एक अध्ययन

हुदैबिया संधि (628 ई०) के बाद जब हालात सामान्य हुए तो पैग़ंबर-ए-इस्लाम ने मदीने के बाहर विभिन्न क्षेत्रों में प्रचारक दस्ते रवाना किए। उन्हीं में से एक दस्ता वह था, जिसे मदीने के उत्तर में शाम (सीरिया) की सीमा से मिले हुए इलाक़े की ओर भेजा गया था। यहाँ ईसाई क़बीले आबाद थे और वे रूमी  (बाइज़ेनटाइन) राज्य के अधीन थे।

इस प्रचारक प्रतिनिधि मंडल में पंद्रह आदमी थे और उनके लीडर कआब बिन उमैर अल-ग़फ्फ़ारी थे। वे शाम के निकट ज़ात-ए-इतलाह नामक जगह पर पहुँचे। वहाँ उन्होंने देखा कि एक जगह पर काफ़ी लोग जमा हैं। उन्होंने उन्हें इस्लाम का निमंत्रण दिया, मगर उन्होंने उनकी पुकार पर ‘हाँ’ नहीं कहा, बल्कि उन पर तीर बरसाने लगे। (अल-बिदाया वन-निहाया, 241:4)

इस एकतरफ़ा आक्रमण में बारह मुसलमान शहीद हो गए। केवल कआब बिन उमैर अल-ग़फ्फ़ारी घायल अवस्था में मदीना वापस आए। शाम की सीमा पर बसने वाले ईसाइयों का आक्रमण अप्रत्यक्ष रूप से रूमी सल्तनत का आक्रमण था। इस प्रकार रूमी सल्तनत ने सबसे पहले इस्लाम के ख़िलाफ़ अपनी ओर से आक्रमण का आरंभ किया।

पैग़ंबर-ए-इस्लाम ने अपने एक साथी अल-हारिस बिन उमैर अल-अज़्दी को एक दावती ख़त लेकर बसरा (इराक़) के राजा की ओर भेजा। जब वे मूतह नामक जगह पर पहुँचे तो उनकी भेंट शुराह्बील बिन अम्र अल-ग़स्सानी से हुई। उसने उनसे पूछा कि तुम कहाँ जा रहे हो। उन्होंने कहा बसरा के राजा के पास। उसने कहा, “शायद तुम मुहम्मद के दूत हो।” इन्होंने कहा कि हाँ। इसके बाद उसने अपने आदमियों को हुक्म दिया और उन्होंने अल-हारिस बिन उमैर को तलवार से क़त्ल कर दिया। कहा जाता है कि उसने यह क़त्ल बसरा के राजा के कहने पर किया था। (अल-रसूल फ़ी अल-मदीना, 229)

शुराह्बील बिन अम्र अल-ग़स्सानी ईसाई था और वह रूमी राज्य का एक अधिकारी था। इसका काम अंतर्राष्ट्रीय परंपरा के अनुसार जंग की ओर अग्रसर होने के अर्थ के समान था, इसलिए आपने तीन हज़ार लोगों की सेना तैयार करके जमादी-उल-ऊला, 8 हिजरी में उसे मूतह (शाम) की ओर रवाना कर दिया। शुराह्बील को जब मुस्लिम सेना की रवानगी की जानकारी हुई तो उसने एक लाख आदमियों की सेना मुसलमानों के मुक़ाबले के लिए जमा की। उसके साथ रोम के राजा हिराक़ल एक लाख सेना लेकर शुराह्बील की सहायता के लिए बलक़ाअ नामक स्थान पर पहुँचा। तीन हज़ार और दो लाख का अनुपात बहुत ज़्यादा असंतुलित था। यह मुक़ाबला निर्णायक न बन सका, फिर भी मुसलमानों ने इतनी वीरता के साथ मुक़ाबला किया कि रूमियों के ऊपर मुसलमानों की सैनिक क्षमता का भय स्थापित हो गया।

 प्राच्य विद्वान (orientalist) वाशिंगटन इरविंग (Washington Irving) ने विस्तृत अध्ययन के बाद पैग़ंबर-ए-इस्लाम के जीवन पर किताब लिखी है। इसका उद्धरण दक्तूर अली हसनी अलख़र बूतली  ने अपनी किताब ‘अल-रसूल फ़िल मदीना’ में अनुकरण किया है। वाशिंगटन इरविंग ने लिखा है कि अरब में इस्लाम के प्रसार से जब अरब के बिखरे हुए क़बीले संगठित हो गए तो राजा हिराक़ल को यह अरब एकता अपने लिए ख़तरा महसूस हुई। उसने तय किया कि एक बड़ी सेना तैयार करे और अपने संभावी दुश्मन पर आक्रमण करके कुचल डाले। अतः उसने अरब की सीमा पर अपनी सेना को इकट्ठा करना शुरू कर दिया। (पृष्ठ संख्या 232)

पैग़ंबर-ए-इस्लाम बराबर चारों ओर के हालात मालूम करते रहते थे। अतः जब आपको यह मालूम हुआ कि हिराक़ल ने अरब की सीमा पर फ़ौज जमा की है, ताकि अरब पर आक्रमण करके इस्लाम का ज़ोर तोड़ दे तो आपने तुरंत जवाबी कार्यवाही का निर्णय किया। इसके बाद वह जंगी मुहिम पेश आई, जिसे ‘ग़ज़वा-ए-तबूक’ कहा जाता है।

आपने निरंतर उपदेश व दीक्षा के द्वारा मुसलमानों में यह भावना उजागर की कि वे ज़्यादा-से-ज़्यादा तादाद में इस मुहीम के लिए निकलें। अत: कठिन परिस्थितियों के बाद भी 30 हज़ार की सेना इस मुहीम के लिए तैयार हो गई। इस बारे में जो वर्णन हुए हैं, उनका एक अंश यह है

हज़रत मुहम्मद जब किसी जंग के लिए निकलते तो बड़ी गोपनीयता से काम लेते थे, मगर ग़ज़वा-ए-तबूक में आपने इससे भिन्न तरीक़ा अपनाया। इस बार आपने खुलेआम लोगों के सामने घोषणा की। आपने उन्हें जिहाद का हुक्म दिया और उन्हें इस बात की ख़बर दी कि आपका निशाना रोम की तरफ़ है। (अल-बिदाया वन-निहाया, 3:5)

ग़ज़वा-ए-तबूक इस्लामी इतिहास की एक प्रमुख घटना है। इसके विषय में बहुत से विवरण पैग़ंबर की जीवनी और इतिहास में आए हैं। इस घटना का अध्ययन कीजिए तो इससे पैग़ंबर-ए-इस्लाम की जंग-पद्धति के बारे में अति महत्त्वपूर्ण नियम सामने आते हैं। इनमें से दो नियम यह हैं

1. एक यह कि तबूक की मुहिम के अवसर पर पैग़ंबर-ए-इस्लाम का फ़ौजी क़दम बढ़ाना बतौर सुरक्षा था। वह कोई आक्रमण न था। इससे मालूम हुआ कि इस्लाम में आक्रमक जंग नहीं है। इस्लाम में जंगी अग्रसरता केवल उस समय की जाती है, जबकि बतौर सुरक्षा ऐसी अग्रसरता करना आवश्यक हो गया हो।

2. दूसरी बात यह कि रक्षात्मक अग्रसरता में भी टकराव अनिवार्य रूप से आवश्यक नहीं है। अगर इसकी संभावना हो कि शक्ति के प्रदर्शन से यह लाभ हो सकता है कि दुश्मन पीछे हट जाए और अपने आक्रामकता के इरादे से रुक जाए तो अपनी अग्रसरता को प्रदर्शन की सीमा में रखा जाएगा, इसे अनिवार्यतः जंगी टकराव तक नहीं ले जाया जाएगा।

यही बुद्धिमानी थी जिसके आधार पर पैग़ंबर-ए-इस्लाम ने अपने सामान्य स्वभाव के ख़िलाफ़ तबूक की तैयारी पूरे तौर पर खुलेआम और घोषणा के साथ की और फ़ौज के प्रस्थान में भी गोपनीयता के स्थान पर प्रकटीकरण का तरीक़ा अपनाया। इसके फलस्वरूप यह हुआ कि आपके शाम की सीमा पर पहुँचने से पहले रूमियों तक यह ख़बर पहुँच गई कि पैग़ंबर-ए-इस्लाम 30 हज़ार वीर लोगों के साथ रूमियों की तरफ़ बढ़ रहे हैं।

इस प्रदर्शन का संभावित लाभ प्राप्त हुआ। रूमी शासक ने भयभीत होकर अपनी फ़ौजों को पीछे हटने का हुक्म दे दिया। जब पैग़ंबर-ए-इस्लाम को रूमी फ़ौजों की पीछे हटने की जानकारी हुई तो आप भी आगे बढ़ने से रुक गए। (अल-रसूल फ़ी अल-मदीना, पृष्ठ 234)

इस्लाम की आम पॉलिसी यही है कि जहाँ तक संभव हो जंग से बचा जाए। यह पॉलिसी इस्लाम के मूल उद्देश्य व योजना के अनुसार है, क्योंकि इस्लाम का उद्देश्य लोगों को नरक के रास्ते से हटाकर स्वर्ग का रास्ता दिखाना है, न यह कि वे बेख़बरी (unawareness) के जिस जीवन में हैं, वहीं मारकर उन्हें ख़त्म कर दिया जाए।

एक व्यापारी की दृष्टि आदमी की जेब पर होती है, जबकि एक योद्धा की दृष्टि आदमी की गर्दन पर। इसके विपरीत इस्लाम की दृष्टि आदमी के हृदय पर होती है। इस्लाम का उद्देश्य लोगों का हृदय-परिवर्तन करना है, ताकि वे अपने ईश्वर की कृपाओं में हिस्सा पा सकें।

कोई व्यक्ति चाहे दुश्मन हो या किसी दूसरे धर्म से संबंध रखता हो, उन सबसे पहले वह इंसान है। इस्लाम चाहता है कि हम उस ‘इंसान’ तक पहुँचें और उसके हृदय के द्वार पर दस्तक दें। क्या अजब कि उसका प्राकृतिक गुण जाग उठे और वह ईश्वरीय मार्ग पर चल पड़े।

इसका उदाहरण स्वयं रूमियों के क़िस्से में मौजूद है। ठीक उस ज़माने में जबकि रूमियों से कशमकश चल रही थी, रूमियों के उच्च पदाधिकारी ने इस्लाम स्वीकार कर लिया।

यह फ़रवह बिन अम्र अल-जुज़ामी थे। वह एक ईसाई थे। क़बीला बनू अल-नाफ़रह के ऊपर रूमियों की ओर से शासक थे। बनू अल-नाफ़रह के लोग उक़बा खाड़ी और यनबअ के बीच रहते थे। जब इस्लाम का प्रकटन हुआ और इसकी ख़बरें अरब में फैलीं तो फ़रवह इससे प्रभावित हुए। अंततः उन्होंने इस्लाम स्वीकार कर लिया।

फ़रवह अल-जुज़ामी ने अपने इस्लाम स्वीकार करने की सूचना एक संदेशवाहक के द्वारा पैग़ंबर-ए-इस्लाम के पास भेजी और उपहारस्वरूप एक सफ़ेद ख़च्चर भी आपके लिए भेजा। रूमी राजा को जब इस घटना की सूचना मिली तो उन्होंने फ़रवह को अपने पास बुलाकर उन्हें क़ैद में डाल दिया। इसके बाद वे फ़रवह को फ़िलिस्तीन में अज़रा नामक एक झरने के पास ले गए और तलवार से उन्हें क़त्ल कर दिया। रूमी जब फ़रवह को हत्या-स्थल पर लाए तो फ़रवह ने यह छंद कहाअर्थात मुसलमानों के सरदार को यह ख़बर पहुँचा दो कि मेरी हड्डियाँ और मेरा पूरा अस्तित्व मेरे रब के लिए है। (सीरत इब्ने-हिशाम, 262:4)

फ़रवह बिन अम्र हालाँकि क़त्ल कर दिए गए, मगर एक नियम पर क़ायम रहने के आधार पर क़त्ल किया जाना कोई साधारण घटना नहीं। ऐसा आदमी अपने पूरे अस्तित्व से इस नियम की सच्चाई की गवाही देता है, जिसकी ख़ातिर उसने अपनी जान दे दी है। जहाँ लोगों ने स्वयं-रचित सिद्धांतों को बाज़ार की स्याही से लिख रखा है, वहाँ वह अपने सिद्धांतों की सत्यता को अपने ख़ून से लिखता है ऐसी मौत हज़ारों लोगों के लिए जीवन का सबब होती है। अतः यही हुआ। प्रथम दौर के मुसलमानों की इस प्रकार की क़ुर्बानियों ने एक ईसाई इलाक़े को सदैव के लिए एक मुस्लिम इलाक़ा बना दिया।

Maulana Wahiduddin Khan
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