इस्लाम में जंग प्रजा का काम नहीं है, बल्कि वह नियमानुसार स्थापित राज्य का काम है यानी जिस प्रकार लोग समय आने पर स्वयं ही नमाज़ पढ़ लेते हैं, इसी प्रकार वे स्वयं जंग व संहार नहीं कर सकते। जंग या संहार की घोषणा केवल एक स्थापित राज्य कर सकता है। राज्य अगर पुकारे तो जनता इसकी सहायक बनकर इसके साथ शामिल हो सकती है, लेकिन स्वयं वह हरगिज़ कोई जंग नहीं छेड़ सकती।
क़ुरआन में सामान्य आदेश के रूप में यह नियम बताया गया है कि जब भी कोई भय या बाहरी आक्रमण की स्थिति उत्पन्न हो तो जनता को स्वयं कोई कार्यवाही नहीं करनी चाहिए। उसे केवल यह करना चाहिए कि वह इस मामले को शासकों तक पहुँचाए (4:83) और उन्हें अवसर दे कि वे आवश्यकतानुसार अपनी जवाबी कार्यवाही की योजना बनाएँ। इसी बात का हदीस में इन शब्दों में वर्णन हुआ है, “हुक्मरान ढाल है, जंग इसकी मातहती में की जाती है और इसी के द्वारा बचाव हासिल किया जाता है।” इससे मालूम होता है कि जंग की घोषणा या इसकी योजनाबंदी पूर्ण रूप से स्थापित राज्य का काम है। आम मुसलमान इसकी मातहती में रहकर और इसके आदेशागत आवश्यकतानुसार अपनी भूमिका अदा कर सकते हैं, इससे आज़ाद होकर नहीं।
इस इस्लामी नियम से स्पष्ट रूप से मालूम होता है कि इस्लाम में इस ग़ैर-सरकारी जंग की कोई गुंजाइश नहीं जिसे आम तौर पर गोरिल्ला वार (gorilla war) कहा जाता है, क्योंकि गोरिल्ला वार जनता के स्वतंत्र संगठनों की ओर से लड़ा जाता है, न कि सरकारी संस्थान की ओर से।
स्वयं सरकारी संस्थान के लिए आवश्यक है कि अगर वह किसी देश या समुदाय के ख़िलाफ़ रक्षात्मक जंग लड़ना चाहता है तो क़ुरआन के अनुसार, पहले वह इसकी नियमानुसार घोषणा करे और अगर इसके ख़िलाफ़ कोई समझौता है तो इस समझौते को वह निरस्त कर दे (8:58)। इस्लाम में ऐलान के साथ जंग करना है, बिना ऐलान जंग (undeclared war) इस्लाम में नहीं। इस नियम के अनुसार प्रॉक्सी वार (proxy war) इस्लाम में जायज़ नहीं।
जैसे इस्लाम में सभी कामों की कुछ शर्तें हैं, इसी प्रकार इस्लाम में जंग की भी कुछ अनिवार्य शर्तें हैं। इनमें से एक शर्त यह है कि जंग चाहे कोई व्यवस्थित मुस्लिम राज्य करे और चाहे वह रक्षात्मक हो, तब भी इस जंग का लक्ष्य हमलावरों तक सीमित होगा। मतलब इस जंग में मुसलमानों की सेना केवल लड़ने वालों (combatants) पर वार कर सकती है, ग़ैर-लड़ाकों (non-combatants) को अपने आक्रमण का निशाना बनाना फिर भी जायज़ न होगा।
अतः क़ुरआन में आदेश दिया गया है कि तुम उन लोगों के साथ जंग न करो, जिन्होंने तुमसे जंग नहीं की। ऐसे लोगों के साथ तुम अच्छे व्यवहार और इंसाफ़ का मामला करो; लेकिन जिन लोगों ने तुमसे जंग की, उनसे जंग करने के लिए तुम आज़ाद हो। इनके साथ तुम्हारा मामला दोस्ती का मामला नहीं (60:8-9)।
अगर मान लिया जाए कि किसी क़ौम के साथ मुस्लिम हुकूमत की जंग छिड़ जाए और यह जंग इस्लामी शर्तों के अनुसार हो, तब भी मुसलमानों के लिए यह जायज़ नहीं होगा कि वे आम नागरिकों के ख़िलाफ़ किसी प्रकार की विध्वंसकारी कार्यवाही करें, जैसी विध्वंसकारी कार्यवाही 11 सितंबर, 2001 को न्यूयॉर्क और वाशिंगटन में की गई।
इसी प्रकार जायज़ इस्लामी जंग में भी मुसलमानों को यह अनुमति नहीं कि वे दूसरे पक्ष पर आत्मघाती बमबारी करें। मतलब जानबूझकर अपने शरीर पर बम बाँधकर दूसरे पक्ष की फ़ौजी या शहरी आबादी पर टूट पड़ें और जानबूझकर अपने को हलाक करके दूसरे पक्ष को हलाक करें। इस प्रकार का मामला बिल्कुल भी शहादत या शहीद होना नहीं है। इस्लाम में शहीद होना है, इस्लाम में शहीद करवाना नहीं है।