ईमान
क़ुरआन में सातवें पारे के शुरू में उन लोगों का ज़िक्र है जो नजरान से आए थे। उन्होंने रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से क़ुरआन का कुछ हिस्सा सुना। उन पर खुल गया कि यह सच्चा दीन है। वह उसी वक़्त ईमान लाए और रोते हुए सज्दे में गिर पड़े (5:83)।
इस आयत में ईमान को मारिफ़त (बोध) कहा गया है। यानी सच को पहचान लेना। जिस चीज़ की पहचान हो, उसी के लिहाज़ से आदमी के अन्दर भाव पैदा होते हैं। ख़ुदा चूंकि सबसे बड़ी ताक़त है इसलिए ख़ुदा की पहचान से आदमी के अन्दर विनम्रता और छोटेपन का भाव पैदा होता है। इसलिए नजरान के लोगों में जब ख़ुदा की मारिफ़त पैदा हुई, जब उन पर ख़ुदा की अज़्मत और बड़ाई खुल गई तो उनका सीना फट गया। उनकी आँखों से आंसू बहने लगे और वे बेइख़्तियार होकर सज्दे में गिर पड़े।
इसी तरह सहीह मुस्लिम में एक रिवायत है, जो हज़रत उस्मान बिन अफ़्फ़ान के वास्ते से नक़्ल हुई है। वह कहते हैं कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमायाः “जो शख़्स इस हाल में मरा कि वह जानता था कि अल्लाह के सिवा कोई माबूद नहीं वह जन्नत में दाख़िल होगा। (सहीह मुस्लिम, 26)
इस हदीस में ईमान को इल्म कहा गया है। यानी जानना, आगाह होना। इससे मालूम होता है कि ईमान जानने का एक वाक़िआ है। वह एक चेतनामय खोज है।
हक़ीक़त यह है कि ईमान उसी क़िस्म का एक गहरा तजुर्बा है, जिसको मौजूदा ज़माने में डिस्कवरी कहते हैं। ईमान एक डिस्कवरी है। ईमान एक ऐसी हस्ती की मौजूदगी को पा लेना है, जो ज़ाहिरी तौर हमारे सामने मौजूद नहीं। ईमान उस गहरे ‘बोध’ का नाम है, जबकि आदमी के लिए परोक्ष का पर्दा फट जाता है और वह ख़ुदा को न देखते हुए भी उसे देखने लगता है।
ईमान बन्दे और ख़ुदा के बीच उस ताल्लुक़ का क़ायम होना है, जिसकी एक भौतिक मिसाल बल्ब और पावर हाऊस के ताल्लुक़ में दिखाई देती है। बल्ब का ताल्लुक़ जब पावर हाउस से क़ायम होता है तो वह अचानक चमक उठता है। वह एक नया इंसान बन जाता है। उसका अंधेरा उजाले में तब्दील हो जाता है। उसी तरह एक बन्दा जब अपने रब को सच्चे मायने में पाता है तो उसकी हस्ती ख़ुदा के नूर से जगमगा उठती है। उसके अन्दर ऐसी ख़ूबियां पैदा होती हैं जो उसको कहीं से कहीं पहुंचा देती हैं।
पैग़म्बरे इस्लाम के सहाबियों के लिए ईमान का मतलब यही था। सहाबियों का ईमान उनके लिए एक ज़िन्दगी से निकल कर दूसरी ज़िन्दगी में दाख़िल होना था। यह उनके लिए अंधेरे के मुक़ाबले में रोशनी की खोज थी। हज़रत हुज़ैफ़ा एक बार रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से सवाल कर रहे थे तो उनकी ज़ुबान से ये अल्फ़ाज़ निकलेः ऐ अल्लाह के रसूल, हम जाहिलियत और बुराई में पड़े थे, यहां तक कि अल्लाह तआला इस ख़ैर (भलाई) को ले आया।
इस तरह जो ईमान मिलता है, वह उससे बिल्कुल अलग होता है जो परम्परा या अनुकरण से आदमी को मिल जाए। परम्परा या अनुकरण वाला ईमान आदमी को अन्दर से नहीं हिलाता, उसे बदलता नहीं है, जबकि ‘मारिफ़त’ वाला ईमान आदमी को हमेशा हमेशा के लिए हिला देता है, उसे बदल देता है। अनुकरण वाले ईमान से आदमी के अन्दर कोई अपनी निगाह पैदा नहीं होती, जबकि ‘मारिफ़त’ वाला ईमान आदमी के अन्दर अपनी निगाह पैदा कर देता है, जिससे वह चीज़ों को देखे और अपने आंतरिक बोध और अपनी निगाह से फ़ैसला कर सके।
अनुकरण वाले ईमान से सिर्फ़ जड़ और बेजान अक़ीदा पैदा होता है। जबकि ‘मारिफ़त’ वाला ईमान आदमी के अन्दर इन्क़िलाब बन कर दाख़िल होता है। वह आदमी की सोच और अमल की दुनिया में एक तूफ़ान, एक खलबली पैदा कर देता है। अनुकरण वाले ईमान से बेजान लोग पैदा होते हैं, जबकि ‘मारिफ़त’ वाले ईमान से जानदार लोग जन्म लेते हैं। और जानदार लोग ही वे लोग हैं जो इतिहास बनाते हैं, जो इन्सानियत के लिए कोई नया भविष्य बनाते हैं।
अनुकरण वाला ईमान आदमी को अपनी क़ौम से मिलता है और ‘मारिफ़त’ वाला ईमान सीधे अल्लाह तआला से।
आख़िर वक़्त तक अल्लाह पर यक़ीन
रमूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम हिजरत के लिए मक्का से निकले तो पहले तीन दिन तक ग़ारे-सौर में ठहरे। क़ुरैश के लोग आपको तलाश करते हुए इस ग़ार (गुफा) तक पहुंच गए। अबू बक्र रज़िअल्लाहु अन्हु ने रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से कहाः ऐ ख़ुदा के रसूल, दुश्मन इतने क़रीब आ चुका है कि उनमें से कोई अगर अपने पैरों की तरफ़ नज़र डाले तो वह हमको अपने क़दमों के नीचे देख लेगा। आपने फ़रमाया: ऐ अबूबक्र, तुम्हारा उन दो के बारे में क्या ख़्याल है, जिनके साथ तीसरा अल्लाह हो। (सहीह अल-बुख़ारी: 3653)