भूमिका
दृष्टिगत पुस्तक प्रचलित अर्थों में कोई पुस्तक नहीं है। यह लेखों का एक समूह है। मासिक पत्रिका ‘अल-रिसाला’ में पिछले वर्षों में शांति और इस्लाम के विषय पर जो लेख छपते रहे हैं, उनको इस पुस्तक में एकत्र कर दिया गया है। इन लेखों का उद्देश्य संयुक्त रूप से यह है कि शांति और जंग के संबंध में इस्लाम के बारे में भ्रांतियों को दूर किया जाए और इस विषय पर इस्लाम की सही विचारधारा को स्पष्ट किया जाए।
इस्लाम पूर्ण रूप से एक शांतिप्रिय धर्म है। इस्लाम में शांति की हैसियत सामान्य नियम (general rule) की है और जंग की हैसियत केवल एक अपवाद (exception) की। यह अद्भुत अपवाद हमेशा दूसरों की तरफ़ से विवशतापूर्वक पेश आता है, न कि स्वयं अपनी तरफ़ से एकपक्षीय अग्रसरता (aggression) के रूप में।
इस्लाम का मूल उद्देश्य इंसान की सोच को बदलना है। इंसान के अंदर एकेश्वरवाद के आधार पर एक बौद्धिक क्रांति लाना है। इस हक़ीक़त को एक हदीस में इस प्रकार बताया गया है:
“आगाह कि इंसान के शरीर में मांस का एक टुकड़ा है। अगर वह स्वस्थ हो तो पूरा शरीर स्वस्थ रहता है और अगर वह बिगड़ जाए तो सारा शरीर बिगड़ जाता है। आगाह कि यह दिल है।”
इस हदीस में दिल से अभिप्राय क्या है? इब्ने हाजर अल-असक़लानी ने लिखा है कि इस हदीस से जो साबित किया गया है कि बुद्धि हृदय के भीतर है, लेकिन यह सही नहीं। हक़ीक़त यह है कि इस हदीस में हृदय से तात्पर्य विचारों का केंद्र नहीं, बल्कि रक्त-प्रवाह का केंद्र है। इस हदीस में हृदय और शरीर का वर्णन बतौर उपमा है यानी जिस प्रकार शारीरिक स्वास्थ्य हृदय के स्वास्थ्य पर निर्भर करता है, उसी प्रकार धार्मिक जीवन की स्थापना एवं स्थायित्व इस पर निर्भर है कि इंसान के अंदर ज़िंदा ईमान मौजूद हो।
इंसान के कर्म तभी सही होते हैं, जब उसके विचार सही होते हैं। इसलिए इस्लाम में सारा ज़ोर सही विचारधारा को जीवित करने पर दिया गया है। ऐसी हालत में जंग इस्लाम के ज़रूरी कामों के नक़्शे से बाहर है। इस्लाम की शिक्षा यह है कि हर हाल में सारा ज़ोर विचार और विवेक की जागृति पर दिया जाए। इंसानी मानसिकता के अनुसार सोच से कर्म पैदा होता है, मगर कर्म से सोच पैदा नहीं हो सकती।
हक़ीक़त यह है कि जंग इस्लाम के सुधारवादी नक़्शे को बिगाड़ने वाली है। जंग इस्लाम के सुधार के नक़्शे को बनाने वाली नहीं— चाहे ग़ैर-इस्लाम हो या इस्लाम— किसी के लिए यह संभव नहीं कि वह जंग और हिंसा के द्वारा कोई सकारात्मक लाभ प्राप्त कर सके। इसलिए जंग को टालने के समस्त प्रयासों के बावजूद अगर जंग की स्थिति आ जाए तो मुसलमानों का पहला प्रयास यह होना चाहिए कि वे जल्द-से-जल्द जंग के वातावरण को समाप्त करने का प्रयत्न करें, ताकि शांति के वातावरण में इस्लाम का मूल सकारात्मक काम जारी रह सके।
जिहाद क्या है? जिहाद शांतिपूर्ण संघर्ष का दूसरा नाम है। आजकल की भाषा में जिहाद को शांतिपूर्ण सक्रियतावाद (peaceful activism) कहा जा सकता है यानी शांतिपूर्ण माध्यमों का इस्तेमाल करते हुए किसी महान उद्देश्य को प्राप्त करने का प्रयास करना।
जिहाद का शाब्दिक अर्थ प्रयत्न या संघर्ष करना है। क़ुरआन में यह आदेश दिया गया है— ईश्वर की किताब के द्वारा उनसे जिहाद-ए-कबीर यानी बड़ा जिहाद करो (25:52) और एक हदीस में बताया गया है कि मुजाहिद वह है, जो ईश्वर के आज्ञापालन के लिए अपने नफ़्स से मुक़ाबला करे। पैग़ंबर-ए-इस्लाम ‘तबूक’ की जंग से वापस आए। यह एक ऐसा अभियान था जिसमें कोई टकराव पेश नहीं आया। वापसी के बाद आपने फ़रमाया कि हम छोटे जिहाद से बड़े जिहाद की तरफ़ वापस आए हैं।
जिहाद पूर्ण रूप से एक शांतिपूर्ण अमल का नाम है। व्यक्तिगत दृष्टि से जिहाद यह है कि इंसान नफ़्स के प्रलोभनों से और अपने वातावरण के दुखद अनुभवों के बावजूद ईश्वर के पसंदीदा रास्ते को न छोड़े। प्रतिकूल (unfavorable) कारणों का मुक़ाबला करते हुए वह अपने आपको सत्य की नीति पर क़ायम रखे। सामूहिक दृष्टि से जिहाद को शांतिपूर्ण संघर्ष कहा जा सकता है। इसका मतलब यह है कि किसी इस्लामी उद्देश्य के लिए जब कोई आंदोलन शुरू किया जाए तो उसे संघर्षपूर्ण शैली से आगे बढ़ाया जाए, न कि हिंसात्मक शैली से। हिंसात्मक शैली में इंसान ताक़त पर भरोसा करता है, जबकि इसकी तुलना में संघर्षपूर्ण शैली यह है कि प्राकृतिक तरीक़े से प्रेरणा लेकर और उसे इस्तेमाल करते हुए अपना उद्देश्य प्राप्त किया जाए।
संघर्षपूर्ण शैली में सबसे ज़्यादा भरोसा बौद्धिक जागरूकता पर किया जाता है। लोगों के अंदर स्वस्थ भावना (healthy spirit) जगाई जाती है। इंसानी तरक़्क़ी के लिए जो विभाग बुनियादी समझे जाते हैं, उनको सकारात्मक मज़बूती पर उभारा जाता है। यह प्रयास किया जाता है कि लोगों के अंदर उच्च चरित्र पैदा हो। लोग दूसरों के लिए फ़ायदेमंद बनें, लोगों के अंदर दूसरों के लिए हमदर्दी और शुभेच्छा की भावना पैदा हो। जिहाद का हथियार प्रेम है, न कि नफ़रत व हिंसा।
हक़ीक़त यह है कि जिहाद को संहार (destruction) के अर्थ के समान समझना जिहाद को छोटा समझना है। संहार एक बहुत ही सीमित और सामयिक कर्म है। इसके विपरीत जिहाद एक निरंतर (continuous) और हमेशा चलने वाला कर्म है। जिहाद इस्लाम का एक महानतम कर्म है, जो इंसान के जीवन में हर दिन और हर क्षण जारी रहता है। वह किसी भी हाल में स्थगित नहीं होता।
इंसान के अंदर जब सत्य की खोज की भावना उभरती है तो वह एक वैचारिक जिहाद में व्यस्त हो जाता है। फिर जब उसे सत्य की पहचान प्राप्त होती है तो उसके जीवन में जिहाद और ज़्यादा वृद्धि के साथ जारी हो जाता है। अब इंसान को यह करना पड़ता है कि वह इच्छाओं, शैतान और वातावरण के मुक़ाबले में संघर्ष करते हुए अपने ईमान को लगातार बढ़ाए। वह अपने अंदर सकारात्मक बौद्धिक क्रिया को इस प्रकार जारी रखे कि ईश्वर का बोध हर क्षण उन्नति करता रहे। यहाँ तक कि वह उच्च स्थान तक पहुँच जाए।
हदीस में वर्णन है कि ईमान घटता-बढ़ता रहता है। ईमान को क्षति (erosion) से बचाने की माँग निरंतर जिहाद है। सामूहिक जीवन में रहते हुए बार-बार ऐसा होता है कि इंसान के ऊपर ग़ुस्सा, ईर्ष्या, घमंड, अकृतज्ञता, लालसा जैसे जज़्बात का हमला होता है। ये नकारात्मक भावनाएँ इंसान के ईमान को कमज़ोर या अपूर्ण कर देने वाली हैं। उस समय इंसान को यह करना पड़ता है कि वह अपने विवेक को जाग्रत करके अपनी आंतरिक संवेदनाओं से लड़े और उनको परास्त करके समाप्त करे। यह एक जिहाद है और इस जिहाद के बिना कोई व्यक्ति अपने ईमान को क्षति या नष्ट होने से नहीं बचा सकता।
वहीदुद्दीन ख़ान
नई दिल्ली; 25 मई, 2004