कश्मीर की समस्या पर मैं इसके प्रारंभ से ही सोचता रहा हूँ। ईश्वर के मार्गदर्शन से मैंने प्रारंभ में इस मामले में जो राय क़ायम की थी, वही राय आज भी मुझे सही नज़र आती है। ईश्वर की कृपा से मुझे इस मामले में अपनी राय बदलने की ज़रूरत नहीं पड़ी।
मुद्रित रिकॉर्ड के अनुसार, इस विषय पर मैं 1968 से लिखता रहा हूँ। इसके बारे में संभवत: मेरा पहला लेख वह है, जो साप्ताहिक ‘अल-जमीयत’ में छपा था। यहाँ यह लेख ‘अल-जमीयत’ उर्दू से लेकर अनुकरण किया जा रहा है—
‘‘अपना अधिकार प्राप्त करने का समय वह होता है, जब निर्णय का सिरा अपने हाथ में हो; मगर हमारे लीडर उस समय होश में आते हैं, जबकि इनका केस अख़लाक़ी (नैतिक) केस बन चुका हो। यह अनुभूति मुझे अक्सर उस समय होती है, जबकि मैं कश्मीरी लीडर ‘शेख अब्दुल्लाह’ के भाषण पढ़ता हूँ। शेख साहब एक निस्वार्थ कश्मीरी हैं। अपने साहस और बलिदानों के कारण वे उचित रूप से ‘शेर-ए-कश्मीर’ कहलाने के पात्र हैं, मगर उनकी वर्तमान कश्मीरी मुहिम मुझे ‘मुश्ते बाद अज़ जंग’ (लड़ाई के बाद मुक्का मारना) से ज़्यादा नज़र नहीं आती।
1947 ई० में वे इस पोज़ीशन में थे कि अगर वे वास्तविक सोच (realistic approach) धारण करते तो अपना निर्णय स्वयं अपनी इच्छा के अनुसार कर सकते थे, मगर उन्होंने निर्णय के समय को अवास्तविक (unrealistic) सपनों में खो दिया। अब जबकि निर्णय का सिरा उनके हाथ से निकल चुका है तो वे चीख़-पुकार कर रहे हैं। हालाँकि अब उनकी चीख़-पुकार मात्र नैतिक दुहाई की है और नैतिक दुहाई इस संसार में कोई वज़न नहीं रखती।
एक नवयुवक ने एक बार एक दुकान खोली। अभी उन्होंने जीवन में पहली बार क़दम रखा था और उन्हें अनुमान न था कि दुनिया में किस प्रकार की सुरक्षाओं की आवश्यकता पड़ती है। अतः दुकान में एक साधारण ताला लगाना शुरू किया।
एक रोज़ दुकान से उदास हालत में लौटे। यह देखकर एक बुज़ुर्ग ने पूछा, ‘क्या बात है, आज उदास नज़र आ रहे हो?’
‘दुकान में चोरी हो गई।’ नवयुवक ने कहा।
‘कैसे?’ बुज़ुर्ग ने पूछा।
‘ताला साधारण था। कोई व्यक्ति रात में खोलकर सामान निकाल ले गया।’ नवयुवक ने कहा।
‘यह तुम्हारी ग़लती थी।’
‘जी हाँ, अब अनुभव हुआ कि दुकान में ताला अच्छे क़िस्म का लगाना चाहिए।’
यह सुनकर बुज़ुर्ग ने फ़रमाया, ‘यह भी कोई अनुभव के बाद मालूम होने की चीज़ है। जब तुम दुकानदारी की लाइन में दाख़िल हुए तो तुम्हें पहले दिन से जानना चाहिए कि दुकान में ताला मज़बूत लगाया जाता है।’
दुकान और इस प्रकार के दूसरे निजी मामलों में तो इसकी भी संभावना है कि आदमी एक बार ठोकर खाकर संभल जाए, मगर क़ौमी निर्णयों की दशा बिल्कुल भिन्न है। व्यक्तिगत मामलों में एक बार नुक़सान उठाने के बाद यह भी संभावना रहती है कि परिश्रम करके आदमी दोबारा परिस्थितियों को अपने अनुकूल बना ले, मगर क़ौमी मामलों में जब निर्णय का सिरा एक बार हाथ से निकल गया तो समस्या बड़ी जटिल हो जाती है। फिर तो धरती-आकाश की नई करवटें ही इसे बदल सकती हैं।
क़ौमी नेतृत्व ऐसा काम है, जो उन लोगों के करने का है, जो वर्तमान के अंदर भविष्य को देख सकें। बाक़ी वह लोग जिनकी निगाहें केवल अतीत और वर्तमान तक जाती हों और भविष्य इन्हें केवल उस समय नज़र आए, जब वह घटना बनकर उनके ऊपर टूट पड़ा हो, ऐसे लोग क़ौम का नेतृत्व नहीं कर सकते। निश्चय ही अपनी अविवेकपूर्ण अग्रसरताओं से क़ौमों को समस्याओं में उलझाने का कर्तव्य आवश्यक अंजाम दे सकते हैं।” (अल-जमीयत साप्ताहिक, नई दिल्ली; 14 जून, 1968, पृष्ठ 4)
इसके बाद मैं इसी अंदाज़ से निरंतर कश्मीर के बारे में लिखता रहा हूँ। पिछले 35 वर्ष में कश्मीर के विषय पर मैंने जो कुछ लिखा है, उसे इकट्ठा किया जाए तो एक बहुत मोटी किताब बन जाएगी।
यह ईश्वर कि कृपया है कि मेरी इस लंबी कोशिश से हज़ारों कश्मीरियों को लाभ पहुँचा है। हज़ारों लोग लड़ाई का स्वभाव छोड़कर शिक्षा व प्रगति के क्षेत्र में सकारात्मक रूप से संलग्न हैं। इस सिलसिले में मुझे कश्मीरियों की ओर से निरंतर पत्र व टेलीफ़ोन आदि मिलते रहते हैं, जिनके बारे बताने की यहाँ आवश्यकता नहीं।
कोई भी आंदोलन प्रत्यक्ष में जनता से संबंध रखता है, मगर वास्तव में वह लीडर का आंदोलन होता है। एक या कुछ लीडर अपने भाषणों और लेखों के द्वारा जनता को उभारते हैं और फिर जनता के नाम से अपनी लीडरी की क़ीमत वसूल करते हैं। यह परिस्थिति लीडर की ज़िम्मेदारी को और बढ़ा देती है। ऐसी हालत में केवल उस व्यक्ति को लीडरशिप के मैदान में प्रवेश करना चाहिए जिसने वह आवश्यक तैयारी की हो, जो उसे लीडरशिप की ज़िम्मेदारियों को अदा करने के योग्य बनाती है। आवश्यक तैयारी के बिना जो व्यक्ति लीडरशिप के मैदान में तत्पर हो, वह ईश्वर के निकट सख़्त मुजरिम है, चाहे नासमझ जनता के बीच उसने कितनी ही ज़्यादा लोकप्रियता प्राप्त कर ली हो।
कश्मीरियों के लिए अंतिम समय आ गया है कि वे अपने लीडरों से ऊपर उठकर पूरे मामले पर नए सिरे से विचार करें। लीडरों के बयानों की रोशनी में नहीं, बल्कि वास्तविकताओं की रोशनी में वे अपने जीवन का नक़्शा बनाएँ। इसके सिवा उनके लिए सफलता की और कोई दशा नहीं।