पैग़ंबर-ए-इस्लाम और आपके साथियों के द्वारा पहले चरण में जो क्रांति आई, उसका एक पक्ष क़ुरआन का पूरा अवतरित होना और इस्लामी जीवन-शैली का सैद्धांतिक और व्यावहारिक नमूना दुनिया में क़ायम हो जाना है। यह काम उन्हीं के जीवन में पूरा हो गया। यह नमूना क़ुरआन, हदीस, पैग़ंबर का जीवन-चरित्र और पैग़ंबर के साथियों के हालात की किताबों के रूप में हमेशा के लिए सुरक्षित हो गए हैं। वह सार्वकालिक (eternal) रूप से इंसान के लिए ईश्वरीय जीवन-शैली का प्रमाणित नमूना है।
पहले चरण की इस्लामी क्रांति का दूसरा पक्ष वह है, जिसकी प्राकृतिक माँग एक धीमी क्रमबद्ध प्रक्रिया (gradual process) थी। अतः वह लंबे समय के बाद अपनी पूर्णता को पहुँचा। यह दूसरा पक्ष निरंतर प्रक्रिया के रूप में मानव इतिहास में प्रविष्ट हुआ। यह इतिहास में अपार दूरगामी (far reaching) परिवर्तन का मामला था। उसके लिए हज़ार वर्षीय परिवर्तनशील कार्यवाही की आवश्यकता थी। अतः यह काम मक्का और मदीना से जारी होकर सीरिया और इराक़ तक पहुँचा। इसके बाद यह और ज़्यादा आगे बढ़ा। यह प्रारंभ में स्पेन के रास्ते यूरोप में दाख़िल हुआ और उसके बाद यह सारी दुनिया में फैल गया। भविष्य में आने वाली इस प्रक्रिया का वर्णन क़ुरआन में स्पष्ट रूप से मौजूद है। यहाँ इस सिलसिले की कुछ आयतों को अनुकरण किया गया है—
1. “और तुम उनसे लड़ो, यहाँ तक कि फ़ितना (religious persecution) बाक़ी न रहे और दीन सब-का-सब ईश्वर के लिए हो जाए।” (क़ुरआन, 8:39)
2. “आज इनकार करने वाले तुम्हारे दीन की तरफ़ से निराश हो गए। अतएव तुम उनसे न डरो, केवल मुझसे डरो। आज मैंने तुम्हारे दीन को तुम्हारे लिए पूरा कर दिया और तुम पर अपनी कृपा पूरी कर दी और तुम्हारे लिए इस्लाम को दीन की हैसियत से पसंद कर लिया।” (क़ुरआन, 5:3)
3. “जल्द ही हम उनको अपनी निशानियाँ दिखाएँगे, क्षितिज में भी और स्वयं उनके अंदर भी, यहाँ तक कि उन पर ज़ाहिर हो जाए कि यह क़ुरआन हक़ है।” (क़ुरआन, 41:53)
4. “ऐ हमारे रब ! हम पर बोझ न डाल, जैसा तूने डाला था हमसे अगलों पर।” (क़ुरआन, 2:286)
इस्लामी क्रांति के इस दूसरे पक्ष का सारांश यह था कि इतिहास में ऐसे परिवर्तन लाए जाएँ कि उसके बाद इस्लाम पर चलना पिछले दौर के मुक़ाबले में आसान हो जाए। पिछले दौर के मुसलमानों को जो काम मुश्किल हालात में करना पड़ता था, वह अगले दौर के मुसलमानों के लिए आसानी से करना मुमकिन हो जाए (अल-इनशिराह)। आसान करने के इस काम के भिन्न पक्ष हैं।
इसका एक पक्ष यह है कि पुराने ज़माने में राजशाही के अंतर्गत राजनीतिक और धार्मिक उत्पीड़न की व्यवस्था स्थापित थी। इस व्यवस्था के अंतर्गत इंसान को सोचने या काम करने की आज़ादी हासिल न थी, जबकि आज़ादी के बिना न धार्मिक आदेशों पर काम किया जा सकता था और न दावत व तबलीग़ का काम अंजाम दिया जा सकता है। इस्लामी क्रांति ने न केवल मुख्य रूप से उत्पीड़न की इस व्यवस्था को तोड़ा, बल्कि इतिहास में एक नई प्रक्रिया जारी की। यह प्रक्रिया मौजूदा ज़माने में अपनी पूर्णता तक इस प्रकार पहुँची। आज मुसलमानों को अपने धार्मिक काम और दावत दोनों की पूरी आज़ादी है, मगर यह कि वे स्वयं अपनी किसी नादानी से हालात को कृत्रिम रूप से अपने ख़िलाफ़ बना लें।
इस क्रांति का एक और पक्ष यह है कि वर्तमान समय में टेक्नोलॉजिकल उन्नति के द्वारा कम्युनिकेशन के आधुनिक माध्यम प्राप्त हो गए हैं। इस प्रकार यह संभव हो गया कि इस्लाम का परिचय तेज़ी के साथ दुनिया के हर हिस्से को दिया जा सके।
इसी प्रकार वर्तमान समय में वैज्ञानिक खोजों ने इसे संभव बना दिया कि ब्रह्मांड में छुपी हुई ईश्वर की निशानियाँ प्रकट हों और ईश्वर के दीन को स्वयं मानव ज्ञान के प्रकाश में तर्कसंगत (logical) व प्रमाणित कर सके।
बीसवीं शताब्दी ईस्वी में यह काम अपनी पूर्णता के अंतिम पड़ाव तक पहुँच चुका था। अब मुसलमानों के लिए यह संभव हो गया था कि वे अमन व आज़ादी के वातावरण में बख़ूबी ईश्वर के दीन पर काम करें और ईश्वर के दीन को दूसरे समुदायों तक पहुँचाने का निमंत्रणीय कर्तव्य किसी बाधा के बिना अंजाम दें, मगर ठीक इसी शताब्दी में मुसलमानों के अयोग्य मार्गदर्शकों ने ग़लत मार्गदर्शन करके उन्हें ऐसी संलग्नताओं में उलझा दिया, जिसका परिणाम केवल यह हो सकता था कि मुसलमान आधुनिक अवसरों को इस्तेमाल न कर सकें, यहाँ तक कि वे उनके विवेक से वंचित हो जाएँ। यह ग़लतियाँ बुनियादी रूप से दो प्रकार की हैं।
एक ग़लती वह है, जो इस्लाम की राजनीतिक व्याख्या के नतीजे में पैदा हुई। इस व्याख्या ने ग़लत रूप से मुसलमानों की यह मानसिकता बनाई कि वे इस्लाम के पूर्ण अनुयायी केवल उस समय बन सकते हैं, जब वे इस्लाम के समस्त नियम और क़ानून को व्यवहारतः लागू कर दें। इस राजनीतिक सोच का परिणाम यह हुआ कि मुस्लिम जनता अपने शासकों से लड़ गई, ताकि उनको हटाकर वे शरीअती क़ानून (इस्लामी विधान) लागू कर सकें। इस राजनीतिक बिदअत के नतीजे में कोई भलाई तो सामने नहीं आई, निःसंदेह मुस्लिम दुनिया में स्वयं मुसलमानों के हाथों वह उत्पीड़न व अत्याचार दोबारा शुरू हो गया, जिसे एक लंबी ऐतिहासिक कार्यवाही के परिणामस्वरूप समाप्त किया गया था। हक़ीक़त यह है कि इंसानों से इस्लाम का पूर्ण अनुसरण वांछित है, न कि इस्लाम को पूर्ण रूप से लागू करना।
दूसरी ग़लती वह है, जो जिहाद के नाम पर वर्तमान समय में शुरू की गई। वर्तमान समय के मुसलमानों को दूसरे समुदायों से कुछ राजनीतिक और भौतिक शिकायतें थीं। इन शिकायतों को शांतिपूर्ण तरीक़ों से हल किया जा सकता था, मगर उत्साही मार्गदर्शकों ने तुरंत जिहाद के नाम पर हथियार उठा लिये और दूसरे समुदायों के ख़िलाफ़ सशस्त्र लड़ाई शुरू कर दी। इस स्वयं-रचित जिहाद के नतीजे में न केवल नवीन संभावनाएँ नष्ट हो गईं, बल्कि मौजूदा ज़माने के मुसलमान इतनी बड़ी तबाही से दो-चार हुए, जैसी तबाही अतीत की लंबी तारीख़ में उनके साथ कभी पेश नहीं आई थी।
मुस्लिम मार्गदर्शकों के ग़लत मार्गदर्शन के नतीजे में मुसलमान बीसवीं शताब्दी को खो चुके हैं। अब देखना यह है कि वे अपनी ग़लतियों का सुधार करेंगे या वर्तमान शताब्दी को भी उसी तरह खो देंगे, जिस तरह वे पिछली शताब्दी को खो चुके हैं।