ईश्वरीय चेतावनी, न कि इंसानी ज़ुल्म
पैग़ंबर-ए-इस्लाम हज़रत मुहम्मद ने अपनी उम्मत को बाद के जिन हालात से अग्रिम रूप से आगाह किया है, उनमें से एक यह है कि बाद के ज़माने में मुस्लिम समुदाय दूसरे समुदायों की पकड़ में आ जाएगा। अतः फ़रमाया कि क़रीब है कि क़ौमें तुम्हारे ख़िलाफ़ एक-दूसरे को पुकारें, जिस प्रकार खाना खिलाने वाले एक-दूसरे को दस्तरख़्वान पर पुकारते हैं। (अबू दाऊद, हदीस नं० 4,297)
यहाँ मैं उस घटना की चर्चा करना चाहूँगा, जो अठारहवीं शताब्दी ई० के आख़िर में घटित हुई। प्रारंभ में यूरोप के कोलोनियल साम्राज्य (colonial powers) के द्वारा यह घटना घटित हुई। इसके बाद दूसरे समुदाय इसमें सम्मिलित होते चले गए। इसका सिलसिला अभी तक जारी है। ऐसा क्यों हुआ? क़ुरआन के अध्ययन से मालूम होता है कि यह सीधे तौर पर ईश्वर का तरीक़ा है। ईश्वर का तरीक़ा यह है कि क़ौमों को जगाने के लिए उन पर चेतावनियाँ उतारी जाती हैं। यह गोया शॉक ट्रीटमेंट (shock treatment) होता है, ताकि वे चौंकें और अपना सुधार करें। अतः कुरआन में ईश्वर ने फ़रमाया— “जब हमारी तरफ़ से उन पर सख़्ती आई तो वे क्यों न गिड़गिड़ाए, बल्कि उनके दिल सख़्त हो गए और शैतान उनके अमल को उनकी नज़र में ख़ुशनुमा करके दिखाता रहा।” (6:43)
इस आयत में ‘तज़ईन’ (beautification) का शब्द इस्तेमाल किया गया है। इसका मतलब है एक बुरे काम का सुंदर शब्दों से सौंदर्यकरण (beautification) करना, ताकि उसकी बुराई छुप जाए। मौजूदा ज़माने के मुसलमानों के साथ ठीक यही घटना पेश आई। मौजूदा ज़माने के मुस्लिम मार्गदर्शकों ने जाने-अनजाने में ठीक वही काम किया, जिसे कथित आयत में सौंदर्यकरण कहा गया है।
मौजूदा ज़माने में मुसलमानों के साथ दूसरी क़ौमों की ओर से जो समस्याएँ पेश आईं, वह ईश्वरीय चेतावनी (warning) थी, मगर मुस्लिम लीडरशिप ने इन समस्याओं को अत्याचार और षड्यंत्र की परिभाषाओं में बयान करना शुरू कर दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि जो घटना इसलिए हुई कि मुसलमान अपनी ग़लतियों का अहसास करें और अपने सुधार में सक्रिय हो जाएँ। उनकी सारी सोच दूसरी क़ौमों की तरफ़ आकृष्ट हो गई। जिस घटना से आत्मनिरीक्षण का ज़हन पैदा होना चाहिए था, इससे दूसरों के निरीक्षण का ज़हन जाग उठा जो बढ़ते-बढ़ते हिंसा तक पहुँच गया।