मतभेद की सीमा

 पैग़ंबर-ए-इस्लाम ने एक तरफ़ यह फ़रमाया— “ज़ालिम हुक्मरान के सामने सत्य व न्याय की बात कहना श्रेष्ठ जिहाद है।” (अबू दाऊद, हदीस नं० 4,344)

 दूसरी तरफ़ हदीस में वर्णन है— “जो शख़्स अपने हाकिम में ऐसी चीज़ देखे, जो उसको पसंद न हो तो वह उस पर सब्र करे।इसी तरह आपने फ़रमाया कि तुम अपने हाकिम की बात सुनो और उसकी आज्ञा का पालन करो, चाहे वह तुम्हारी पीठ पर कोड़ा मारे और तुम्हारा माल छीन ले। (सही मुस्लिम, किताबुल ईमान)

 इन हदीसों में बज़ाहिर दो प्रकार के आदेश हैं। एक तरफ़ यह आदेश कि तुम अपने हाकिम में कोई ग़लत बात देखो तो खुले तौर पर उसकी घोषणा करो। दूसरी तरफ़ हदीस यह बताती है कि लीडर के अंदर तुम्हें कोई ग़लत बात दिखाई दे तो उस पर सब्र करो। अगर वह तुम्हारे ऊपर ज़ुल्म करे, तब भी तुम उसे सहन करो।

 यह एक अति महत्त्वपूर्ण निर्देश है जिससे दो चीज़ों का भेद मालूम होता है और वह है घोषणा और अग्रसरता का भेद। यह एक वांछनीय बात है कि इंसान हुक्मरान के अंदर कोई ग़लत बात देखे तो वह नसीहत और शुभेच्छा के अंदाज़ में उसकी घोषणा करे, लेकिन जहाँ तक व्यावहारिक अग्रसरता का संबंध है तो इंसान को उससे पूर्णतः बचना चाहिए। इंसान को चाहिए कि वह नसीहत और टकराव की सियासत में अंतर करे। नसीहत के जायज़ हक़ को इस्तेमाल करते हुए वह सियासी टकराव से पूर्णतः बचे।

 भेद करने का यह नियम बेहद ज़रूरी है। समाज में जब भी हिंसा का वातावरण बनता है, वह उस समय बनता है, जबकि लोग हुक्मरान के ख़िलाफ़ व्यावहारिक टकराव की मुहिम शुरू कर दें। वे सियासत के सुधार के नाम पर हुक्मरान को सत्ता से हटाने की योजना बनाएँ, लेकिन अगर इस प्रकार की विवादित सियासत से बचते हुए केवल नसीहत को पर्याप्त समझा जाए तो हमेशा ऐसा होगा कि समाज में अमन क़ायम रहेगा और समाज कभी भी हिंसा का जंगल नहीं बनेगा।

Maulana Wahiduddin Khan
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