क़ुरआन के अध्याय नं० 4 में एक आदेश इन शब्दों में वर्णित है— “तुम अपने दीन में ग़ुलू न करो (4:171)।” यही बात हदीस में भी वर्णित है। पैग़ंबर-ए-इस्लाम ने फ़रमाया— “तुम लोग दीन में ग़ुलू से बचो, क्योंकि पिछली उम्मतें दीन में ग़ुलू की वजह से हलाक हो गईं (सुनन इब्ने माजह, 3029)।”
ग़ुलू का मतलब अतिशयोक्ति या हद से गुज़र जाना (extremism) है। ग़ुलू हर मामले में ग़लत है। ग़ुलू दीन की मूल आत्मा के ख़िलाफ़ है। ग़ुलू का यही स्वभाव बढ़कर हिंसा और लड़ाई तक पहुँच जाता है। जो लोग ग़ुलू की मानसिकता का शिकार हों, वे अपने विशेष स्वभाव के आधार पर संतुलन की शैली पर संतुष्ट नहीं होते। वे शांति और संतुलन की शैली को कसौटी से कम समझते हैं, इसलिए वे बड़ी सरलता के साथ हिंसा की ओर प्रवृत्त हो जाते हैं। वे उद्देश्य की प्राप्ति के नाम पर लड़ाई आरंभ कर देते हैं।
ग़ुलू का विपरीत संतुलन है। जब लोगों के अंदर संतुलन की मानसिकता हो तो वे हमेशा शांति के अंदाज़ में सोचेंगे, वे अपने संघर्ष को शांतिपूर्ण रूप से चलाएँगे। हक़ीक़त यह है कि संतुलन और शांति दोनों एक-दूसरे के साथ बड़ी गहराई से जुड़े हुए हैं। जहाँ संतुलन होगा, वहाँ शांति होगी। जहाँ शांति होगी, वहाँ संतुलन पाया जाएगा।
इसके विपरीत ग़ुलू की मानसिकता हमेशा इंसान को अतिवाद की ओर ले जाती है और अतिवाद बड़ी सरलता के साथ हिंसा और टकराव में परिवर्तित हो जाता है। अतिवाद और हिंसा दोनों एक-दूसरे के साथ बहुत गहरा संबंध रखते हैं। यही कारण है कि दीन में ग़ुलू को बहुत ज़्यादा नापसंद किया गया है। यह कहना सही होगा कि ग़ुलूपसंदी का दूसरा नाम हिंसापसंदी है और ग़ुलू न करने का दूसरा नाम है संतुलनपसंदी।