मेयार को बुलन्द करना
पुराने ज़माने के अरब में बराबर की अख़्लाक़ियात (नैतिकता) का रिवाज था। उनकी ज़िन्दगी का उसूल यह था कि जो शख़्स जैसा करे उसके साथ वैसा ही किया जाए। यानी अच्छा सुलूक करने वाले के साथ अच्छा सुलूक और बुरा सुलूक करने वाले के साथ बुरा सुलूक। इस्लाम से पहले के ज़माने का एक शायर अपने मुक़ाबिले के क़बीले के बारे में कहता है कि ज़्यादती की कोई क़िस्म हमने बाक़ी नहीं छोड़ी। उन्होंने हमारे साथ जैसा किया था वैसा ही हमने उनको बदला दिया।
रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अख़्लाक़ के इस उसूल को बदला। बराबरी के अख़्लाक़ के बजाय आपने उनको बुलन्द अख़्लाक़ी की तालीम दी। आपने फ़रमाया कि “जो शख़्स तुम्हारे साथ बुरा सुलूक करे उसके साथ तुम अच्छा सुलूक करो।” (कंज़ुल उम्माल, हदीस न. 6929)
एक और हदीस में है:
तुम लोग इम्मआ (मौक़ापस्त-ख़ुदगर्ज़) न बनो, कि यह कहने लगो कि अगर लोग हमारे साथ अच्छा करें तो हम भी उनके साथ अच्छा करेंगे। और अगर वे ज़्यादती करें तो हम भी ज़्यादती करेंगे। बल्कि अपने आपको इसके लिए तैयार करो कि लोग तुम्हारे साथ अच्छा करें तो तुम उनके साथ अच्छा करोगे और अगर लोग तुम्हारे साथ बुरा करें तब भी तुम उनके साथ ज़्यादती नहीं करोगे। (सुनन अल-तिर्मिज़ी, हदीस न. 2007)
आपकी एक सुन्नत यह भी है कि लोगों के शुऊर (चेतना) को बुलन्द किया जाए। उनके अख़्लाक़ को ऊंचा किया जाए। उनकी ज़ेहनी हालत को हर लिहाज़ से ऊपर उठाने की कोशिश की जाए।
इन्सान के इन्सानी मे’यार को बुलन्द करना, फ़िक्री, इल्मी, अख़्लाक़ी हैसियत से उसको ऊपर उठाना अहमतरीन काम है। इसमें आदमी की भलाई है और इसी में पूरे समाज की भलाई भी। यह ठीक रसूल का तरीक़ा है यानी सुन्नते रसूल है और इसको ज़िन्दा करना सुन्नते-रसूल को ज़िन्दा करना है।