इस्लाम में जिहाद की कल्पना

 जिहाद एक अरबी शब्द है। इसका अर्थ साधारण रूप से प्रयास करना है। अपने मूल भावार्थ के ऐतबार से वह शांतिपूर्ण संघर्ष के अर्थ के समान है। विस्तृत भावार्थ के ऐतबार से जिहाद को जंग के मतलब में भी इस्तेमाल किया जाता है, मगर अरबी में जंग के लिए मूल शब्द ‘क़िताल’(रक्तपात) है, न कि जिहाद।

 वर्तमान समय में जिहाद का शब्द ज़्यादातर जंग और हिंसा के मतलब में बोला जाता है। मीडिया के द्वारा ज़्यादा प्रयोग का परिणाम यह हुआ कि इस्लाम को हिंसा का धर्म समझा जाने लगा। जैसे लंदन के दैनिक समाचार पत्रद टाइम्स’(The Times) में एक लेख छपा है, जिसका शीर्षक  है

“एक धर्म जो हिंसा की अनुमति देता है”

A religion that sanctions violence

 यहाँ सवाल यह पैदा होता है कि क़ुरआन में पैग़ंबर-ए-इस्लाम को ‘रहमतुल लिल आलमीन’ (सारी दुनिया के लिए रहमत) की हैसियत से परिचित किया गया है। इसका मतलब यह है कि आप जो दीन (मार्ग) लाए, वह संसार के लिए दीन-ए-रहमत था। ऐसे दीन की छवि हिंसावादी धर्म की कैसे बन गई। उत्तर यह है कि दो प्रकार की भ्रांतियाँ इस वास्तविकता के ख़िलाफ़ छवि की ज़िम्मेदार हैं। एक, सिद्धांत और व्यवहार में अंतर न करना और दूसरा, अपवाद को सामान्य का दर्जा देना।

 1. यह एक स्वीकार्य हक़ीक़त है कि सिद्धांत की रोशनी में काम को परखा जाता है, न कि काम से सिद्धांत को जाँचा जाए। जैसे संयुक्त राष्ट्र के चार्टर की रोशनी में इसके सदस्य राष्ट्रों के व्यवहार को जाँचा जाएगा, न कि सदस्य राष्ट्र के व्यवहार से चार्टर का मतलब निकाला जाए। इसी प्रकार इस मामले के ज्ञानात्मक अध्ययन के लिए आवश्यक है कि इस्लाम और मुसलमानों को एक-दूसरे से अलग करके देखा जाए।

 जैसे मुसलमानों की एक तादाद उन क़ब्रों को पूजती है जिसमें किसी बुज़ुर्ग को दफ़न किया गया था। इसे देखकर बहुत से मूर्तिपूजक लोग कहते हैं कि हमारे बहुदेववादी धर्म और इस्लाम के एकेश्वरवादी धर्म में कोई अंतर नहीं। अंतर अगर है तो केवल यह कि हिंदू धर्म में खड़ा करके पूजा जाता है और इस्लाम धर्म में लिटाकर पूजा जाता है, मगर यह तुलना दुरुस्त नहीं, क्योंकि जो मुसलमान क़ब्रों को पूजते हैं, वे उनके एक अवहेलनात्मक कर्म हैं। इसका इस्लाम की मूल शिक्षा से कोई संबंध नहीं।

 यही मामला जिहाद का है। जिहाद निःसंदेह एक शांतिपूर्ण कार्यवाही है। अगर महमूद ग़ज़नवी और औरंगज़ेब की हिंसात्मक कार्यवाहियों को इस्लामी जिहाद बताया जाए या वर्तमान समय में जो मुसलमान विभिन्न स्थानों पर इस्लाम के नाम पर लड़ाई छेड़े हुए हैं, इन्हें जिहाद कहा जाए तो यह राय क़ायम करने का सही तरीक़ा न होगा। सही ज्ञानात्मक तरीक़ा यह है कि क़ुरआन व सुन्नत की प्रमाणित शिक्षाओं को इस्लामी सिद्धांत का स्त्रोत बनाया जाए और मुसलमानों की कार्यवाहियों को इसकी रोशनी में जाँचा जाए। मुसलमानों की जो कार्यवाही इस्लाम के जिहाद के सिद्धांत पर पूरी न उतरे, उसे रद्द कर दिया जाए।

 2. ग़लतफ़हमी की दूसरी वजह कुरआन की वह शिक्षाएँ हैं, जिन्हें अपवाद का दर्जा देना चाहिए था, मगर उन्हें सामान्य का दर्जा दे दिया गया। क़ुरआन में लगभग छह हज़ार आयतें हैं। इनमें मुश्किल से 40 आयतें ऐसी हैं, जो जिहाद का संबंध क़िताल (जंग) से रखती हैं यानी एक प्रतिशत से भी कम आयतें, ज़्यादा स्पष्ट रूप से कहा जाए तो 0.6 प्रतिशत।

असल यह है कि क़ुरआन 23 वर्ष के अंतराल में थोड़ा-थोड़ा करके उतरा। जैसे हालात पैदा होते थे, उसी के अनुसार ईश्वर की ओर से आदेश अवतरित कर दिए जाते थे। इन 23 वर्ष को दो भिन्न भागो में विभाजित किया जा सकता है। पहला भाग 20 वर्ष का और बाद का दूसरा भाग 3 वर्ष का। 20 वर्ष के भाग में क़ुरआन में वह आदेश उतरे जो ईमान, निःस्वार्थता, उपासना, नैतिकता, न्याय, सुधार से संबंध रखते थे और 3 वर्ष में जंग के आदेश उतरे, जबकि पैग़ंबर-ए-इस्लाम के विरोधियों ने एकपक्षीय रूप से हमला करके इस्लाम के मानने वालों के लिए सुरक्षा की समस्या उत्पन्न कर दी थी मानो क़ुरआन में जिहाद काअभिप्राय क़िताल की आयतों की हैसियत के अपवाद से है, जबकि दूसरी आयतों की हैसियत सामान्य की है।

 अपवाद और सामान्य का अंतर हर जगह पाया जाता है। जैसे गीता हिंदुओं की एक पवित्र पुस्तक है। इसमें ज्ञान की बहुत-सी बातें हैं, मगर इसी के साथ गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं

“हे अर्जुन ! युद्ध के लिए तैयार रहो और युद्ध करो।” (3:11)

 पूरी गीता को पढ़ा जाए तो मालूम होगा कि जंग की बात इसमें अपवाद की हैसियत रखती है। अगर केवल इसी अपवादिक हिस्से को लिया जाए और इसे जनरलाइज़ करके इसी से गीता की सामूहिक शिक्षा निकाली जाए तो यह एक अज्ञानात्मक तरीक़ा होगा और गीता को सही रूप से समझने में बाधा बन जाएगा।

 इसी प्रकार बाइबल में वर्णन है कि ईसा मसीह ने अपने शागिर्दों से कहा

Do not think that I’ve to come bring peace on earth, I did not come to bring peace but a sword. (Matthew, 10:34)

मसीह के पूरे कथन को देखा जाए तो मालूम होगा कि उनका यह कथन अपवादिक कथन है, यह उनकी सामान्य शिक्षा नहीं। ऐसी स्थिति में ईसा मसीह के संदेश को नियुक्त करने के लिए उनके सामान्य कथनों को देखा जाएगा। कुछ अपवादिक कथनों को लेकर मसीह की सामान्य छवि बनाना उचित नहीं।

 यह किसी पुस्तक के अध्ययन का ज्ञानात्मक तरीक़ा है। यही तरीक़ा गीता और बाइबल के अध्ययन के लिए भी उचित है और यही तरीक़ा कु़रआन के अध्ययन के लिए भी सही है।

 अब क़ुरआन और हदीस की रोशनी में जिहाद का मतलब नियुक्त कीजिए। क़ुरआन की एक आयत यह है— “जो लोग ईश्वर की राह में जिहाद करेंगे, ईश्वर उन्हें अपना रास्ता दिखाएगा (29:69)।” इस आयत में जिहाद से अभिप्राय वह प्रयास है, जो सत्य की खोज में या ईश्वर का बोध प्राप्त करने में किया जाए। इस आयत में एक ऐसे काम को जिहाद कहा गया है, जो पूर्ण रूप से एक बौद्धिक क्रियाकलाप (intellectual pursuit) की हैसियत रखता है।

Maulana Wahiduddin Khan
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