जिहाद शांतिपूर्ण अमल का नाम है
मुल्ला अली क़ारी प्रसिद्ध इस्लामी विद्वान हैं। उनका पूरा नाम अली बिन मुहम्मद नूरूद्दीन अली मुल्ला अल-हिरावी अल-क़ारी है। मुल्ला अली क़ारी हेरात में पैदा हुए। उनका देहांत 1606 ई० में मक्का में हुआ। उन्होंने विभिन्न इस्लामी विषयों पर बड़ी संख्या में किताबें लिखीं। मुल्ला अली क़ारी की एक किताब का नाम ‘मिरक़ातुल मसाबीह’ है, जो ‘मिश्कातुल मसाबीह’ की व्याख्या में लिखी गई है। इस किताब के अध्याय ‘किताबुल जिहाद’ में मुल्ला अली क़ारी लिखते हैं कि जिहाद शब्द में शाब्दिक रूप से संघर्ष व परिश्रम का भावार्थ निहित है। इसके बाद वे लिखते हैं कि फिर जिहाद का शब्द इस्लाम में सच्चाई का इनकार करने वालों से जंग के लिए इस्तेमाल होने लगा।
हर शब्द का एक शाब्दिक अर्थ होता है और दूसरा प्रयोग किया हुआ भावार्थ। यही मामला जिहाद का भी है। जिहाद शब्द जहद से निकला है। शाब्दिक रूप से इसका मतलब प्रयत्न करना है। इसमें अतिशयोक्ति का भाव सम्मिलित है। प्रयोग में यह शब्द भिन्न प्रकार के संघर्ष के लिए लिखा या बोला जाता है। उन्हीं में से एक जंग भी है, फिर भी इसका प्रयोग केवल उस अपवादिक जंग के लिए ख़ास है, जो ईश्वर के रास्ते में की गई हो; धन-संपत्ति के लिए जो जंग की जाए, उसे जिहाद नहीं कहा जाएगा।
क़ुरआन में इस सिलसिले में दो अलग-अलग शब्द प्रयोग किए गए हैं— जिहाद और क़िताल। जब शांतिपूर्ण संघर्ष की बात हो तो वहाँ कु़रआन में जिहाद का शब्द प्रयोग होता है, जैसे क़ुरआन के द्वारा शांतिपूर्ण निमंत्रणीय संघर्ष (25:52) और जब नियमानुसार जंग की बात हो तो वहाँ क़ुरआन में क़िताल का शब्द प्रयोग किया जाता है, जैसे कि कुरआन के अध्याय आले-इमरान की आयत नं० 121 में किया गया है, फिर भी बाद के ज़माने में जिहाद शब्द ज़्यादातर क़िताल के समानार्थ शब्द के रूप में प्रयोग किया जाने लगा। जिहाद शब्द के उस प्रयोग को अगर दुरुस्त मान भी लिया जाए, तब भी वह जिहाद के शब्द का एक विस्तृत प्रयोग होगा, न कि उसका वास्तविक प्रयोग।
अपने वास्तविक भावार्थ के ऐतबार से जिहाद एक शांतिपूर्ण अमल का नाम है, न कि हिंसात्मक अमल का नाम। जिहाद का अमल इंसान को वैचारिक एवं आध्यात्मिक रूप से बदलने के लिए होता है, न कि इंसान को क़त्ल करने के लिए।