तज़्किया
क़ुरआन में पैग़म्बर के दो ख़ास काम बताए गए हैं - तालीमे-किताब और तज़्किया (2:129) । तालिमे-किताब का मतलब क़ुरआन की तालीम है । यानी ख़ुदाई कलाम को फ़रिश्ते से लेकर इन्सानों तक पहुंचाना। दूसरी चीज़ ‘तज़्किया’ है। तज़्किया से मतलब वही चीज़ है जिसको मौजूदा ज़माने में ‘एजुकेट’ करना या जागरूक बनाना कहा जाता है। यानी लोगों की सोच को रब्बानी सोच बनाना। उनका रूहानी सुधार करके उन्हें इस क़ाबिल बनाना कि वे उस तरह सोचें जिस तरह ख़ुदा चाहता है कि सोचा जाए। और इस तरह फ़ैसला करें जिस तरह ख़ुदा चाहता है कि फ़ैसला किया जाए ।
मौजूदा ज़माने में जो मुस्लिम सुधारक उठे, उनमें आम तौर पर यह बुनियादी ख़ामी पाई जाती है कि उन्होंने ‘तज़्किया’ से अपने काम का आग़ाज़ नहीं किया । लगभग सभी का यह हाल हुआ कि मुसलमानों के कुछ हालात उसके सामने आए और उनको देखकर वे पुरजोश तौर पर उठ खड़े हुए। ज़ेहन बनाए बग़ैर उन्होंने अमली काम शुरू कर दिया — किसी ने अंग्रेज़ी साम्राज्य से बिगड़ कर आज़ादी के जिहाद का नारा लगाया; कोई पश्चिमी सभ्यता का ज़ोर देख कर मैदान में कूदा; किसी को ‘श्रद्धानन्द’ के क़त्ल के बाद पैदा होने वाले हालात ने मुजाहिदे-इस्लाम बना दिया; कोई शुद्धि-संगठन के आन्दोलन से बेचैन होकर सरगर्म हो गया; किसी को मुस्लिम ख़िलाफ़त के पतन ने जान देने पर आमादा कर दिया, वग़ैरह।
यह सब काम करने का ग़ैर-पैग़म्बराना तरीक़ा है। काम का पैग़म्बराना तरीक़ा यह है कि उसको ‘तज़्किया’ से शुरू किया जाए, न कि आख़िरी क़दम उठा लिया जाए।
तज़्किया का एक मतलब यह है कि लोगों को दीन का सही इल्म हासिल हो जाए। वे सही दीनी अन्दाज़ में सोचना जान लें। उनके अन्दर यह सलाहियत पैदा हो जाए कि वे ग़ैर-इस्लामी नज़रिए के मुक़ाबले में इस्लामी नज़रिए को पहचान सकें। वह मुख़्तलिफ़ क़िस्म के हालात में यह फ़ैसला कर सकें कि किस वक़्त उन्हें क्या करना है और किस वक़्त उन्हें क्या नहीं करना।
‘तज़्किया’ का दूसरा पहलू है कि लोगों के अन्दर ज़माने को परखने-पहचानने की सलाहियत पैदा हो जाए। वे जान लें कि दुनिया के हालात क्या हैं और इन हालात में दीन को किस तरह चरितार्थ किया जा सकता है।