सोच का फ़र्क़
कुरआन की सूरह हूद में हज़रत शुऐब अलैहिस्सलाम का ज़िक्र है । वह हज़रत इब्राहीम की नस्ल से थे और हज़रत इब्राहीम से क़रीब सौ साल बाद पैदा हुए । उनके मुख़ातिब (सम्बोधित) मदयत के लोग थे । कहा जाता है कि मदयन वाले पुराने ज़माने में अहमर सागर के अरब वाले किनारे पर आबाद थे। पैग़म्बर का इन्कार करने के बाद वे एक भयानक भूकंप में तबाह कर दिए गए।
क़ुरआन में बताया गया है कि हज़रत शुऐब ने जब अपनी क़ौम को ख़ुदा के दीन की दावत दी तो उन्होंने कहा कि ऐ शुऐब जो कुछ तुम कह रहे हो उसका बहुत-सा हिस्सा हमारी समझ में नहीं आता (11:91)। हज़रत शुऐब अलैहिस्सलाम को हदीस में ख़तीबुल-अम्बिया यानी पैग़म्बरों में बेहतरीन बोलने वाला कहा गया है (तफसीर अल-तबरी 1/327) । आप साफ़ और असरदार अन्दाज़ में बात कहने की ख़ास सलाहियत रखते थे। फिर यह कि आपकी क़ौम के लोग हज़रत इब्राहीम को मानते थे । उनकी वंश-परम्परा का सिलसिला चौथी पीढ़ी में हज़रत इब्राहीम से मिल जाता था । इसके बावजूद क्यों ऐसा हुआ कि हज़रत शुऐब ने जब तौहीद (एकेश्वरवाद) के दीन की बात उनके सामने पेश की तो उन्होंने कह दिया कि तुम्हारी बात हमारी समझ में नहीं आती ।
इसकी वजह यह थी कि कई नस्ल गुज़रने के बाद वे हज़रत इब्राहीम की असली तालीम से दूर हो चुके थे । उनकी सोच वह न रही थी जो ख़ुदा के पैग़म्बरों की सोच होती है । इस तरह हज़रत शुऐब और मदयन वालों के बीच एक क़िस्म का ज़ेहनी फ़ासला (intellectual gap) पैदा हो चुका था । यही चीज़ थी जो उनके लिए पैग़म्बर की बात को समझने में रुकावट बन गई ।
जो लोग अल्लाह के अलावा की बड़ाई में जी रहे हों वे अल्लाह की बड़ाई वाली बातों में अपनी ज़ेहनी ख़ुराक नहीं पाते । जो लोग दुनिया के फ़ायदों में खोए हुए हों उन्हें आख़िरत के फ़ायदे की बात बिल्कुल अजनबी मालूम होती है । जो लोग सिर्फ़ अपनी अक़्ल से सोचना जानते हों वे वह्य की रहनुमाई को समझ नहीं सकते। जो लोग क़रीब की सिर्फ़ छोटी मसलेहतों को देख पाते हों वे उन बड़ी मसलेहतों को नहीं देख पाते जो भविष्य के पर्दे में छुपी हुई हों ।
इसी तरह जो लोग नफ़रत की मानसिकता में जीते हों वे मुहब्बत के पैग़ाम को समझ नहीं सकते । जो लोग सिर्फ़ लड़ाई और टकराव की भाषा जानते हों उनके लिए सब्र और नज़रअंदाज़ करने की हिकमत तक पहुंचना मुमकिन न होगा । ख़ुलासा यह कि जो लोग सिर्फ़ इन्सानी अक़्ल से सोचना और राय क़ायम करना जानते हों वे उन बातों को जान और समझ नहीं सकते जिनका जानना और समझना ख़ुदाई अक़्ल के बग़ैर मुमकिन नहीं।