विरोधी कार्य को समाप्‍त करना

मौजूदा दौर में इस्‍लामी दावत का काम हक़ीक़त में आधुनिक समुदायों पर तर्क-पूर्ति के अर्थ जैसा है। यह एक शानदार काम है, जिसके लिए शानदार संसाधन और असाधारण अनुकूल परिस्थितियों की ज़रूरत है। यह संसाधन और हालात मुस्‍लिम देशों में निश्चित रूप से मिल सकते हैं, लेकिन वह उसी समय मिल सकते हैं, जबकि मुस्‍लिम शासन को इस्‍लामी दावत का प्रतिद्वंद्वी न बनाया जाए।

सन 1891 ई० की घटना है कि जापान के राजा मेजी (1868-1912) का एक पत्र तुर्की के सुल्तान अब्‍दुल हमीद द्वितीय को मिला। इस पत्र में सुल्‍तान से निवेदन किया गया था कि वह मुस्‍लिम प्रचारकों को जापान भेजे, ताकि वे वहाँ के लोगों को इस्‍लाम से परिचित कराएँ। सुल्‍तान अब्‍दुल हमीद ने इस महत्वपूर्ण काम के लिए सैयद जमालुद्दीन अफ़ग़ानी का चयन किया और उन्हें हर तरह के सरकारी सहयोग का विश्‍वास दिलाया, लेकिन यही जमालुद्दीन अफ़ग़ानी, जिन्हें सुल्तान अब्‍दुल हमीद ने सम्मान और सहयोग का पात्र समझा था, बाद में इसी सुल्तान ने सैयद जमालुद्दीन अफ़ग़ानी को जेल में बंद कर दिया, यहाँ तक कि जेल में ही उनकी मृत्यु हो गई। इसका कारण यह था कि सुल्‍तान को मालूम हुआ कि सैयद जमालुद्दीन अफ़ग़ानी उसके ख़िलाफ़ राजनीतिक षड्यंत्र में व्‍यस्‍त हैं। जमालुद्दीन अफ़ग़ानी सुल्‍तान को पश्चिमी उपनिवेश का एजेंट समझते थे और उसे तख़्त से बेदख़ल कर देना चाहते थे। जो आदमी जापान में इस्‍लाम के इतिहास का आग़ाज़ करने वाला बन सकता था, वह केवल जेल के रजिस्‍टर में अपने नाम की वृद्धि करके रह गया।

यही सभी मुस्लिम शासकों का हाल है। अगर आप इस्‍लामी दावत के काम में लगे हों तो वे हर तरह का ज़्यादा-से-ज़्यादा सहयोग आपको देंगे, लेकिन अगर आप उनके ख़िलाफ़ राजनीतिक अभियान चलाएँ तो वे आपको सहन करने लिए तैयार नहीं होते।

बदक़िस्मती से मौजूदा दौर में लगातार जमालुद्दीन अफ़ग़ानी के तरीक़े को दोहराया जा रहा है। मुसलमान कहीं एक नाम से और कहीं दूसरे नाम से अपने शासकों के ख़िलाफ़ राजनीतिक लड़ाई में व्‍यस्‍त हैं, यहाँ तक कि आज ‘इस्लामी दावत’ का शब्‍द मुस्लिम शासकों के लिए राजनीतिक विपक्ष के समान बनकर रह गया है।

इसके कारण न केवल यह नुक़सान हुआ है कि इस्‍लामी दावत की मुहिम में मुस्लिम हुकूमतों का भरपूर सहयोग हासिल नहीं हो रहा है, बल्कि अगर कोई आदमी हुकूमत से अलग हटकर निजी तौर पर इस ज़िम्मेदारी को अदा करना चाहे तो हुकूमत उसे शक की निगाह से देखने लगती है और उसकी राह में रुकावटें डालती है।

ज़रूरत है कि मुस्‍लिम शासकों से राजनीतिक संघर्ष को पूरी तरह से ख़त्म कर दिया जाए, चाहे वह इस्लाम के नाम पर हो या किसी और के नाम पर; ताकि हर मुस्लिम देश में इस्‍लामी कार्यकर्ताओं को उनके राष्‍ट्रीय शासन का सहयोग प्राप्‍त हो और इस्‍लाम के पुनरुत्थान (revival) का काम बड़े पैमाने पर शुरू किया जा सके; ग़ैर-मुस्‍लिमों में इस्‍लाम का संदेश पहुँचाने के लिए भी और ख़ुद मुसलमानों के अपने निर्माण और सुधार के लिए भी।

Maulana Wahiduddin Khan
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