जंग और अमन : इस्लाम में
इस्लाम में जंग और अमन की हैसियत क्या है, इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए यह देखना चाहिए कि इस्लामी मिशन का उद्देश्य क्या है। जंग और अमन दोनों भिन्न कार्य-शैली है, वह अपने आपमें उद्देश्य नहीं है। ऐसी हालत में अगर इसका निर्धारण हो जाए कि इस्लामी मिशन का लक्ष्य क्या है तो इसके बाद अपने आप इसका निर्धारण हो जाएगा कि इस्लाम का तरीक़ा जंग का तरीक़ा है या अमन का तरीक़ा।
कु़रआन में इस प्रश्न का स्पष्ट उत्तर दिया गया है। इस सिलसिले की एक संबंधित आयत यह है। कु़रआन में पैग़ंबर-ए-इस्लाम को संबोधित करते हुए एक सामान्य आदेश इन शब्दों में दिया गया है— “ऐ मुहम्मद, लोगों के साथ तुम क़ुरआन के द्वारा बड़ा जिहाद करो।” (25:52)
क़ुरआन एक पुस्तक है, वह कोई गन या तलवार नहीं। ऐसी हालत में क़ुरआन के द्वारा जिहाद का मतलब स्पष्ट रूप से शांतिपूर्ण प्रयास (peaceful struggle) है, न कि सशस्त्र प्रयास (armed struggle)।
कु़रआन जब एक वैचारिक पुस्तक है तो इसके द्वारा शांतिपूर्ण सघंर्ष का मतलब यही हो सकता है कि लोगों के ज़हनों को बदला जाए। लोगों की सोच को क़ुरआनी सोच बनाया जाए। दूसरे शब्दो में, क़ुरआन का मिशन ज़मीन पर क़ब्ज़ा करना नहीं है, बल्कि इंसान के ज़हन पर क़ब्ज़ा करना है। इस्लाम का लक्ष्य वैचारिक क्रांति है, न कि लोगों को शारीरिक रूप से पराजित करना।
क़ुरआन का अध्ययन किया जाए और यह देखा जाए कि पैग़ंबर-ए-इस्लाम ने अपने मिशन को किस प्रकार जारी किया तो स्पष्ट होता है कि आपने अपना पूरा मिशन जिस लक्ष्य पर चलाया, वह यही था कि लोगों के दिलो-दिमाग़ को बदला जाए। क़ुरआन में बताया गया है कि ईश्वर ने अपने पैग़ंबर पर अपना कलाम इसलिए उतारा, ताकि वह लोगों को विचारों के अँधेरे से निकालकर विचारों के प्रकाश में ले आए (57:9)। एक वर्णन के अनुसार, पैग़ंबर-ए-इस्लाम ने फ़रमाया कि इंसान के सुधार के सिलसिले में असल महत्त्व केवल एक चीज़ का है और वह उसके दिल (आंतरिक, वैचारिक) का सुधार है। इंसान के दिल को बदल दो, फिर उसका पूरा जीवन बदल जाएगा। पैग़ंबर-ए-इस्लाम को मक्का में जब पहली वह्य मिली तो इस समय आपने वहाँ के लोगों को इकट्ठा करके फ़रमाया कि ऐ लोगो ! मैं इसलिए भेजा गया हूँ कि मौत के बाद आने वाले मामले की तुम्हें ख़बर दूँ। इसी प्रकार मदीना में जब आपने प्रभावशाली हैसियत से प्रवेश किया तो उस समय भी आपने वहाँ के लोगों से यही कहा कि ऐ लोगो! अपने आपको आग से बचाओ, चाहे छुहारे के एक टुकड़े के द्वारा ही क्यों न हो।
क़ुरआन और पैग़ंबर की जीवनी का अध्ययन बताता है कि क़ुरआन का लक्ष्य इंसान के ज़हन को बदलना है। यही इस्लामी मिशन का आरंभ भी है और यही इसका अंत भी, मगर दुनिया में हर प्रकार के लोग होते हैं और स्वयं सृष्टि-निर्माण योजना के अनुसार हर एक को पूरी आज़ादी प्राप्त है। इसी आज़ादी के आधार पर ऐसा हुआ कि कुछ लोग पैग़ंबर-ए-इस्लाम के विरोधी बन गए, यहाँ तक कि कुछ लोग इस आख़िरी हद तक गए कि उन्होंने आपके मिशन को समाप्त करने के लिए आपके ख़िलाफ़ जंगी कार्यवाहियाँ आरंभ कर दीं। यही वह मामला था जिसके आधार पर पैग़ंबर और आपके साथियों को अपनी रक्षा में वक़्ती तौर पर शस्त्र उठाने पड़े। इस ऐतबार से यह कहना सही होगा कि इस्लाम में अमन की हैसियत सामान्य नियम की है और जंग की हैसियत केवल एक अपवाद की।
पैग़ंबर-ए-इस्लाम की पैग़ंबरी की अवधि 23 वर्ष है। इन 23 वर्षों में क़ुरआन अंतराल के साथ स्थिति के अनुरूप उतरता रहा। इस ऐतबार से अगर अवधि का विभाजन किया जाए तो मालूम होगा कि क़ुरआन का एक हिस्सा वह है, जो लगभग 20 वर्ष की मुद्दत तक फैला हुआ है और इसका दूसरा हिस्सा वह है, जो सामूहिक रूप से लगभग 3 वर्ष पर आधारित है। 20 वर्ष के समय में क़ुरआन में जो आयतें अवतरित हुईं, वह सब-की-सब शांतिपूर्ण शिक्षाओं से संबंध रखती हैं, जैसे— अक़ीदा (विश्वास), इबादत, न्याय, नैतिकता, मानवता आदि। जहाँ तक जंग की आयतों का संबंध है, वह केवल 3 वर्ष की अवधि में अवतरित हुईं, जबकि इस्लाम के मानने वालों को व्यवहारतः जंगी हमलों का ख़तरा था।
कु़रआन में कुल 114 अध्याय हैं। सामूहिक रूप से क़ुरआन में कुल आयतों (सूक्तियाँ) की संख्या 6,666 है। इनमें मुश्किल से चालीस आयतें ऐसी हैं, जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जंग से संबंध रखती हैं। इस अनुपात के ऐतबार से क़ुरआन में जंग से संबंध रखने वाली आयतों की संख्या एक फ़ीसद से भी कम है। इस प्रकार का अंतर हर देश के संविधान और हर धार्मिक पुस्तक में पाया जाता है, जैसे बाइबल में बहुत-सी शांति की शिक्षाएँ हैं। इसी के साथ ईसा मसीह की ज़ुबान से इसमें यह कथन भी मौजूद है कि मैं सुलह करवाने नहीं आया हूँ, बल्कि तलवार चलवाने आया हूँ।
“I do not come to bring peace but a sword.”
इसी प्रकार भगवदगीता में बहुत-सी नैतिकता और ज्ञान की बातें हैं, मगर इसी के साथ गीता में यह भी मौजूद है कि श्रीकृष्ण ने अर्जुन से आग्रह के साथ कहा कि हे अर्जुन ! आगे बढ़ो और युद्ध करो। बाइबल और गीता में इन कथनों की हैसियत अपवाद की है, न कि सामान्य नियम की।
इस्लाम की शांतिप्रिय कार्य-शैली का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष यह है कि इस्लाम में दुश्मन और हमलावर के बीच अंतर किया गया है। इस्लाम की शिक्षा यह है कि अगर कोई गिरोह एकतरफ़ा आक्रमण कर दे तो इस समय आवश्यक बुराई (necessary evil) के रूप में आत्मरक्षा के लिए जंग की जा जाए। क़ुरआन में कहा गया है कि जंग करने की इजाज़त दी गई उन लोगों को, जिनके ख़िलाफ़ जंग छेड़ दी गई है (22:39)।
मगर जहाँ तक दुश्मन का संबंध है, उनके ख़िलाफ़ मात्र दुश्मनी के कारण जंगी कार्यवाही की इजाज़त नहीं। इस सिलसिले में क़ुरआन की एक आयत मुसलमानों को एक स्पष्ट आदेश देती है—
‘भलाई और बुराई दोनों बराबर नहीं। तुम जवाब में वह कहो, जो इससे बेहतर हो। फिर तुम देखोगे कि तुम्हारे और जिसके बीच दुश्मनी थी, वह ऐसा हो गया, जैसे कोई क़रीबी दोस्त।” (41:34)
इस आयत में यह शिक्षा दी गई है कि कोई व्यक्ति तुम्हें दुश्मन नज़र आए तो उसे अपना हमेशा का दुश्मन न समझ लो। हर दुश्मन इंसान के अंदर तुम्हारा एक दोस्त इंसान छुपा हुआ है। इस दोस्त इंसान की खोज करो और इस संभावित दोस्त (potential friend) को असल दोस्त (actual friend) बनाओ, इसके बाद तुम्हें किसी से दुश्मनी की शिकायत न होगी।
इस मामले की ज़्यादा स्पष्टता एक हदीस से होती है। इस हदीस में हज़रत मुहम्मद की जनरल पॉलिसी को बताते हुए आपकी पत्नि आयशा ने कहा— “हज़रत मुहम्मद को जब भी दो मामलों में से एक का चुनाव करना होता तो आप हमेशा दोनों में से आसान का चुनाव करते थे।” (सही बुख़ारी, हदीस नं० 6,786)
यह स्पष्ट है कि किसी काम को करने की दो कार्य-शैली हैं। हिंसात्मक कार्य-शैली (violent method) और शांतिपूर्ण कार्य-शैली (peaceful method)। अब दोनों की तुलना की जाए तो मालूम होगा कि किसी विवादित मामले के समय हिंसक कार्य-शैली को अपनाना कठिन विकल्प (harder option) है और शांतिपूर्ण कार्य-शैली को अपनाना आसान विकल्प (easier option) है। इसके अनुसार इस्लाम की जनरल पॉलिसी यह है कि जब भी किसी पक्ष से कोई विवाद उत्पन्न हो तो उसके मुक़ाबले के लिए हमेशा शांतिपूर्ण कार्य-शैली का विकल्प चुना जाए, न कि हिंसक कार्य-शैली का। वर्तमान ज़माने में जबकि आज़ादी को इंसान के लिए परम सिद्ध अधिकार मान लिया गया है तो अब केवल शांतिपूर्ण कार्य-शैली का ही चुनाव किया जाएगा, क्योंकि समय के दृढ़ नियम के अनुसार, हिंसापूर्ण कार्य-शैली को अपनाने में यक़ीनन रुकावटें हैं, मगर शांतिपूर्ण कार्य-शैली को अपनाने में कोई रुकावट नहीं।
यहाँ यह वृद्धि करना उपयुक्त होगा कि पैग़ंबर-ए-इस्लाम के ज़माने में सीमित अवस्था की जो कुछ लड़ाइयाँ पेश आईं, उनमें वास्तव में समय कारक (age factor) काम कर रहा था। यह लड़ाइयाँ सातवीं शताब्दी ईस्वी की शुरुआत में हुईं। यह ज़माना धार्मिक उत्पीड़न और धार्मिक दमन (religious persecution) का ज़माना था। उस ज़माने में वर्तमान प्रकार की धार्मिक सहनशीलता नहीं पाई जाती थी। इस आधार पर एकेश्वरवाद के विरोधियों ने पैग़ंबर-ए-इस्लाम के ख़िलाफ़ आक्रामक कार्यवाही करके आपको लड़ने पर विवश कर दिया। मौजूदा ज़माने में धार्मिक आज़ादी हर व्यक्ति और हर समुदाय का एक मौलिक अधिकार (fundamental right) बन चुका है। इसलिए मौजूदा ज़माने में धार्मिक अधिकारों के लिए जंग का कोई सवाल ही नहीं।
इस्लाम में अमन का महत्त्व इतना ज़्यादा है कि हर अप्रिय स्थिति को सहन करते हुए शांति की स्थिति को स्थिर रखने का आदेश दिया गया है। विरोधी पक्ष के उत्पीड़न पर धैर्य व उपेक्षा का तरीक़ा अपनाना और इसे हर क़ीमत पर एकतरफ़ा युक्ति के द्वारा बाक़ी रखना इस्लाम का एक अहम नियम है। यह हुक्म इसलिए दिया गया है कि इस्लाम की रचनात्मक गतिविधियाँ (creative activities) केवल शांतिपूर्ण और संतुलित वातावरण में ही अंजाम दी जा सकती हैं। इस मामले में केवल एक अपवाद है और वह दूसरे पक्ष की ओर से आक्रमण है।
पैग़ंबर-ए-इस्लाम ने प्राचीन मक्का में अपने पैग़ंबराना मिशन का आरंभ किया। इस सिलसिले में आप 13 वर्ष तक मक्का में रहे। उस समय मक्का में आपके विरोधियों ने आप और आपके साथियों पर बहुत अत्याचार किए, मगर पैग़ंबर-ए-इस्लाम और आपके साथियों ने इस अत्याचार को एकतरफ़ा तौर पर सहन किया। इसी धैर्य और उपेक्षा का एक रूप यह भी था कि पैग़ंबर और आपके साथियों ने जंग से बचने के लिए ऐसा किया कि मक्का से प्रवास करके मदीना चले गए।
आपके और आपके साथियों के प्रवास से मक्कावासी चुप न बैठे। हालाँकि मक्का और मदीना के बीच तीन सौ मील का फ़ासला है, फिर भी उन्होंने नियमित रूप से मदीने पर हमले शुरू कर दिए। इन हमलों को पैग़ंबर की जीवनी की पुस्तकों मे ‘ग़ज़वा’ यानी झड़प कहा जाता है। छोटी और बड़ी झड़पों की संख्या 83 तक की गई है, मगर पैग़ंबर और विरोधियों के बीच केवल तीन बार नियमानुसार जंग (full fledge war) हुईं। इसका मतलब यह है कि 80 झड़पों में पैग़ंबर-ए-इस्लाम ने उपेक्षा और अच्छी युक्ति के द्वारा दोनों पक्षों के बीच व्यावहारिक मुक़ाबले को टाल दिया। केवल तीन बार बदर, उहद, हुनैन नामक जगहों में मजबूरन, परिस्थितियों के आधार पर आपको जंगी मुक़ाबला करना पड़ा।
जंगी मुक़ाबले से बचने की इस पॉलिसी की एक मिसाल वह है जिसे ‘सुलह हुदैबिया’ कहा जाता है। जब पैग़ंबर-ए-इस्लाम और आपके विरोधियों के बीच जंगी परिस्थितियाँ पैदा हो गईं तो आपने यह कोशिश की कि एकतरफ़ा युक्ति के द्वारा जंगी हालात को समाप्त कर दिया जाए और दोनों पक्षों के बीच शांतिपूर्ण वातावरण को बहाल किया जाए।
इस उद्देश्य के लिए आपने अपने विरोधियों से समझौते के लिए बातचीत शुरू कर दी। यह बातचीत दो सप्ताह तक जारी रही। यह समझौता मक्का के निकट हुदैबिया के स्थान पर हुआ, इसलिए इसे ‘सुलह हुदैबिया’ कहा जाता है। यह वास्तव में दोनों पक्षों के बीच एक शांति समझौता था। बातचीत के दौरान पैग़ंबर-ए-इस्लाम ने देखा कि दूसरा पक्ष अपनी ज़िद को छोड़ने पर तैयार नहीं। अतः आपने विरोधी पक्ष की एकतरफ़ा शर्तों को मानकर उनसे शांति का समझौता कर लिया।
इस संधि का उद्देश्य यह था कि दोनों पक्षों के बीच तनाव को समाप्त किया जाए और सामान्य वातावरण को स्थापित किया जाए, ताकि संतुलित हालत में निमंत्रण और निर्माण का वह कार्य किया जा सके, जो इस्लामी मिशन का असल उद्देश्य था। अतः हुदैबिया का समझौता होते ही हालात सामान्य हो गए और इस्लाम की समस्त रचनात्मक गतिविधियाँ पूरी शक्ति के साथ जारी हो गईं, जिसका परिणाम अंततः यह निकला कि इस्लाम पूरे क्षेत्र में फैल गया।
यहाँ यह वृद्धि करना आवश्यक है कि इस्लाम की शिक्षाओं के अनुसार जंग केवल नियमानुसार स्थापित सरकार का कार्य है, वह ग़ैर-सरकारी लोगों या संस्थाओं का काम नहीं। ग़ैर-सरकारी संस्थाएँ अगर किसी सुधार की ज़रूरत महसूस करें तो वे केवल शांति की परिधि में रहकर अपना आंदोलन चला सकती हैं, हिंसा की सीमा में प्रवेश करना उनके लिए हरगिज़ जायज़ नहीं।
इस सिलसिले में दो बातें बड़ी महत्त्वपूर्ण हैं। एक यह कि ग़ैर-सरकारी संस्थाओं के लिए किसी भी कारणवश सशस्त्र आंदोलन चलाना जायज़ नहीं। दूसरी बात यह कि स्थापित सरकार के लिए हालाँकि रक्षात्मक जंग आदेशानुसार जायज़ है, मगर उसके लिए भी जंग की घोषणा करना शर्त है। इस्लाम में बिना घोषणा जंग करना बिल्कुल भी जायज़ नहीं। इन दो शर्तों को दृष्टिगत रखा जाए तो मालूम होगा गोरिल्ला वार या प्रॉक्सी वार दोनों ही इस्लाम में अवैध हैं। गोरिल्ला जंग इसलिए कि यह जंग ग़ैर-सरकारी संस्थाओं की ओर से की जाती है और प्रॉक्सी वार इसलिए कि इसमें हालाँकि सरकार भी शामिल रहती है, मगर इसका शामिल होना बिना घोषणा के होता है और घोषणा के बिना जंग का औचित्य इस्लामी हुकूमत के लिए भी नहीं। क़ुरआन में वर्णन है— “उनका अहद उनकी तरफ़ फेंक दो, इस तरह कि तुम और वह बराबर हो जाए।” (8:58)
वर्तमान संसार की व्यवस्था इस प्रकार की गई है कि यहाँ अनिवार्यतः दो व्यक्ति या दो दलों के बीच विवाद की स्थिति उत्पन्न होती रहती है। ऐसी हालत में इस्लाम का आदेश यह है कि विवाद को हिंसक टकराव तक न पहुँचने दिया जाए, इसी पॉलिसी को क़ुरआन में धैर्य और उपेक्षा का नाम दिया गया है। क़ुरआन में एक स्थायी नियम के रूप पर कहा गया है कि सुलह बेहतर है (4:128) यानी पारस्परिक विवाद के समय समझौता करके विवाद को समाप्त कर देना नतीजे के ऐतबार से ज़्यादा बेहतर है। इसका कारण यह है कि समझौता या समझदारी का तरीक़ा अपनाने से यह अवसर मिल जाता है कि अपनी शक्ति को टकराव में नष्ट करने से बचाया जाए और उसे पूरी तरह रचनात्मक कामों में लगाया जाए। इसी नीति के आधार पर पैग़ंबर-ए-इस्लाम ने फ़रमाया— “तुम लोग दुश्मन से मुठभेड़ की तमन्ना न करो और ईश्वर से अमन माँगो।” (बुख़ारी)
इस संदर्भ में क़ुरआन की एक आयत इस प्रकार है— “जब कभी वे लड़ाई की आग भड़काते हैं तो ईश्वर इसे बुझा देता है।” (5:64)
इस क़ुरआनी आयत से जंग और अमन के बारे में इस्लाम की रूह मालूम होती है। वह यह कि वर्तमान संसार में विभिन्न कारणों से लोग बार-बार जंग पर आमादा हो जाते हैं। यह संसार की विशेष व्यवस्था की माँग है, जो प्रतिस्पर्धा (competition) के नियम पर बनाई गई है, मगर मुसलमानों का काम यह है कि दूसरे लोग जब जंग की आग को भड़काएँ तो वे एकतरफ़ा युक्ति के द्वारा इस आग को ठंडा कर दें। गोया मुस्लमानों का तरीक़ा जंग नहीं है, बल्कि जंग से उपेक्षा है। उन्हें एक ओर यह करना है कि जंग की हद तक जाए बिना अपने स्वार्थों की रक्षा करें। दूसरी ओर इनकी ज़िम्मेदारी यह भी है कि वे अमन के संदेशवाहक बनें। वे दुनिया में अमन के व्यापारी हों, न कि जंग के व्यापारी।
इस्लाम की यही स्पिरिट है जिसके आधार पर हम देखते हैं कि पैग़ंबर-ए-इस्लाम को जब मदीने में सत्ता मिली तो आपने ऐसा नहीं किया कि लोगों को अपने अधीन करने के लिए जंग छेड़ दी हो। इसके बजाय आपने यह किया कि अरब में फैले हुए क़बीलों से बातचीत करके उनसे समझौते किए। इस प्रकार आपने पूरे अरब में फैले हुए क़बीलों को शांति समझौतों के प्रबंधन में बाँध दिया।
इस्लाम की शिक्षा का गहरा अध्ययन किया जाए तो मालूम होगा कि इस्लाम उन कारणों की जड़ काट देना चाहता है, जो जंग की ओर ले जाने वाले हैं। जंग करने वाला क्यों जंग करता है? इसके दो बुनियादी कारण हैं— एक है दुश्मन को समाप्त करने की कोशिश करना और दूसरा कारण है राजनीतिक शक्ति को प्राप्त करने की कोशिश करना। इन दोनों उद्देश्यों के लिए इस्लाम में जंग का कोई औचित्य मौजूद नहीं।
जहाँ तक दुश्मन का मामला है, इस मामले में जैसा कि निवेदन किया गया है, क़ुरआन की यह आयत सार्वकालिक मार्गदर्शक की हैसियत रखती है—
“और भलाई और बुराई दोनों बराबर नहीं। तुम जवाब में वह करो, जो इससे बेहतर हो। फिर तुम देखोगे कि तुम और जिसमें दुश्मनी थी, वह ऐसा हो गया, जैसे कोई क़रीबी दोस्त ।” (41:34)
इससे मालूम हुआ कि दुश्मन के मुक़ाबले में इस्लाम की शिक्षा यह है कि इसकी दुश्मनी को समाप्त किया जाए, न कि स्वयं दुश्मन को। इसके अनुसार कोई दुश्मन वास्तविक दुश्मन नहीं होता। हर दुश्मन इंसान के अंदर संभावी रूप में एक दोस्त इंसान छुपा हुआ है। इसलिए मुसलमानों को चाहिए कि एकतरफ़ा अच्छे व्यवहार के द्वारा अपने दुश्मन को अपना दोस्त बना लें।
क़ुरआन के अध्ययन से मालूम होता है कि क़ुरआन में दुश्मन और हमलावर के बीच भेद किया गया है। दुश्मन के बारे में यह है कि उससे नफ़रत का मामला न किया जाए, बल्कि अच्छी युक्ति के द्वारा उसे अपना दोस्त बनाने की कोशिश की जाए। अगर किसी ओर से एकतरफ़ा हमला कर दिया जाए तो ऐसे हमलावर के मुक़ाबले में सुरक्षा के दृष्टिकोण से जंग करना जायज़ है। यह हुक्म क़ुरआन की जिन आयतों से मालूम होता है, उनमें से एक आयत यह है—
“और ईश्वर की राह में उन लोगों से लड़ो, जो तुमसे लड़ते हैं और ज़्यादती न करो।” (2:192)
इस प्रकार की आयतों से मालूम होता है कि जंग की अनुमति केवल उस समय है, जब कोई पक्ष एकतरफ़ा तौर पर मुसलमानों पर दमनात्मक आक्रमण कर दे। इस प्रकार के व्यावहारिक दमन के बिना इस्लाम में जंग की अनुमति नहीं।
जंग और अमन के मामले में इस्लाम का जो बुनियादी नियम है, वह क़ुरआन के इन शब्दों से मालूम होता है—
“अतएव जब वह तुमसे सीधे रहें, तुम भी उनसे सीधे रहो।” (9:7)
इस क़ुरआनी आदेश से मालूम होता है कि समुदायों के बीच पारस्परिक संबंध का नियम यह है कि अगर दूसरा पक्ष अमन पर क़ायम हो तो मुसलमानों को भी अनिवार्यत: अमन की शैली अपनानी होगी। मुसलमान ऐसा नहीं कर सकते कि दूसरे पक्ष की शांतिपूर्ण शैली के बावजूद कोई दूसरा कारण लेकर उसके ख़िलाफ़ जंगी कार्यवाही करने लगें। इस विषय में व्यावहारिक रूप से जंग केवल उस स्थिति में जायज़ है, जब आप पर हमला कर दिया गया हो।
जैसा कि मालूम है कि पैग़ंबर-ए-इस्लाम का जन्म 570 ई० में मक्का में हुआ। 610 ई० में आपको पैग़ंबरी मिली। इसके बाद आप 23 वर्ष तक पैग़ंबर की हैसियत से दुनिया में रहे। इस 23 वर्षीय काल के प्रारंभिक 13 वर्ष आपने मक्का में गुज़ारे और बाद के 10 वर्ष मदीना में। क़ुरआन की कुछ सूरतें मक्का में अवतरित हुईं और कुछ सूरतें मदीना में। इस पैग़ंबराना दौर में आपने क्या किया? आपने लोगों को “पढ़ अपने रब के नाम से जिसने पैदा किया” (क़ुरआन, 96:1) और इस प्रकार की दूसरी आयतें सुनाईं, जिनका जंग से कोई संबंध न था। आप लोगों से यह कहते रहे— “ऐ लोगो ! कहो कि ईश्वर के सिवा कोई पूज्य नहीं और तुम सफल हो जाओगे।”
आपने लोगों को दुआ और इबादत के तरीक़े बताए। लोगों को सदाचार और मानवता की शिक्षा दी। लोगों को बताया कि दूसरे लोग जब तुम्हें सताएँ, तब भी तुम धैर्य और उपेक्षा के साथ जीवन गुज़ारो। आपने क़ुरआन को एक सुधारवादी पुस्तक और आवाहनीय पुस्तक के रूप में लोगों के बीच सार्वजनिक किया। आपने यह नमूना क़ायम किया कि ‘दारुल नदवा’ (मक्का की संसद) में अपनी सीट हासिल करने के बजाय स्वर्ग में अपनी सीट हासिल करने का प्रयास करो। आपने लोगों को अपने अमल से यह सबक़ दिया कि काबा जैसी पवित्र इमारत में 360 बुत रखे हुए हों, तब भी टकराव का तरीक़ा अपनाए बिना तुम अपना मिशन शांतिपूर्ण रूप से आरंभ कर सकते हो। आपने यह नमूना स्थापित किया कि किस प्रकार यह संभव है कि इंसान उत्तेजक परिस्थितियों के बीच अपने आपको लोगों के ख़िलाफ़ नफ़रत से बचाए और शांतिपूर्वक रहकर लोगों की भलाई चाहने का काम अंजाम दे आदि-आदि।
पैग़ंबर-ए-इस्लाम ने अपने जीवन में इस प्रकार के जो अहिंसात्मक काम किए, वह सब निःसंदेह महान इस्लामी कार्य थे, बल्कि यही पैग़ंबरी का मूल मिशन है। और जहाँ तक जंग का संबंध है, वह केवल एक अपवादिक आवश्यकता है, इसीलिए इस्लामी विद्वानों ने जंग को ‘हुस्ने-लग़ीरह’ बताया है यानी जंग इस्लाम के लिए नहीं है, बल्कि किसी वास्तविक कारण के लिए है।
Not for the sake of Islam, but due to some practical reasons.