एक हदीस के अनुसार पैग़ंबर-ए-इस्लाम ने फ़रमाया— “ताक़तवर वह नहीं है, जो कुश्ती में लोगों को पछाड़ दे। ताक़तवर केवल वह है, जो ग़ुस्से के वक़्त अपने नफ़्स को क़ाबू में रखे।” (बुख़ारी, हदीस नं० 6114)
ग़ुस्से के समय ग़ुस्से को रोकना आत्म-संयम (self-control) का प्रतीक है और आत्म-संयम निःसंदेह सबसे बड़ी ताक़त है। ऐसे अवसर पर आत्म-संयम इंसान को ग़लत कार्यवाहियों से बचाता है और जिस इंसान के भीतर आत्म-संयम की ताक़त न हो, वह ग़ुस्से के समय बिखर उठेगा, यहाँ तक कि वह हिंसक कार्यवाही करने लगेगा। ग़ुस्से को क़ाबू में रखना शांतिप्रिय इंसान का तरीक़ा है और ग़ुस्से के समय बेक़ाबू हो जाना हिंसाप्रिय इंसान का तरीक़ा।
एक इंसान की लड़ाई दूसरे इंसान से हो और वह उसे लड़ाई में पछाड़ दे तो यह केवल इस बात का प्रमाण है कि दूसरे इंसान के मुक़ाबले में पहला इंसान शारीरिक ऐतबार से ज़्यादा ताक़तवार था, मगर शारीरिक ताक़त एक सीमित ताक़त है। इसके मुक़ाबले में जिस व्यक्ति का यह हाल हो कि उसके अंदर ग़ुस्सा भड़के, मगर वह अपने ग़ुस्से पर क़ाबू कर ले और ग़ुस्सा दिलाने वाले के साथ संतुलित शैली में मामला करे, ऐसा इंसान ज़्यादा बड़ी ताक़त का मालिक है। उसका यह व्यवहार इस बात का सबूत है कि वह बौद्धिक ताक़त रखता है और बौद्धिक ताक़त निःसंदेह शरीर की ताक़त से बहुत ज़्यादा बड़ी है। ऐसा इंसान अपनी समझदार योजनाओं द्वारा हर जंग को जीत सकता है, बग़ैर इसके कि उसने एक इंसान का भी ख़ून बहाया हो।