चुप की ताक़त
पुरानी कहावत है कि ‘एक चुप हज़ार बला टालती है।’ यह कहावत बहुत सार्थक है और लंबे इंसानी तजुर्बों पर आधारित है। हक़ीक़त यह है कि चुप रहना अपने आप में ख़ुद एक ताक़तवर हथियार है, बशर्ते कि इस हथियार को उसके तमाम तक़ाज़ों के साथ इस्तेमाल किया जाए।
1966 की बात है। मैं लखनऊ और शाहगंज के बीच ट्रेन से सफ़र कर रहा था। यह देहरादून एक्सप्रेस थी और मैं पुराने नाम के मुताबिक़ थर्ड क्लास में और नए नाम के मुताबिक़ सेकंड क्लास के एक डब्बे में था। पूरे डब्बे में शायद मैं अकेला मुसलमान था।
सफ़र के दौरान ऐसा हुआ कि मुझे टॉयलेट जाने की जरूरत पेश आई। मैं अपनी सीट से उठकर टॉयलेट के पास गया। मैंने अपनी आदत के मुताबिक़ दरवाज़ा आहिस्ता से खोला, लेकिन दरवाज़ा ज़रा-सा खुलते ही अंदर से कपड़े का पल्लू दिखाई दिया। मैंने फ़ौरन दरवाज़ा बंद कर दिया और वापस आकर अपनी सीट पर बैठ गया।
वास्तविकता यह थी कि टॉयलेट के अंदर एक हिंदू महिला मौजूद थीं, लेकिन उन्होंने क़ायदे के मुताबिक़ दरवाज़े का बोल्ट नहीं लगाया था।
महिला का पति मेरे पास की सीट पर बैठा हुआ था। इस दृश्य को देखते ही वह बिगड़ गया। वह ग़ुस्सा और नफ़रत से भरकर मेरे ऊपर पिल पड़ा। वह जोश में उठकर खड़ा हो गया और मुझे बुरी तरह डांटना और बुरा-भला कहना शुरू कर दिया। मैंने कहा कि दरवाज़ा अंदर से बंद न था और मुझे मालूम न था कि अंदर कोई है, वरना मैं हर्गिज़ दरवाज़ा खोलने की कोशिश न करता। पर मेरी सफ़ाई का हर शब्द उसको और भी अधिक उत्तेजित कर रहा था। ऐसा लगता था कि वह मुझे खिड़की से बाहर फेंक देगा।
लंबी बोगी पूरी तरह भरी हुई थी, पर पूरे डब्बे में एक शख़्स भी मेरी हिमायत के लिए नहीं उठा। आख़िर में मैं बिल्कुल खामोश हो गया। मैं उस शख़्स की तरफ़ देख रहा था, पर मेरे चेहरे पर डर या उत्तेजना का ज़रा सा भी कोई भाव न था। मैं एकदम भावहीन मुद्रा में स्टेचू की तरह ख़ामोशी के साथ उसको देखता रहा। अब वह ठंडा पड़ने लगा, यहां तक कि बिल्कुल चुप हो गया। दूसरे को चुप करने की सबसे आसान तरकीब है-अपनी ज़ुबान को एकतरफ़ा तौर पर बंद कर लेना।