ईश्वर ने अपनी परीक्षा नीति के तहत दुनिया में इंसान को आज़ादी दी है। इस आज़ादी के आधार पर ऐसा होता है कि लोगों के बीच दुश्मनी हो जाती है (क़ुरआन, 20:123), यहाँ तक कि लोगों के बीच जंग की स्थिति आ जाती है, मगर इस्लाम में दुश्मनी और जंग दोनों में स्पष्ट अंतर किया गया है।
मुसलमानों को यह अधिकार नहीं कि वे जिसे अपना दुश्मन समझें, उसके ख़िलाफ़ वे जंग छेड़ दें। दुश्मन के मुक़ाबले में मुसलमानों को केवल एकेश्वरवाद का शांतिपूर्ण निमंत्रण-कार्य करना चाहिए, न कि उनसे जंग छेड़ दें। इस विषय में क़ुरआन में स्पष्ट आदेश देते हुए कहा गया है, “और इससे बेहतर किसकी बात होगी जिसने लोगों को ईश्वर की ओर बुलाया और अच्छे काम किए और कहा कि मैं आज्ञाकारियों में से हूँ और भलाई व बुराई दोनों बराबर नहीं। तुम जवाब में वह कहो, जो उससे बेहतर हो। फिर तुम देखोगे कि तुममें और जिसमें दुश्मनी थी, वह ऐसा हो गया, जैसे कोई निकटतम दोस्त (41:33-34)।” मानो इस्लाम में दुश्मन को शांतिपूर्ण प्रयास के द्वारा अपना दोस्त बनाना है, न कि उसे दुश्मन क़रार देकर उसके ख़िलाफ़ जंग करना।
इस्लाम में जंग की अनुमति है, मगर यह अनुमति केवल उन परिस्थितियों में है, जबकि अनदेखी के बावजूद भी दूसरा पक्ष हमला कर दे और वास्तविक आत्मरक्षा की स्थिति पैदा हो जाए। क़ुरआन में आदेश हुआ है, “उन लोगों को लड़ने की अनुमति दी गई जिनके ख़िलाफ़ जंग की जाती है। इस कारण से कि उन पर ज़ुल्म हुआ (22:38)।” क़ुरआन में दूसरी जगह जंग की अनुमति देते हुए यह स्पष्ट किया गया है, “यह दूसरा पक्ष है जिसने पहली बार जंग की शुरुआत की (9:13)।”
मालूम हुआ कि इस्लामी शिक्षा के अनुसार जंग दुश्मन के ख़िलाफ़ नहीं, बल्कि हमलावर के ख़िलाफ़ है। मुसलमान अगर किसी को अपना दुश्मन समझें तो उन्हें यह अनुमति नहीं कि वे उनके ख़िलाफ़ हमला कर दें। ऐसे लोगों के मुक़ाबले में शुरू व आख़िर जो अधिकार दिया गया है, वह एकेश्वरवाद का शांतिपूर्ण निमंत्रण है, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं। हिंसक हमले के ख़िलाफ़ रक्षात्मक जंग इस्लाम में जायज़ है, मगर वह भी उस समय जबकि जंग से बचने की सारी कोशिशें नाकाम हो गई हों। पैग़ंबर-ए-इस्लाम का व्यावहारिक नमूना इसका स्पष्ट एवं दृढ़ प्रमाण है।