कुछ इस्लामी चिंतकों का कहना है कि इस्लाम में जंग दो प्रकार की हैं— सुधारवादी जंग और रक्षात्मक जंग। यह बिल्कुल आधारहीन बात है। इस दृष्टिकोण के लिए क़ुरआन और हदीस में कोई दलील मौजूद नहीं।
हक़ीक़त यह है कि इस्लाम में केवल एक जंग है और वह है रक्षात्मक जंग। इस्लामी शिक्षाओं के अनुसार, सुधारवादी आंदोलन होता है, सुधारवादी जंग नहीं होती। सुधारवादी जंग क़ुरआन व सुन्नत के पूरे भंडार में एक अजनबी चीज़ है। इसका मूल स्त्रोत कवियों, वक्ताओं और साहित्यकारों की कल्पनाएँ हैं, न कि ईश्वर और उसके रसूल की सुन्नत।
एक प्रसिद्ध हदीस के अनुसार, हर प्रकार के सुधार का आधार हृदय पर है। हदीस में कहा गया है कि जिस प्रकार शारीरिक प्रणाली में हृदय के स्वस्थ रहने से पूरा शरीर स्वस्थ रहता है, यही मामला दीनी प्रणाली का भी है। इंसान में सुधार करने की दशा यह है कि मानसिकता के स्तर पर इसके अंदर सुधार लाया जाए।
इस हदीस के अनुसार सुधारवादी आंदोलन का नियम यह है कि सारी ताक़त इंसान के विचार और विवेक को बदलने पर ख़र्च की जाए। तर्क के द्वारा आदमी की सोच को बदलना, स्वर्ग व नरक की बातों के द्वारा उसके हृदय में कोमलता पैदा करना, ईश्वर की निशानियों को स्मरण के द्वारा उसके ईश्वरीय स्वभाव को जगाना। यह है इंसानी सुधार का तरीक़ा। इसे दूसरे शब्दों में सुधारवादी आंदोलन भी कहा जा सकता है।
जंग का उद्देश्य सदैव बाहरी बाधा को दूर करना होता है, न कि इंसान के विवेक और अंतरात्मा को जगा देना। विवेक और अंतरात्मा को जगाने का एकमात्र तरीक़ा उपदेश व दीक्षा है, इसका जंग से कोई संबंध नहीं।
इस्लाम में जंग की केवल एक क़िस्म है और वह है रक्षा या सुरक्षा (defense)। अगर कोई गिरोह मुसलमानों के ख़िलाफ़ आघात पहुँचाने का काम करे तो क्षमतानुसार उससे मुक़ाबला किया जाएगा, चाहे मुक़ाबला खुली जंग के रूप में हो या किसी और रूप में। सामान्य परिस्थितियों में इस्लाम का तरीक़ा शांतिपूर्ण निमंत्रण का तरीक़ा है और हमला या आघात पहुँचने के रूप में सशस्त्र मुक़ाबले का तरीक़ा।