क़ुरआन का पैग़ाम
क़ुरआन ख़ुदा की किताब है । इसका ऊंचा अदब व साहित्य, इसके बुलन्द मज़मून, इसकी शाश्वत शिक्षाएं, इसका विरोधाभास से ख़ाली होना साबित करता है कि यह ख़ुदाई ज़ेहन से निकला हुआ कलाम है । क़ुरआन में हिदायत का सामान है । वह इन्सान की उस तलाश का जवाब है कि वह ज़िन्दगी का अर्थ समझ सके । उसकी प्रकृति जिस रहनुमाई को मांग रही है, क़ुरआन में वह उसको साफ़ और मुकम्मल तौर पर पा लेता है । क़ुरआन उसके तमाम अन्दरूनी सवालों का जवाब देता है । मगर यह हिदायत किसी को अपने आप नहीं मिल जाती । इसको वही शख़्स पाता है जिसके अन्दर सच्ची तलब हो, जो यह आग्रह न करे कि वह आंख से देख कर ही किसी बात को मानेगा । बल्कि वह अपने अन्दर के बोध से समझ में आने वाली बातों पर यक़ीन करने के लिए तैयार हो, जो सबसे बड़ी सच्चाई (ख़ुदा) के आगे झुक कर उस बात का सबूत दे कि वह झूठी ख़ुदापरस्ती से पाक है, जो अपनी कमाई में दूसरे का हिस्सा लगा कर यह ज़ाहिर करे कि उसकी अपनी ज़ात से बाहर पाए जाने वाले तक़ाज़ों को मानने के लिए उसका सीना खुला हुआ है, जो इन्सानी सीमाओं को मानते हुए बाहरी हिदायत की ज़रूरत को स्वीकार करता हो, जो इस सवाल को अहम्मियत दे कि मौजूदा दुनिया का अधूरा व नामुकम्मल होना एक ज़्यादा मुकम्मल दुनिया के होने का तक़ाज़ा करता है । यह सच्ची तलब के लक्षण हैं । क़ुरआन में कहा गया है कि ऐसे ही लोगों के हिस्से में हिदायत आती है और वे ही इस कायनात में कामयाबी की मंज़िल तक पहुंच सकते हैं (2:1-5) ।
इस्लामी ज़िन्दगी की शुरुआत ईमान से होती है । एक शख़्स को जब इस बात की पहचान हो जाए कि इस कायनात को बनाने वाला, इसका मालिक, इसे पालने वाला यानी इसका रब अल्लाह है; वह उसको इस तरह अपनी चेतना का हिस्सा बना ले कि अल्लाह ही उसका सब कुछ बन जाए; वह उसी पर भरोसा करे; उसी से उम्मीद रखे; उसी से ख़ौफ़ खाएं; अपनी ज़िन्दगी को पूरी तरह उसी के रुख़ पर डाल देने का फ़ैसला करे तो इसी का नाम ईमान है ।
ईमान के बाद चार इबादतों को इस्लाम में ‘अरकान’ (स्तंभ) का दर्जा हासिल है - नमाज़, रोज़ा, ज़कात और हज । ये चारों इबादतें इस्लाम के अरकान भी हैं और इस्लाम के मतलूब औसाफ़ (वांछित गुणों) के लक्षण भी । नमाज़ अल्लाह की निकटता तलाश करने की कोशिश है । रोज़ा सब्र की तरबियत (ट्रैनिंग) है । ज़कात यह पैग़ाम देती है कि बन्दों के सच्चे ख़ैरख़्वाह बन कर रहो । हज स्पिरिचुअल एकता व इत्तिहाद का आलिमी (सार्वभौमिक) सबक़ है । यही चार चीज़ें इस्लाम का ख़ुलासा हैं । मोमिन बन्दे से अव्वल तो यह उम्मीद की जाती है कि वह अपने रब की याद में डूबा रहे । वह ज़िन्दगी के किसी मोड़ पर उसके ख़याल से ख़ाली न हो । फिर जिस दुनिया में आदमी को दीनदार बन कर रहना है, वहां बहुत से दूसरे लोग हैं । उनकी तरफ़ से बार-बार तकलीफ़ की बातें सामने आती रहती हैं । अगर आदमी अपने सिवा दूसरों को सहने का मिज़ाज न रखता हो; अगर वह दूसरों को बर्दाश्त करते हुए दूसरों के साथ मिलकर चलने के लिए तैयार न हो तो मौजूदा दुनिया में वह सच्चाई के सफ़र को कामयाबी के साथ तय नहीं कर सकता ।
यह ईमान और यह इबादत अगर सच्चे तौर पर आदमी के अन्दर पैदा हो जाए तो उसके अन्दर वह ख़ुदापरस्ताना ज़िन्दगी उभरती है, जो कायनात का मालिक अपने बन्दों से चाहता है । दुनिया में उसकी हस्ती का होना हक़, सच्चाई और इंसाफ़ का होना बन जाता है । उसकी सोच, उसका अख़्लाक़, ,उसका बरताव, उसके मामलात, सब अल्लाह के रंग में रंग जाते हैं । यही दीने इस्लाम है और यही वह चीज़ है, जिसको सिखाने के लिए क़ुरआन उतारा गया ।
क़ुरआन को क़लम के ज़रिए किताब की सूरत में लिखवाकर इन्सान के हवाले किया गया है । यह इस बात की पूरी व्यवस्था थी कि वह किसी भी तब्दीली के बग़ैर अगली नस्लों तक पहुंच सके । क़ुरआन आज मुकम्मल तौर पर ‘महफ़ूज़’ व पूरी तरह सुरक्षित हालत में मौजूद है । इसके मानने वाले भी बेशुमार तादाद में दुनिया भर में पाए जाते हैं । मगर क़ुरआन वाली ज़िन्दगी अमली तौर पर कहीं नज़र नहीं आती । क़ुरआनी संभावनाएं उसी तरह बन्द हालत में पड़ी हुई हैं, जिस तरह चन्द सौ साल पहले भाप और बिजली की ताक़तें बन्द पड़ी हुई थीं । ऐसा क्यों है? इस सवाल के जवाब को उस वक़्त तक समझा नहीं जा सकता, जब तक ख़ुदा की सुन्नते - इम्तिहान को सामने न रखा जाए । मौजूदा दुनिया इम्तिहान की जगह है । यहां क़ुरआन को मानने वाले और क़ुरआन को न मानने वाले दोनों अपना-अपना इम्तिहान दे रहे हैं । दोनों क़िस्म के लोगों को एक जैसी आज़ादी हासिल है । कोई शख़्स क़ुरआन का इन्कार करके गुमराह होना चाहे तो उसको भी पूरी आज़ादी है । और कोई क़ुरआन को मान कर अमली तौर पर क़ुरआन के ख़िलाफ़ चलना चाहे तो उसके लिए भी रास्ता खुला हुआ है । क़ुरआन को न मानना किसी के बचाव के लिए बहाना नहीं बन सकता । इसी तरह क़ुरआन को मान लेने से किसी को इम्तिहान की हालत से छूट नहीं मिल सकती । मौजूदा दुनिया में जिस तरह क़ुरआन को मानने या न मानने की आज़ादी है, उसी तरह उसको मान कर उसकी तालीमात पर चलने या न चलने की आज़ादी भी हर इंसान को मिली हुई है । एक गिरोह क़ुरआन का इन्कार करके जिस तरह अपनी गुमराहियों के लिए आज़ाद है, दूसरे गिरोह को उसी तरह क़ुरआन का नाम लेते हुए क़ुरआन के ख़िलाफ़ अमल करने की छूट मिली हुई है । मुस्लिम कौम भी ख़ुदा की अदालत में जांच की ठीक उसी सतह पर खड़ी हुई है, जहां दूसरी ग़ैर-मुस्लिम क़ौमें खड़ी हुई हैं:
जो लोग मुसलमान हुए और जो लोग यहूदी हुए और नसारा (ईसाई) और साबी, इनमें से जो शख़्स ईमान लाया अल्लाह पर और आख़िरत के दिन पर और उसने नेक काम किया तो उसके लिए उसके रब के पास अज्र (प्रतिफल) है। और उनके लिए न कोई डर है और न वे ग़मगीन होंगे। (2:62)
जब तक अल्लाह की यह सुन्नत (तरीक़ा) बाक़ी है, यह संभावना भी बाक़ी रहेगी कि कोई अगर क़ुरआन और इस्लाम का नाम ले और अमली तौर पर इस तरह रहे जैसे क़ुरआन और इस्लाम से उसका कोई ताल्लुक़ नहीं, यहां तक कि हदीस से मालूम होता है कि यह आज़ादी यहां तक है कि एक शख़्स क़ुरआन के आलिम और मुफ़स्सिर की हैसियत से नुमायां हो, दुनिया की ज़िन्दगी में वह ख़ुदा के दीन का चैम्पियन बने, मगर हक़ीक़त में उसकी कोई दीनी क़ीमत न हो, वह आख़िरत में उन लोगों के साथ धकेल दिया जाए जिन्होंने क़ुरआन को सिरे से माना ही न था, जिनका दीन-इस्लाम से कोई ताल्लुक़ न था ।
क़ुरआन नसीहत के लिए है, न कि केवल तिलावत के लिए
इमाम अहमद ने हज़रत आयशा की रिवायत नक़्ल की है कि उनको बताया गया कि कुछ लोग रात को क़ुरआन पढ़ते हैं और रात भर में सारा क़ुरआन एक बार या दो बार में पढ़ लेते हैं। उन्होंने कहा कि उन लोगों ने पढ़ा और उन्होंने नहीं पढ़ा। मैं रसूलुल्लाहु सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के साथ सारी रात खड़ी रहती। आप सूरह बक़रह, सूरह आल इमरान और सूरह अल-निसा पढ़ते। जब भी आप किसी ऐसी आयत से गुज़रते जिसमें अल्लाह से डराया गया है तो आप ज़रूर अल्लाह से दुआ करते और पनाह मांगते। और जब भी आप किसी ऐसी आयत से गुज़रते जिसमें ख़ुशख़बरी हो तो आप ज़रूर अल्लाह से दुआ करते और उसका शौक़ ज़ाहिर करते। (मुसनद अहमद, 24609)