि इसने आपको ख़ुश्क ज़मीन की तरह बना दिया, ताकि जब ‘वह्य’ की सूरत में हिदायत आए तो उसकी एक-एक बूंद आपके अन्दर जज़्ब होती चली जाए। आप भरपूर तौर पर उसे ग्रहण कर लें। वह पूरी तरह आपके ज़ेहन को साफ़ और रोशन कर दे।
दूसरी चीज़ जो इस ‘सुन्नत’ के लिए बतौर मिसाल पेश की गई, वह ज़िक्र को बुलन्द करने का मामला है। रसूलुल्लाह (स.अ.व.) की के लोगों को ईश्वर के सृष्टि-निर्माण योजना से अवगत करने की वजह से जिन लोगों को विरोध पैदा हुआ उन्होंने इसको नाकाम करने के लिए उनको बदनाम करने की मुहिम शुरू कर दी। वे आपके ख़िलाफ़ अशआर (कविता) कह कर उसको फैलाते, जो एक तरह से उस ज़माने की पत्रकारिता थी। मेले और बाज़ार, जो उस ज़माने के इज्तिमा थे, वहां जाकर वे लोगों को आपके ख़िलाफ़ भड़काते। वे लोगों के सामने आपकी बुरी तस्वीर पेश करते ताकि वे आपसे और आपके सच्चे मिशन से बदगुमान हो जाएं।
विरोधियों ने ऐब निकालने और इल्ज़ाम लगाने की जो मुहिम चलाई, उसका मक़्सद उनके अपने ख़्याल के मुताबिक़ यह था कि पैग़म्बर को बदनाम करें और इस तरह लोगों को ईश्वर के सृष्टि-निर्माण योजना को समझने से दूर कर दें, उससे डरा दें। मगर इस मुश्किल में भी आसानी का पहलू निकल आया। विरोधी अपने तौर पर तो आपको बदनाम करने की कोशिश कर रहे थे, पर दूसरों के लिए इसमें उत्सुकता पैदा हो गई। इस तरह आपकी शख़्सियत लोगों के सामने एक बड़ा सवाल बन कर खड़ी हो गई। हर आदमी में यह जानने की बेचैनी और जिज्ञासा पैदा हो गई कि मुहम्मद कौन है और उनका पैग़ाम क्या है? आखिर वह कहते क्या हैं?
इन्सानी स्वभाव है कि वह कभी अधूरी और आंशिक जानकारी से संतुष्ट नहीं होता। वह हमेशा पूरी बात जानना चाहता है। लिहाज़ा आपके ख़िलाफ़ कुछ बातें सुन कर लोग उतने ही पर रुक नहीं जाते थे, बल्कि वे पैग़ाम और पैग़ाम पेश करने वाले के बारे में और ज़्यादा जानकारी हासिल करने के लिए ख़ुद खोजबीन करते थे। वे आपसे मिलते और क़ुरआन को पढ़ते-सुनते। इस तरह विरोध का यह नतीजा हुआ कि आपका पैग़ाम दूर-दूर तक पहुंच गया, जहां आप ख़ुद अभी तक उसको नहीं पहुंचा सके थे। विरोधियों ने आपको बदनाम करके आपके बारे में लोगों के अन्दर खोज-बीन करने का शौक़ पैदा किया। और जब उन लोगों ने सीधे ख़ुद खोज-बीन की तो उनमें से बहुत से लोग आपके पैग़ाम को हक़ व सच्चा पाकर उसके हामी बन गए।
इस सूरह में रसूलुल्लाह (स.अ.व.) से कहा गया है कि ‘मुश्किल’ के ‘आसानी’ में तब्दील होने के दो तजुर्बे तो तुम कर चुके हो - सच की तलाश की बेचैनी के बाद हिदायत का मिलना, बदनामी की मुहिम से दावत फैलने के नए मौक़े पैदा होना। इसी तरह उस सुन्नते-इलाही का तीसरा पहलू भी जल्द ही तुम्हारे सामने आ जाएगा। हालात की स्वाभाविक रफ़्तार को अपनी हद तक पहुंचाने दो और भविष्य के उजागर होने तक सब्र के साथ उसका इंतज़ार करो।
इस तीसरे दौर का मतलब पैग़ाम और पैग़ाम पेश करने वाले का शुरुआती दौर से निकल कर मुसल्लमा (सम्पूर्ण) दौर में दाख़िल होना है। जिसको सूरह नस्र में ‘फ़त्ह’ कहा गया है। मौजूदा शुरुआती दौर में जो सख़्त हालात पेश आ रहे हैं, वे आने वाली ‘आसानी’ की भूमिका हैं। इस तरह वे तमाम ज़रूरी कारक (फै़क्टर) जमा किए जा रहे हैं कि आइन्दा जब ठहराव का चरण आए तो वह सही माइनों में ठहराव और स्थायित्व बन सके।
इस अमल के दौरान ईश्वर के पैग़ाम के तमाम पहलू पूरी तरह खुल जाएं। सच्चे इन्सान और झूठे इन्सान एक-दूसरे से अलग कर दिए जाएं। यह मालूम हो जाए कि कौन सही माइनों में हक़ को चाहने वाला है और वह कौन है जो हक़ का नाम सिर्फ़ इसलिए लेता है कि उसकी आड़ में अपना निजी फ़ायदा हासिल कर सके। गुमनामी में पड़े हुए हीरे निखर उठें और झूठी शोहरत का लबादा ओढ़ने वाले लोग बेनक़ाब हो जाएं।
और यह कि जब रसूलुल्लाह (स.अ.व.) और आपका चिन्तन माहौल में छा जाए तो इस तरह छाए कि वह उनका एक साबितशुदा हक़ बन चुका हो, और इसी तरह जब आपके विरोधियों को नाकाम किया जाए तो यह नाकामी इस तरह आए कि वह लोगों को एक खुली हुई ऐतिहासिक ज़रूरत दिखाई देने लगे।
मुश्किल में आसानी का यह तजुर्बा जो रसूलुल्लाह (स.अ.व.) को हुआ, यही आइन्दा भी आपके उम्मतियों को होता रहेगा, बशर्ते कि वे उसी सही रास्ते पर चलें, जिस पर आप चले और उसी सब्र और धीरज का सबूत दें जिसका सबूत आपने अपने ज़माने में दिया।