कायनात का एक राज़ है और जो किताब इस राज़ को खोलती है, वह क़ुरआन है। यह हक़ीक़त है कि ईश्वर की किताब के बिना कोई आदमी ज़िंदगी और कायनात की पहेली को हल नहीं कर सकता। मैंने वर्तमान में बड़े विस्तार के साथ मार्क्सवाद (Marxism) का अध्ययन किया है। मुझे महसूस हुआ कि मार्क्स असाधारण दिलो-दिमाग़ का आदमी था। ऐसा कि उस जैसी योग्यता वाले बहुत कम इंसान इतिहास में पैदा हुए हैं, मगर उसने ऐसी मूर्खतापूर्ण बातें कही हैं कि इतिहास में उस जैसी मूर्खतापूर्ण बातें बहुत कम लोगों ने की होंगी और इसका कारण केवल यह है कि उसने क़ुरआन का अध्ययन नहीं किया था। उसे ज्ञान का वह सिरा नहीं मिला था, जिसके बिना ज़िंदगी के मामलों में कोई सही और निश्चित राय क़ायम नहीं की जा सकती।
एक दवा, ज़ो किसी कारख़ाने से बनकर निकलती है, उसके साथ उसे इस्तेमाल करने का तरीक़ा काग़ज़ पर प्रिंट करके रख दिया जाता है, जिसमें लिखा हुआ होता है कि यह दवा किस रोग के लिए है, किन चीज़ों से मिलकर बनी है और किस तरह उसे इस्तेमाल करना चाहिए, लेकिन आदमी इस हाल में पैदा होता है कि उसे कुछ नहीं मालूम होता कि वह क्या है और किस तरह उसे दुनिया में लाकर डाल दिया गया है। वह अपने साथ कोई किताब लेकर नहीं आता और न ही किसी पहाड़ की चोटी पर ऐसा कोई बोर्ड लगा हुआ है कि जहाँ इन सवालों का जवाब लिखकर रख दिया गया हो। इस परिस्थिति का नतीजा यह हुआ कि वह असल हक़ीक़त से बेख़बर होकर अपने और ज़मीन व आसमान के बारे में अजीब-अजीब राय क़ायम करने लगता है। वह अपने वुजूद पर विचार करता है तो वह उसे बौद्धिक और शारीरिक शक्तियों का एक आश्चर्यजनक संग्रह नज़र आता है, जिसे बनाने में उसके अपने इरादे व कर्म का कोई दख़़ल नहीं है। फिर अपने वजूद से बाहर की दुनिया पर नज़र डालता है तो उसे एक बहुत ही फैली हुई कायनात मिलती है, जिसका वह घेराव नहीं कर सकता, जिसे वह पार नहीं कर सकता, जिसके अंदर छुपे हुए ख़ज़ानों की वह गिनती नहीं कर सकता। यह सब क्या है और क्यों है? यह दुनिया कहाँ से शुरू हुई है और कहाँ जाकर ख़त्म होगी? इस ज़िंदगी और वजूद का मक़सद क्या है? वह अपने आपको इन चीज़ों के बारे में बिल्कुल अनजान पाता है।
इंसान को आँख दी गई है, मगर वह आँख ऐसी है, जो किसी चीज़ के केवल बाहरी रूप को देख सकती है। उसके पास अक़्ल है, मगर अक़्ल की लाचारी की हालत यह है कि उसे ख़ुद अपनी ख़बर नहीं। आज तक इंसान यह मालूम न कर सका कि इंसान के ज़हन में विचार क्योंकर पैदा होते हैं और वह किस तरह सोचता है। ऐसे तुच्छ गुणों (insignificant qualities) के साथ वह न तो अपने बारे में किसी सही नतीजे तक पहुँच सकता है और न ही कायनात को समझ सकता है।
इस पहेली को ईश्वर की किताब हल करती है। इस आसमान के नीचे आज क़ुरआन ही एक ऐसी किताब है, जो पूरे विश्वास के साथ सारी हक़ीक़तों के बारे में हमें पक्का ज्ञान देती है। जिन लोगों ने ईश्वर की किताब के बिना कायनात को समझने की कोशिश की है, उनकी मिसाल बिल्कुल ऐसी है, जैसे अंधों के पास एक हाथी खड़ा कर दिया जाए और फिर उनसे पूछा जाए कि हाथी कैसा होता है तो जिसके हाथ में इसकी दुम आएगी, वह कहेगा कि हाथी ऐसा होता है, जैसे साँप। कोई कान टटोलकर कहेगा कि हाथी ऐसा होता है, जैसे हवा झलने वाला पंखा । कोई पीठ पर हाथ फेरेगा और कहेगा कि हाथी ऐसा होता है, जैसे कोई तख़्त। कोई पाँव छूकर कहेगा कि हाथी ऐसा होता है, जैसे खंभा। सभी नास्तिक दार्शनिकों और विचारकों (atheist philosophers and thinkers) का यही हाल है। उन्होंने कायनात के अंदर हक़ीक़त को टटोलने की कोशिश की, लेकिन ज्ञान के प्रकाश से चूँकि वे वंचित थे, इसलिए उनकी सारी कोशिशों का नतीजा इसके सिवा और कुछ न निकला, जैसे कोई आदमी अँधेरे में भटक रहा हो और अंदाज़े के ज़रिये उल्टे-सीधे फ़ैसले करता रहे।
दुनिया में ऐसे लोग गुज़रे हैं, जो ज़िंदगी भर सत्य की खोज में रहे, मगर हक़ीक़त को न पाकर आत्महत्या कर ली और बहुत से लोग ऐसे भी हुए हैं, जिन्हें हक़ीक़त तो नहीं मिली , मगर अंदाज़े से उन्होंने एक फ़लसफ़ा गढ़ लिया। मेरे नज़दीक इन दो तरह के इंसानों में केवल इतना ही अंतर है कि एक ने अपने अंदाज़े को अक़्ल समझा और उसे क्रमबद्ध करके दुनिया के सामने पेश कर दिया और दूसरे को अपने अंदाज़े पर संतुष्टि नहीं हुई और उसने मजबूर होकर इस हैरान करने वाली दुनिया से निकल जाने की कोशिश की और ख़ुद अपना गला घोंट डाला। सच्चे ज्ञान से यह भी वंचित थे और वह भी। ज़िंदगी के राज़ का जो असल राज़दार है, उसकी मदद के बिना कोई आदमी इस राज़ को नहीं समझ सकता। निश्चय ही इंसान को सोचने-समझने की योग्यता दी गई है, मगर इसकी मिसाल बिल्कुल ऐसी है, जैसे आँख। इंसान निश्चित ही इससे देखने की योग्यता रखता है, मगर क्या बाहरी रोशनी के बिना कोई आँख देख सकती है? रात के समय एक अँधेरे कमरे में आँख रहते हुए भी आपको कुछ सुझाई नहीं देता, मगर जब बिजली का बल्ब रोशन कर दिया जाए तो हर चीज़ साफ़ नज़र आने लगती है। इसी तरह ईश्वरीय संदेश अक़्ल की रोशनी है और इस रोशनी के बिना हम चीज़ों की हक़ीक़त को नहीं पा सकते।
एक आदमी से एक बार मेरी बात हुई। उन्होंने कहा, “यह बात कही जाती है कि ज्ञान इसका नाम नहीं है कि आदमी बहुत-सी किताबें पढ़े हुए हो और स्कूलों व कॉलेजों की डिग्री अपने पास रखता हो। सबसे बड़ा ज्ञान ईमान है। क़ुरआन में भी इसकी चर्चा है कि ईश्वर से डरने वाले लोग ही हक़ीक़त में ज्ञानी हैं, मगर यह बात अभी तक मेरी समझ में नहीं आई।” मैंने कहा कि कार्ल मार्क्स, जिसे अर्थशास्त्र का पैग़ंबर कहा जाता है, उसे ही ले लीजिए। उसे वह सही ज्ञान प्राप्त नहीं था, जो ईश्वर की कृपा से आज आपको प्राप्त है। उसके सामने दुनिया की यह परिस्थिति आई कि कुछ लोगों ने जागीरदार या कारख़ानेदार बनकर दौलत के एक बड़े हिस्से पर क़ब्ज़ा कर लिया है और ज़्यादातर लोग बहुत ही ग़रीबी की हालत में ज़िंदगी गुज़ार रहे हैं। उसने कहा कि इस ऊँच-नीच की असल जड़ मौजूदा मालिकाना व्यवस्था है, जिसमें चीज़ें इस्तेमाल के लिए नहीं बनतीं, बल्कि इसलिए तैयार की जाती हैं कि दूसरे इंसानों के हाथ बेचकर इनसे फ़ायदा हासिल किया जाए। इसके कारण ही लोगों को मौक़ा मिलता है कि अपनी संपत्ति बढ़ाने और ज़्यादा-से-ज़्यादा फ़ायदा कमाने के लिए दूसरों को लूटें। इसके इलाज के लिए उसने यह विचार किया कि मालिकाना अधिकारों को सिरे से ख़त्म करके दौलत हासिल करने के माध्यमों को जनता के साझा क़ब्ज़े में दे दिया जाए और हुकूमत के ज़िम्मे यह काम सौंप दिया जाए कि वह सबके फ़ायदे के अनुसार संपत्ति के उत्पादन और विभाजन की सामाजिक व्यवस्था करे।
सवाल यह हुआ कि ऐसी हालत में सभी चीज़ों पर हुकूमत का क़ब्ज़ा हो जाएगा और जब आज कुछ लोग पूँजीपति बनने के माध्यम अपने हाथ में पाकर फ़ायदा हासिल करने में व्यस्त हो गए हैं तो दूसरे कुछ लोग, जिन्हें यह ख़ज़ाना सौंपा जाएगा तो क्या वे भी ऐसा नहीं करेंगे, जबकि दौलत हासिल करने के माध्यमों के साथ उन नए प्रबंधकों को फ़ौज और क़ानून बनाने की शक्तियाँ भी प्राप्त होंगी। कार्ल मार्क्स ने जवाब दिया, “लोभ और लूट हक़ीक़त में पूँजीपति व्यवस्था की पैदावार है। साम्यवादी समाज में इस तरह की चीज़ें ख़त्म हो जाएँगी।’’ मैंने उस आदमी से पूछा, “अब आप बताइए, क्या मार्क्स का यह विचार सही था?” उन्होंने कहा, “बिल्कुल नहीं। आख़िरत की पूछताछ के सिवा दुनिया में कोई चीज़ ऐसी नहीं है, जो आदमी को ज़ुल्म और स्वार्थ से रोक सके।” मैंने कहा, “फिर ज्ञानी कौन हुआ? आप या कार्ल मार्क्स? जिसके मनगढ़ंत सिद्धांतों का परिणाम यह है कि इंसानियत पहले से भी अधिक ज़ुल्मो-सितम का शिकार हो रही है, क्योंकि ज़ार (Tsar) और पूँजीपति पहले दो अलग-अलग वजूद थे और अब साम्यवादी व्यवस्था में जो ज़ार हैं, वही पूँजीपति भी हैं।”
लगभग यही हालत उन सभी दार्शनिकों की है, जिन्होंने ईश्वर के बिना कायनात की पहेली को हल करने की कोशिश की है। उनके विचारों को देखकर हैरानी होती है कि इतने बड़े-बड़े लोग कैसी बच्चों-सी बातें करते हैं; जैसे अंधों की भीड़ में एक हाथी है, जिसे कोई साँप बताता है, कोई पंखा, कोई तख़्त कहता है और कोई खंभा। अगर ईश्वर की किताब की रोशनी में ज़िंदगी और कायनात का अध्ययन किया जाए तो हर चीज़ बिल्कुल साफ़-साफ़ अपने असली रूप में नज़र आने लगती है और एक साधारण आदमी को भी चीज़ों की हक़ीक़त समझने में कोई कठिनाई नहीं होती। वह पहली नज़र में ही असल हक़ीक़त तक पहुँच जाता है; मगर जो इस ज्ञान से वंचित है, उसके लिए यह दुनिया एक भूल-भुलैया है, जिसमें वह भटक रहा है।
मानवीय विद्याएँ हमें बहुत कुछ देती हैं, मगर ज़्यादा-से-ज़्यादा इनके द्वारा जो कुछ मालूम होता है, वह केवल यह है कि ‘कायनात क्या है’, लेकिन इसके बारे में वह अब तक एक अक्षर न बता सकीं कि ‘जो कुछ है, वह क्यों है’, जैसे— कुछ गैसों, कुछ धातुओं और कुछ लवणों (salts) के मिलने से एक चलता-फिरता जागरूक इंसान वजूद में आता है, मिट्टी में बीज डाल देने से हरे-भरे फलदार पेड़ और पौधे निकलते हैं।
एटम में केवल इलेक्ट्रॉन की संख्या बदल जाने से असंख्य तत्त्व बन जाते हैं। दो गैसों के मिलने से पानी जैसी क़ीमती चीज़ तैयार हो जाती है। पानी के अणुओं की गति (molecular motion) से भाप की ताक़त पैदा होती है, जिससे विशालकाय इंजन गतिविधि करते हैं। एटम के छोटे-छोटे इलेक्ट्रॉन, जो किसी सूक्ष्मदर्शी (microscope) द्वारा नहीं देखे जा सकते, इनके टूटने (fission) से वह बहुत ज़्यादा ताक़त पैदा होती है, जो पहाड़ों को तोड़ डालती है। ‘यह सब होता है’ बस हम इन चीज़ों के बारे में इतना ही जानते हैं, मगर ‘यह सब क्यों हो रहा है’ इनके बारे में मानवीय विद्याएँ हमारा कोई मार्गदर्शन नहीं करतीं।
“दुनिया के सभी समंदरों के किनारे रेत के जितने कण हैं, शायद इतनी ही आसमान में सितारों की संख्या है। इनमें कुछ ऐसे सितारे हैं, जो पृथ्वी से थोड़े बड़े हैं, मगर ज़्यादातर सितारे इतने बड़े हैं कि इनके अंदर लाखों पृथ्वियाँ रखी जा सकती हैं और फिर भी जगह बची रहेगी और कुछ सितारे तो इतने बड़े हैं कि अरबों पृथ्वियाँ इनके अंदर समा सकती हैं। यह कायनात इतनी बड़ी है कि रोशनी की तरह एक बहुत ही तेज़ उड़ने वाला हवाई जहाज़, जिसकी रफ़्तार एक लाख छियासी हज़ार मील प्रति सेकंड हो, वह कायनात के चारों ओर घूमे तो उस हवाई जहाज़ को कायनात का पूरा चक्कर लगाने में अरबों वर्ष लगेंगे। फिर यह कायनात ठहरी हुई नहीं है, बल्कि हर पल अपने चारों ओर फैल रही है। इसके फैलने की रफ़्तार इतनी तेज़ है कि हर 130 करोड़ वर्ष बाद कायनात के सारे फ़ासले दो गुना हो जाते हैं। इस तरह यह हमारा काल्पनिक प्रकार का असाधारण रफ़्तार से उड़ने वाला हवाई जहाज़ कायनात का चक्कर कभी पूरा नहीं कर सकता। वह हमेशा इस बढ़ती हुई कायनात के रास्ते में ही रहेगा।” यह कायनात की विशालता के बारे में आइंस्टीन का दृष्टिकोण है, मगर यह केवल एक गणितज्ञ (mathematician) का अंदाज़ा है। हक़ीक़त यह है कि अभी तक इंसान कायनात की विशालता को समझ नहीं सका है।
मानवीय अध्ययन हमें हैरान करने वाली कायनात के सामने लाकर छोड़ देता है। वह हमें नहीं बताता कि उसकी हक़ीक़त क्या है, कौन इन घटनाओं को अस्तित्व में ला रहा है और वह कौन-सा हाथ है, जो विशाल अंतरिक्ष में बहुत ही बड़े पिंडों (celestial bodies) को सँभाले हुए है? यह सभी बातें हमें क़ुरआन से मिलती हैं। क़ुरआन हमें बताता है कि चीज़ें क्योंकर वजूद में आई हैं, वह किस तरह स्थापित हैं और भविष्य में इनका अंजाम क्या होगा। वह कायनात के रचयिता और मालिक का हमसे परिचय कराता है और उसकी गतिविधियों को हमारे सामने खोलकर रख देता है।
क़ुरआन ईश्वरीय सत्ता का शाब्दिक अवलोकन है। एक छुपा हुआ ताक़तवर इरादा— जो इस कायनात में हर तरफ़ काम कर रहा है— क़ुरआन के पन्नों में वह हमें बिल्कुल महसूस तौर पर नज़र आता है। वह अलौकिक वास्तविकताएँ (supernatural realities), जिनको आदमी आँखों से नहीं देख सकता और न ही हाथों से छूकर मालूम कर सकता, यह किताब उनके बारे में हमें पक्की ख़बर देती है और सिर्फ़ ख़बर नहीं देती, बल्कि शब्दों के द्वारा इतने आश्चर्यजनक तरीक़े से इनका चित्रण करती है कि अप्रत्यक्ष (indirect) बिल्कुल प्रत्यक्ष (direct) मालूम होने लगता है। यह किताब हमें केवल यही नहीं बताती कि ‘ईश्वर’ है, बल्कि वह आश्चर्यजनक रूप से एक कायनात के दूरदर्शी की जीवित कल्पना सामने लाकर रख देती है। वह क़यामत के बारे में केवल सूचना ही नहीं देती, बल्कि उस बहुत ही ज़्यादा डरावने दिन की इतनी स्पष्टता से व्याख्या करती है कि आने वाला दिन बिल्कुल निगाहों के सामने घूमने लगता है। मशहूर है कि यूनान में एक चित्रकार ने अंगूर के गुच्छे का चित्र बनाया। यह चित्र इतना ज़बरदस्त था कि चिड़ियाँ इस पर चोंच मारती थीं। यह एक इंसान की कला थी। फिर क़ुरआन तो कायनात के रचयिता की कला है। उसकी कला की कौशलता का अंदाज़ा कौन कर सकता है।
क़ुरआन का पहला वाक्य है ‘अलहम्दु लिल्लाही रब्बिल आलमीन।’ यह वाक्य बहुत ही अर्थपूर्ण है। इसका मतलब है— शुक्र है उस ईश्वर का, जो सारी दुनिया वालों का मालिक और पालनहार है। मालिक और पालनहार उसे कहते हैं, जो अपने मातहतों पर गहरी नज़र रखे और उनकी सभी ज़रूरतों का सामान उपलब्ध कराए। इंसान की ज़रूरतों में सबसे बड़ी ज़रूरत यह है कि उसे बताया जाए कि वह क्या है? कहाँ से आया है और कहाँ जाएगा? उसका फ़ायदा किस चीज़ में है और नुक़सान किस चीज़ में? आदमी को अगर किसी ऐसे आकाशीय पिंड में ले जाकर डाल दिया जाए, जहाँ हवा और पानी न हो तो यह उसके लिए इतना बड़ा हादसा न होगा, जितना बड़ा हादसा यह है कि वह दुनिया में अपने आपको इस हाल में पाए कि अपने और माहौल के बारे में वह सही जानकारी से अनजान है।
ईश्वर अपने बंदों पर उससे ज़्यादा कृपाशील है, जितना बाप अपने बेटे के लिए होता है। यह नामुमकिन था कि वह अपने बंदों की इस मजबूरी को देखता और उसे पूरा न करता। इसलिए उसने वह्य के ज़रिये वह ज़रूरी ज्ञान भेजा, जिसकी इंसान को अपनी पहचान हासिल करने के लिए ज़रूरत थी और एक इंसान की भाषा जिसे सहन कर सकती थी। यह रचयिता का अपने बंदों पर सबसे बड़ा अहसान है, जो बंदा अपनी हैसियत को पहचानता हो और जिसे यह अहसास हो कि वह सत्य का ज्ञान जानने के लिए अपने रचयिता का कितना मोहताज है, उसका दिल ईश्वर की इस कृपा को देखकर शुक्र और तारीफ़ की भावना से भर जाएगा और इस किताब को पाकर वह अचानक कह उठेगा— “अलहम्दु लिल्लाही रब्बिल आलमीन।” यह बंदे की ज़ुबान से अदा होने वाले बोल हैं, जो ईश्वर की ओर से भेजे गए हैं। बंदा यह जानने के लिए भी कि वह किस तरह अपने मालिक की इबादत करे, अपने मालिक के मार्गदर्शन का मोहताज है, आदमी के अंदर स्वाभाविक रूप से इबादत की भावनाएँ उमड़ती हैं, लेकिन वह नहीं जानता कि वह इन भावनाओं को किस तरह ज़ाहिर करे— क़ुरआन उन्हें निर्धारित करता है और उनके लिए शब्द उपलब्ध कराता है। क़ुरआन की दुआएँ इस सिलसिले में बहुत ही बढ़िया उपहार हैं।
क़ुरआन प्रचलित अर्थों (prevalent sense) में कोई किताब नहीं, ज़्यादा सही अर्थों में वह इस्लामी निमंत्रण की आख़िरी जद्दोजहद की घटना है। ईश्वर प्राचीन समय से इंसानों के लिए सत्य का ज्ञान अपने ख़ास बंदों के ज़रिये भेजता रहा है। सातवीं शताब्दी ई० में ईश्वर का इरादा यह हुआ कि ज़मीन पर बसने वालों के लिए अंतिम रूप से सत्य का ज्ञान दे दे और इस ज्ञान के आधार पर एक विधिवत (duly) समाज का निर्माण भी कर दे, ताकि वह क़यामत तक सारी इंसानी नस्ल के लिए प्रकाश और आदर्श का काम दे सके।
इसी उद्देश्य के तहत ईश्वर ने अपने आख़िरी पैग़ंबर हज़रत मुहम्मद को अरब में भेजा और आपके ज़िम्मे यह काम सौंपा कि आप अरब में इस सत्य के संदेश का निमंत्रण दे और फिर जो लोग आपके इस संदेश से प्रभावित हों, उनके ज़िम्मे यह काम सौंपा गया कि वे सारी दुनिया में इस संदेश को फैलाएँ। पैग़ंबर हज़रत मुहम्मद ने इस सत्य-ज्ञान को फैलाने और इसके आधार पर एक इंसानी समाज स्थापित करने का जो आंदोलन अरब में चलाया, इसका मार्गदर्शन करने वाला ख़ुद ईश्वर था। उसने सीधे तौर पर अपने कथन के द्वारा पैग़ंबर पर वह्य भेजी कि उसे किन चीज़ों का प्रचार करना है। उसने वह सभी तर्क उपलब्ध कराए, जो इस संदेश को प्रभावी बनाने के लिए ज़रूरी थे। जब विरोधियों की ओर से कोई ऐतराज़ हुआ तो उसने जवाब दिया। जब इस निमंत्रण को स्वीकार करने वालों में किसी प्रकार की कमज़ोरी पैदा हुई तो उसने तुरंत उनका सुधार किया।
उसने युद्ध व संधि के आदेश दिए और शिक्षा-दीक्षा के नियम बताए। उसने कठिनाई के समय अपने मानने वालों को तसल्ली दी और जीत के समय वह क़ानूनी आदेश दिए, जिनके आधार पर नए समाज का निर्माण करना था। मतलब यह कि यह आंदोलन, जिसकी शुरुआत और अंत के बीच 23 वर्ष की दूरी है, उसके सभी पड़ावों में ईश्वर एक महान मार्गदर्शक की हैसियत से मार्गदर्शन करने के साथ-साथ आदेश भेजता रहा। यह मार्गदर्शन और आदेश बाद में ख़ुद मार्गदर्शक की इच्छानुसार एक विशेष क्रम में जमा कर दिए गए और इसी संग्रह का नाम ‘क़ुरआन’ है।
वह ईश्वरीय निमंत्रण का काम, जो आख़िरी पैग़ंबर के द्वारा अरब में शुरू हुआ और जिसका मार्गदर्शन ख़ुद ईश्वर ने किया, क़ुरआन इसका विश्वसनीय रिकॉर्ड है। यह उन ईश्वरीय मार्गदर्शनों का संग्रह है, जो इस आंदोलन के मार्गदर्शन के लिए लगभग एक चौथाई शताब्दी के बीच अलग-अलग समय में भेजे गए थे, मगर यह क़ुरआन केवल इतिहास नहीं है। यह ईश्वर की स्थायी आज्ञा है, जो इतिहास के साँचे में ढालकर हमें दी गई है। वह इतिहास है, इसलिए कि यह एक व्यावहारिक नमूना (practical model) है और व्यावहारिक नसीहत (practical advice) के लिए उपलब्ध कराया गया है। वह स्थायी आज्ञा है, इसलिए कि कायनात के मालिक के फ़ैसले के अनुसार इसी के आधार पर हर दौर के इंसान की भलाई और बुराई का फ़ैसला होने वाला है, लेकिन इस विशेष क्रम के बावजूद क़ुरआन इस तरह के संग्रहों से बिल्कुल अलग है, जैसे आजकल राजनीतिक नेताओं के भाषणों के संग्रह छपते हैं। यह एक अदृश्य ज्ञानी की एक कुशल योजनाबंदी है। क़ुरआन के विभिन्न अंश एक लंबे दौर में अलग-अलग भेजे गए, लेकिन यह विभिन्न टुकड़े केवल संयोग के रूप में अस्तित्व में नहीं आए थे, बल्कि वह एक संकलित योजना के अंश थे, जो व्यावहारिक ज़रूरत के तहत अलग-अलग समय में विभिन्न क्रम के साथ अवतरित हुए। योजना के पूरा होने पर जब इन्हें पूरा करके जोड़ दिया गया तो अब वह एक अनोखा एकीकरण (unique integration) बन गए हैं।
उदाहरण के लिए— यूँ समझिए कि भारत के लिए एक नव-निर्मित (newly built) कारख़ाने का सामान समुद्र के पार किसी देश में तैयार किया जाता है, स्पष्ट है कि यह सामान वहाँ के विभिन्न कारख़ानों में अलग-अलग बनेगा और सारा सामान विभिन्न जहाज़ों में भरकर भारत भेज दिया जाएगा। स्पष्ट रूप से देखिए तो तैयारी के पूरे चरण में यह कारख़ाना विविध और अपूर्ण (miscellaneous and incomplete) चीज़ों का ढेर मालूम होता है, मगर यह सामान जो अलग-अलग जहाज़ों में लदकर आया है, जब यहाँ उसके सारे हिस्सों को जोड़ दिया जाता है तो एक पूरा कारख़ाना हमारी नज़रों के सामने खड़ा हो जाता है। लगभग यही मामला क़ुरआन का है। इसमें जीवन के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। यह स्थायी और संपूर्ण जीवन-विधि है, इसलिए वह एक इकाई है। यह विरोधी वातावरण का मुक़ाबला करके उसे अनुकूल बनाने का संदेश है। इसलिए हालात और ज़रूरतों के तहत थोड़ा-थोड़ा करके अवतरित किया गया है। ऐतिहासिक दृष्टि से यह विविध आदेशों का संग्रह है, मगर महान ईश्वर की योजनाबंदी ने इसे एक जगह इकट्ठा करके संग्रहीत कर दिया है।
आज दुनिया में अरबों- खरबों की संख्या में पुस्तकें छपकर प्रकाशित हो चुकी हैं। एक-एक कला और हर कला के विभिन्न विभागों पर इतनी ज़्यादा संख्या में किताबें लिखी गई हैं कि आदमी सारी उम्र उनका अध्ययन करता रहे, मगर क़ुरआन एक ऐसी किताब है कि दुनिया में सारी किताबों के अध्ययन के बावजूद भी आदमी को क़ुरआन के मार्गदर्शन की ज़रूरत रहेगी। हक़ीक़त यह है कि दूसरी किताबों के अध्ययन से कोई आदमी सही मायनों में उसी समय फ़ायदा उठा सकता है, जब उसे क़ुरआन के ज़रिये वह गहरी सोंच (insight) हासिल हो चुकी हो, जो हर मामले में फ़ैसले तक पहुँचने के लिए ज़रूरी है। समुद्री जहाज़ों को विशाल समुद्र में एक कंपास की ज़रूरत होती है। इसी तरह ज़िंदगी की उलझी हुई समस्याओं में सही राय पर पहुँचने के लिए ईश्वरीय मार्गदर्शन की ज़रूरत है। जिसे इस रोशनी का सौभाग्य प्राप्त होगा, वह गहराई से अपनी ज़िंदगी की नाव पार उतार लेगा और जो इस रोशनी से वंचित होगा, वह ज़िंदगी की समस्याओं में उलझकर रह जाएगा और किसी सही नतीजे तक न पहुँच सकेगा। क़ुरआन प्रकृति के इस ख़ालीपन को भरता है, जिसने इतिहास के हर दौर में इंसान को बेचैन रखा है।
रूसो ने कहा था—
“इंसान आज़ाद पैदा हुआ है, पर मैं हर तरफ़ उसे ज़ंजीरों में जकड़ा हुआ पाता हूँ।”
मैं कहूँगा कि इंसान प्राकृतिक रूप से बंदा पैदा हुआ है, मगर वह बनावटी तौर पर मालिक बनना चाहता है। इंसान देखने में एक पूर्ण अस्तित्व मालूम होता है, मगर हक़ीक़त में वह मोहताज है। जिस तरह अपने अस्तित्व को बरक़रार रखने के लिए उसे हवा, पानी और दूसरी ज़मीनी पैदावार की ज़रूरत है, उसी तरह उसे ज़हनी ज़िंदगी (intellectual life) के लिए भी एक बाहरी सहारे की ज़रूरत है। इंसान स्वाभाविक रूप से एक ऐसा सहारा चाहता है, जिस पर वह मुश्किल हालात में भरोसा कर सके। उसे एक ऐसी क़रीबी हस्ती की ज़रूरत है, जिसके आगे वह अपना सिर झुका दे। जब वह तकलीफ़ में हो तो किसी ज़रूरत पूरी करने वाले के सामने हाथ उठा सके। जब उसे ख़ुशी हो तो किसी अहसान करने वाले के सामने शुक्र का सजदा कर सके। जिस तरह समुद्र में डूबने वाला एक आदमी किश्ती का सहारा चाहता है, उसी तरह इस बहुत बड़ी कायनात में इंसान को एक मज़बूत रस्सी की ज़रूरत है जिसे वह थाम सके। कोई बड़ी-से-बड़ी हस्ती इस कमी से ख़ाली नहीं हो सकती । अगर यह ख़ालीपन एक ईश्वर के अस्तित्व के द्वारा पूरा किया जाए तो यह ‘तौहीद’ यानी एकेश्वरवाद है और अगर इसे छोड़कर किसी दूसरी हस्ती का सहारा खोजा जाए तो यह अनेकेश्वरवाद है।
इतिहास के हर दौर में इंसान इन दो में से किसी-न-किसी सहारे को अपनाने के लिए मजबूर रहा है। जो लोग एकेश्वरवाद को मानने वाले हैं, उनका सहारा पुराने ज़माने से एक ईश्वर था और अब भी केवल एक ईश्वर ही है, मगर अनेकेश्वरवाद के मानने वालों के केंद्र बदलते रहे हैं। पहले ज़माने का इंसान और मौजूदा ज़माने में भी बहुत से लोग अंतरिक्ष में चमकते सितारों से लेकर पेड़ों और पत्थर तक असंख्य चीज़ों की पूजा करते रहे हैं और अब मौजूदा ज़माने में क़ौम, वतन और भौतिक उन्नति व राजनीतिक श्रेष्ठता की भावना ने इसकी जगह ले ली है। इंसान को अब भी एक प्रेम के केंद्र की ज़रूरत है। वह अब भी अपनी दौड़-धूप के लिए किसी महान हस्ती का सहारा चाहता है। उसे अब भी इसकी तड़प है कि किसी की याद से दिल को गर्माए और जीवन की उर्जा प्राप्त करे।
यह नई-नई मूर्तियाँ हक़ीक़त में इसी ख़ालीपन को भरने के लिए बनाई गई हैं; मगर जिस तरह पत्थर की मूर्ति हक़ीक़त में कोई सहारा न थी, जो इंसान के किसी काम आ सकती, उसी तरह मौजूदा ज़माने की यह चमकदार मूर्तियाँ भी बहुत कमज़ोर हैं, जो किसी क़ौम को वास्तविक शक्ति नहीं दे सकतीं। जर्मनी ने क़ौम को अपनी मूर्ति (सहारा) बनाया, मगर यह मूर्ति उसके काम न आ सकी और दूसरे विश्वयुद्ध ने उसे बरबाद कर दिया। इटली और जापान वतन की मूर्ति को लेकर उठे, मगर यह मूर्ति ख़ुद उनके वतन को उनके लिए क़ब्रिस्तान बनने से न रोक सकी। ब्रिटेन और फ़्रांस ने भौतिक साधनों को अपनी मूर्ति बनाया, मगर वह उनके काम न आई और जिस साम्राज्य में सूरज नहीं डूबता था, उसका सूरज डूबकर रहा।
क़ुरआन हमें बताता है कि इस कायनात की ताक़त का असल ख़ज़ाना कहाँ है। वह हमारे हाथ में उस मज़बूत रस्सी का सिरा देता है, जिसे टूटना नहीं है और जिसके सिवा हक़ीक़त में इस दुनिया में कोई सहारा नहीं है। क़ुरआन हमें बताता है कि कायनात में सच्चा सहारा सिर्फ़ एक ईश्वर का है। इसी के ज़रिये दिलों को सुकून मिलता है। इसी के ज़रिये ज़िंदगी जीने के लिए ऊर्जा हासिल होती है। ईश्वर से संबंध ही वह सबसे मज़बूत रस्सी है, जो अलग-अलग इंसानों को आपस में जोड़ती है, वही नाज़ुक मौक़ों पर हमारा सहायक और मुश्किल हालात में हमारा मददगार है। उसी के हाथ में सारी ताक़त है, इज़्ज़त उस क़ौम के लिए है, जो उसका सहारा पकड़े और जो उसे छोड़ दे, उसके लिए अपमान के सिवा और कुछ नहीं है। यह ज्ञान दरअसल सारे ख़ज़ानों की चाबी है। जिसे यह मिला, उसे सब कुछ मिल गया और जो इससे वंचित रहा, वह हर चीज़ से वंचित रहा।
हम उन वैज्ञानिकों को बड़ी अहमियत देते हैं, जिन्होंने बिजली और भाप की शक्तियों का पता लगाया; जिससे इंसानी सभ्यता को तरक़्क़ी के मौक़े मिले, मगर यह किताब जिस हक़ीक़त का राज़ खोलती है, उसकी महानता का अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता। यह केवल मशीनों का ज्ञान नहीं, बल्कि उस इंसान का ज्ञान है, जिसके लिए सारी मशीनें बनी हैं। इसके ज़रिये हम इंसान को समझते हैं, इसके ज़रिये इंसान अपनी ज़िंदगी को कामयाब बनाने का राज़ मालूम करता है और यही इतिहास का वह अटल फ़ैसला है, जिससे क़ौमों के बनने और बिगड़ने का फ़ैसला होता है।
क़ुरआन ईश्वर की आवाज़ है। हर बादशाह का एक क़ानून होता है। क़ुरआन ईश्वर का क़ानून है, जो सारे इंसानों का मालिक और सभी बादशाहों का बादशाह है। वह मार्गदर्शक है, जो इंसान का सही मार्गदर्शन करता है। वह क़ानून है, जिसमें इंसानियत के निर्माण और समाज की व्यवस्था के लिए एकदम सही बुनियादें हैं। वह अक़्लमंदी है, जिसमें अक़्लमंदी की सारी बातें भरी हुई हैं। वह शिफ़ा है, जिसमें इंसानियत की बीमारियों का इलाज है। वह फ़ुरक़ान है, जो सच और झूठ की सही-सही निशानदेही करता है। वह रोशनी है, जिससे इंसानियत के भटके हुए क़ाफ़िलों को रास्ता मिलता है। वह याद दिलाता है, जो इंसान के सोए हुए स्वभाव को जगाती है। वह नसीहत है, जो कायनात के मालिक की ओर से अपने बंदों के पास भेजी गई है। कहने का मतलब यह है कि इसमें वह सब कुछ है, जिसकी इंसान को ज़रूरत है। इसके सिवा कहीं और से आदमी को कुछ नहीं मिल सकता।
क़ुरआन ईश्वर की किताब है। वह एक माध्यम है, जिसके ज़रिये ईश्वर अपने बंदों से बात करता है। वह दुनिया में ईश्वर का अनुभूत प्रतिनिधि (identical representative) है। वह उन लोगों का सहारा है, जो ईश्वर की रस्सी को मज़बूती से पकड़ना चाहते हों। वह एक पैमाना है, जिससे इंसानों की ईश्वरभक्ति को मापा जा सकता है। अगर यह सवाल किया जाए कि कोई आदमी अपने बारे में किस तरह यह मालूम करे कि उसका ईश्वर से संपर्क स्थापित हुआ या नहीं तो इसका एक ही जवाब है, वह यह कि आदमी अपने अंदर टटोलकर देखे कि उसका क़ुरआन से कितना संबंध है। कु़रआन से संबंध ही ईश्वर से संबंध होने का प्रदर्शन है। आदमी को क़ुरआन से जितना लगाव होगा, ईश्वर से भी उसका लगाव उतना ही होगा। अगर क़ुरआन उसकी सबसे ज़्यादा प्यारी किताब हो तो समझना चाहिए कि ईश्वर उसके नज़दीक सबसे ज़्यादा प्यारी हस्ती है और अगर उसकी सबसे ज़्यादा प्यारी किताब कोई और हो तो उसका सबसे ज़्यादा प्यारा भी वही आदमी होगा, जिसकी किताब उसने पसंद की है। ईश्वर उसका सबसे ज़्यादा प्यारा नहीं हो सकता। जिस तरह ईश्वर को हम क़ुरआन के सिवा कहीं और नहीं पा सकते, उसी तरह यह भी संभव नहीं है कि ईश्वर को पाने के बाद क़ुरआन के सिवा कोई और चीज़ हमारी सबसे ज़्यादा प्यारी बन सके।
क़ुरआन का अध्ययन करने की ज़रूरत केवल इसलिए नहीं है कि उसके ज़रिये आदमी अपने ईश्वर के आदेशों को मालूम करता है, बल्कि दुनिया की ज़िंदगी में ईश्वर के नज़दीक होने और बंदगी की राह पर इंसान को सीधा रखने का दारोमदार भी इसी पर है। क़ुरआन में आदमी अपने पालनहार से मुलाक़ात करता है, क़ुरआन में वह उसके वादों और ख़ुशख़बरियों को देखता है, अपने मालिक के बारे में इंसान के स्वाभाविक अहसास — जो उसके अंदर अनजाने में उमड़ते हैं— वह देखता है कि क़ुरआन में उनको चित्रित कर दिया गया है। जब इंसान को यह अहसास होता है कि अथाह कायनात के अंदर वह एक बेसहारा वजूद है तो क़ुरआन उसके लिए मंज़िल का निशान बनकर ज़ाहिर होता है। क़ुरआन आदमी के लिए वह विश्वास पैदा करता है, जिसके अनुसार आदमी दुनिया में अपना स्थान निर्धारित कर सके। क़ुरआन को केवल पढ़ लेना काफ़ी नहीं है, बल्कि उसके साथ मोहब्बत की ज़रूरत है। क़ुरआन से जब तक असाधारण लगाव न हो, यह सारे फ़ायदे हासिल नहीं हो सकते। यही वह चीज़ है, जिसे हदीस में ‘तआहुद’ (ज़िम्मेदारी) के शब्द से स्पष्ट किया गया है।
क़ुरआन से यह दिलचस्पी और उसकी महानता का अहसास किसी और माध्यम से पैदा नहीं हो सकता। किसी व्याख्याकार या साहित्यकार की ज़ुबान से क़ुरआन के विषयों को सुनकर आदमी उस व्याख्याकार या साहित्यकार का श्रद्धावान तो हो सकता है, मगर इस तरह क़ुरआन से सच्चा लगाव पैदा होना संभव नहीं। क़ुरआन से लगाव केवल तभी पैदा हो सकता है, जबकि ख़ुद क़ुरआन को पढ़ा जाए और उसके अंदर जो कुछ है, उसको सीधे उसके अपने शब्दों के ज़रिये ज़हन में उतारा जाए। यह केवल काल्पनिक बात नहीं है, बल्कि इसके पीछे एक महत्वपूर्ण मानसिक हक़ीक़त है। किसी चीज़ से आदमी उसी हैसियत से प्रभावित होता है, जिस हैसियत से वह इससे व्यक्तिगत रूप से परिचित हुआ हो। जैसे हम कह सकते हैं कि रूई और पत्थर का नरम और सख़्त होना एक बेकार बात है। हक़ीक़त में दोनों बिल्कुल एक हैं, क्योंकि अपने अंतिम विश्लेषण में दोनों एक ही तरह के वैद्युत कणों का समूह हैं, लेकिन यह एक विशुद्ध ज्ञानात्मक बात है। असली दुनिया में यह संभव नहीं है कि कोई आदमी रूई को नरम और पत्थर को सख़्त न समझे। प्रभाव कभी बाहरी ज्ञान का पाबंद नहीं होता, बल्कि वह केवल उस ज्ञान का पाबंद होता है, जो व्यक्तिगत रूप से प्राप्त हुआ है।
इस मिसाल की रोशनी में मामले को समझना आसान हो जाता है। जब हम क़ुरआन को ख़ुद उसके शब्दों में समझे बिना किसी दूसरे आदमी के लेखों और उसकी व्याख्याओं के द्वारा उसका ज्ञान प्राप्त करते हैं तो प्राकृतिक रूप से जो स्थिति पैदा होती है, वह यह कि एक ओर क़ुरआन का मूलपाठ होता है, जिसका कोई मतलब हमारी समझ में नहीं आता या अगर समझ में आता है तो बहुत साधारण-सा। दूसरी ओर एक लेखक का लेख होता है, जो हमारे लिए समझ में आने योग्य भाषा में होने के कारण ख़ुद अपने को स्पष्ट करता है। ईश्वर का कथन समझ में नहीं आता, लेकिन लेखक का कथन ख़ूब समझ में आता है। ईश्वर के कथन में कोई बड़ी बामाएना दिखाई नहीं देती,
लेकिन लेखक का लेख बहुत ही बमाएना नज़र आता है। ईश्वर का कथन पढ़े तो वह दिल पर कोई प्रभाव नहीं डालता, लेकिन लेखक का लेख देखिए तो रग-रग में उतरता चला जाता है।
इस स्थिति का स्वाभाविक परिणाम यह होता है कि क़ुरआन के बजाय किसी लेखक की महानता उसके दिल पर छप जाती है। परंपरागत विश्वास के आधार पर वह अपनी ज़ुबान से यह तो नहीं कह सकता कि वह लेखक के लेखों को क़ुरआन पर अहमियत देता है, मगर उसका अंदरूनी अहसास इस तरह का हो जाता है मानो वास्तविक घटना यही है। वह अनजाने में ईश्वर के अलावा किसी और आदमी की इबादत करने लग जाता है।
यह एक बहुत बड़ा फ़ितना है, जिसका ख़तरा हर उस आदमी से जुड़ा है, जो ईश्वर के संदेश को उसकी अपनी भाषा के बजाय किसी दूसरे की भाषा में सुनना चाहता हो, जो क़ुरआन का सीधे तौर पर अध्ययन करने के बजाय उससे संबंधित दूसरे लोगों के लेखों को पढ़ लेना काफ़ी समझता हो, जो क़ुरआन को ख़ुद क़ुरआन से समझने के बजाय क़ुरआन को व्याख्याकारों और साहित्यकारों के लेखों से समझना चाहता हो। जिस तरह हम अपने पेट की भूख उसी समय बुझा सकते हैं, जबकि ख़ुद खाएँ और अपने अंदर हज़म करें, ठीक उसी तरह हमारा ईमान भी उसी समय सही और पूरा हो सकता है, जबकि हमने उसे उसके मूल स्रोत से ख़ुद हासिल किया हो। किसी दूसरे के माध्यम से हम उस तक ठीक-ठीक नहीं पहुँच सकते।
क़ुरआन के सिलसिले में एक अहम सवाल यह है कि क़ुरआन का अध्ययन किस प्रकार किया जाए कि वह अपने सही रूप में हमारे दिलो-दिमाग़ में उतर जाए और हमारी ज़िंदगी में वास्तविक रूप में शामिल हो सके। इसके लिए सबसे ज़रूरी चीज़ यह है कि क़ुरआन का अध्ययन ख़ुद क़ुरआन की रोशनी में किया जाए, न कि किसी और चीज़ की रोशनी में। यह अध्ययन अनिवार्य रूप से क़ुरआन को समझने के लिए होना चाहिए, न कि अपनी पहले से निर्धारित की हुई बात को उससे निकालने के लिए। जब भी कोई आदमी प्रभावित ज़हन के साथ क़ुरआन का अध्ययन करेगा, वह क़ुरआन को सही रूप से ग्रहण (acquire) नहीं कर सकता। ऐसा आदमी क़ुरआन के आईने में अपनी बात देखेगा, न कि क़ुरआन की बात को।
यह एक मनोवैज्ञानिक सच्चाई है कि इंसान के मन में किसी अध्ययन के नतीजे हमेशा उस कल्पना के अनुसार संग्रहीत होते हैं, जो पहले से उसके मन में मौजूद हों। इंसान के लिए यह असंभव है कि वह चीज़ों को केवल इस हैसियत से देखे, जैसा कि वह हक़ीक़त में हों। अक्सर हालात में वह मजबूर होता है कि चीज़ों को उस हैसियत से देखे, जैसा कि उसका ज़हन उन्हें देखना चाहता है। इस तरह जब कोई आदमी एक ख़ास सोच लेकर क़ुरआन का अध्ययन करता है तो व्यावहारिक रूप से यह होता है कि क़ुरआन की कुछ बातों को तो वह ले लेता है, जो उसके ज़हन के चौखटे में बैठ सकती हों और बाक़ी सारी बातों को छोड़ता चला जाता है।
इस तरह वह सारा क़ुरआन पढ़ लेता है और समझता है कि उसने क़ुरआन को पा लिया, मगर हक़ीक़त यह है कि वह क़ुरआन से बिल्कुल बेख़बर होता है। उसने जो चीज़ पाई है, वह वही है, जो उसके ज़हन में पहले से मौजूद थी और जिसके समर्थन में संयोग से क़ुरआन की कुछ आयतें भी उसके हाथ आ गईं। ऐसे आदमी की मिसाल बिल्कुल उस शिक्षित नवयुवक की तरह है, जो अपनी बेकारी से परेशान हो और ‘नौकरी की ज़रूरत’ के विज्ञापनों को देखने के लिए अख़बार का अध्ययन करता हो। यह नवयुवक अपने उस अध्ययन के ज़रिये संभव है कि नौकरी का आवेदन-पत्र भेजने के लिए कुछ पते हासिल कर ले, मगर वह दुनिया की ख़बरों से बिल्कुल बेख़बर रहेगा और अख़बार देखने के असल मक़सद को हासिल न कर सकेगा।
प्रभावित ज़हन के साथ क़ुरआन का अध्ययन करने के अलग-अलग तरीक़े हैं, जिनमें सबसे ज़्यादा ख़तरनाक तरीक़ा वह है, जबकि आदमी समझ रहा हो कि वह इस्लाम की सेवा ही के लिए क़ुरआन का अध्ययन करने जा रहा है, हालाँकि हक़ीक़त में ऐसा न हो। मान लीजिए कि आप एक ऐसे आंदोलन से प्रभावित होते हैं, जो इस्लाम और मुसलमानों की सेवा के लिए उठा है, मगर वह सही इस्लामी आंदोलन नहीं है। (उदाहरण के लिए— ख़ाकसार आंदोलन) उसका अंदाज़ और उसकी रूह इस्लाम के अंदाज़ और उसकी रूह से अलग है। वह लोगों को इस्लाम के नाम पर बुलाता है और आपने निमंत्रण के स्पष्टीकरण के लिए इस्लामी शब्द और परिभाषाओं का इस्तेमाल करता है, मगर उसकी गतिविधि ठीक उस दिशा में नहीं है, जो की दरअसल इस्लाम की है।
इस उदाहरण में वास्तविक स्थिति यह है कि जिस आंदोलन ने आपको प्रभावित किया है, वह सही इस्लामी आंदोलन नहीं है; मगर आपके ज़हन में जो कल्पना बनी है, वह यह कि यही सबसे सही इस्लामी आंदोलन है और उसकी सेवा करना इस्लाम की सेवा करना है। इस आंदोलन ने आपकी वैचारिक शक्तियों को अपनी शैली के अनुसार मोड़ दिया है। अब एक ऐसा ज़हन लेकर जब आप क़ुरआन का अध्ययन शुरू करेंगे तो हक़ीक़त में आप यह समझेंगे कि आप क़ुरआन को हासिल करने जा रहे हैं; मगर जो हक़ीक़त है, वह यह कि आप क़ुरआन के शब्दों में अपनी बात की पुष्टि करना चाहते हैं।
इस तरह अध्ययन करने का लाज़िमी नतीजा यह होगा कि क़ुरआन की बहुत-सी चीज़ें आपको बेकार मालूम होंगी, क्योंकि वह आपके मानसिक साँचे के साथ समानता नहीं रखतीं और कुछ चीज़ें ऐसी होंगी, जो आपको पसंद आ जाएँगी, क्योंकि वह आपके मानसिक साँचे में फिट बैठ रही हैं। इस तरह आप क़ुरआन की कुछ बातों को ले लेंगे और उसकी बहुत-सी बातों को छोड़ देंगे। आप अपने स्तर पर यह समझते रहेंगे कि आपने क़ुरआन को पा लिया है, लेकिन जो हक़ीक़त होगी, वह यह कि आप क़ुरआन से वंचित होंगे। आप इस्लाम के नाम पर ख़ुद इस्लाम को छोड़ देंगे। आप क़ुरआन के हवाले से बात करेंगे, मगर हक़ीक़त में आपकी बातचीत का क़ुरआन से कोई संबंध नहीं होगा। इस तरह अध्ययन के समय इंसान का मानसिक विचार जिस दर्जे में इस्लाम से हटा हुआ हो, उतनी ही उसके क़ुरआन के अध्ययन में चूक हो जाती है।
आप कहेंगे कि जब स्थिति यह है तो किसी के बारे में भी विश्वास नहीं किया जा सकता कि उसका अध्ययन उसे सही नतीजों तक पहुँचा सकेगा, क्योंकि क़ुरआन के अध्ययन के बाद ही तो क़ुरआन के अनुसार किसी का ज़हन बन सकता है, फिर एक आदमी जो अभी क़ुरआन का अध्ययन करने जा रहा है और स्पष्ट है कि पहली बार हर आदमी का यही हाल होगा तो वह किस तरह क़ुरआन के अनुसार अपना ज़हन बना सकता है।
जवाब यह है कि मेरा मतलब यह नहीं है कि अध्ययन करने से पहले आदमी का ज़हन क़ुरआन के अनुसार बन चुका हो। स्पष्ट है कि यह बात असंभव है। मेरा मतलब केवल यह है कि उसके अंदर इस बात की योग्यता होनी चाहिए कि क़ुरआन से उसे जो कुछ मिले, वह उसे बिना किसी तर्क-वितर्क के स्वीकार कर ले। विद्वानों ने यह कहा है कि क़ुरआन से सही रूप से फ़ायदा उठाने के लिए ज़रूरी है कि आदमी इसके लिए ईश्वर से दुआ करे। इसका मतलब भी यही है कि आदमी के अंदर मार्गदर्शन को स्वीकार करने की तत्परता होनी चाहिए। दुआ का मतलब यह नहीं है कि कुछ विशेष शब्दों को अपनी ज़ुबान से बोलकर क़ुरआन पढ़ने की शुरुआत की जाए, बल्कि यह दुआ हक़ीक़त में दिल की उस तड़प की अभिव्यक्ति (expression) है कि बंदा मार्गदर्शन स्वीकार करने के लिए बेचैन है। वह सत्य की खोज में भटक रहा है। उसके अंदर सच्चाई की बेइंतिहा तलब है। वह पूरे वजूद के साथ सत्य का अभिलाषी बनकर ईश्वर से निवेदन कर रहा है कि वह उसे सही रास्ता दिखा दे। वह उसके अंदर सही विचारों को जगाए। वह क़ुरआन के अर्थों को उसके लिए खोल दे, ताकि वह उन्हें आत्मसात (assimilate) कर सके। यही हासिल करने की तड़प दरअसल वह चीज़ है, जो आदमी को सत्य की स्वीकृति तक ले जाती है और जिसने अपनी स्वाभाविक माँग पर ख़्वाहिशों के पर्दे डाल लिये हों, उसे कभी सत्य को स्वीकार करने का हौसला नहीं मिल सकता।
अब सवाल यह है कि क़ुरआन का अध्ययन करने के लिए हमें कौन-सी विद्याओं को जानने की ज़रूरत है। इस बातचीत को मैं दो भागों में विभाजित करना चाहूँगा। क़ुरआन को पढ़ने वाले लोग दो तरह के हो सकते हैं। एक वह, जो ज़्यादा अध्ययन करने के इच्छुक हों और दूसरे वह, जो अपने हालात के तहत उसे केवल साधारण तरीक़े से पढ़ना चाहते हों। दूसरी तरह के लोगों के लिए केवल कुरआन का अनुवाद ही काफ़ी है और पहली तरह के लोगों के लिए इन पाँच विद्याओं को सीखने की ज़रूरत है —
1. अरबी भाषा
2. हदीस और तफ़्सीर (व्याख्या)
3. विज्ञान यानी प्राकृतिक विज्ञान
4. उन क़ौमों का इतिहास, जिनमें ईश्वर के पैग़ंबर आए
5. प्राचीन आसमानी किताबें
1. क़ुरआन का गहरा अध्ययन करने के लिए अरबी भाषा की जानकारी होना अनिवार्य है। इसकी अहमियत किसी निजी प्रतिष्ठा के आधार पर नहीं है, बल्कि केवल इस दृष्टि से है कि इसके बिना क़ुरआन का गहरा अध्ययन प्रारंभ ही नहीं किया जा सकता। यह इस सफ़र की पहली सीढ़ी है, जिसे तय किए बिना ऊपर नहीं चढ़ा जा सकता। अरबी भाषा से परिचित होने की ज़रूरत का एक पहलू यह है कि इसके बिना हम आयते-इलाही (ईश्वरीय निशानी) से कोई गहरी बात नहीं समझ सकते। अरबी भाषा का ज्ञान होने की ज़रूरत इसलिए भी है कि क़ुरआन के शब्दों में जो बल और प्रभावशीलता भरी हुई है, उसे अपने ज़हन में स्थानांतरित करना उस समय तक संभव नहीं है, जब तक आदमी इसकी साहित्यिक संवेदनशीलताओं (sensitivities) से अच्छी तरह परिचित न हो।
हर लेख का एक मतलब होता है, जिसके लिए वह व्यवस्था की जाती है। यह मतलब इस तरह भी मालूम किया जा सकता है कि उन शब्दों का अनुवाद कर दिया जाए, जिनमें वह लेख संग्रहीत किया गया है या शब्दकोश (dictionary) में देखकर उसे हल कर लिया जाए; मगर इसी के साथ हर सफल लेख में एक प्रभावशीलता भी होती है, जो पढ़ने वाले को अपने अर्थों की ओर खींचती है। यह प्रभावशीलता मतलब से ज़्यादा उसके शब्दों और वर्णन में होती है। लेख को जिन शब्दों में संग्रहीत किया गया है, अगर आदमी उन शब्दों की बुद्धिमत्ता (wisdom) व वाक्य शक्ति (eloquence) को न जानता हो तो वह उसके अनुवाद से इसका मतलब तो शायद समझ जाए, मगर इससे कोई प्रभाव स्वीकार नहीं कर सकता।
क़ुरआन के लेखों में असीम प्रवाह है, उसके अंदर आश्चर्यजनक रूप से वास्तविकताओं को शब्दों के रूप में साकार कर दिया गया है। क़ुरआन में कहीं विश्वास पैदा करने की कोशिश की गई है, कहीं ईश्वर के दंड से डराया गया है, कहीं अच्छे कर्मों पर उभारा गया है, कहीं अपने दावे के हक़ में इंसान की प्रकृति और कायनात की गवाहियों से साबित किया गया है, कहीं इंसान की सफलता व असफलता के दर्शन का वर्णन किया गया है; मगर यह सब कुछ केवल घटना के वर्णन के रूप में नहीं है, बल्कि ऐसी अर्थपूर्ण और प्रभावी शैली में है कि हर जगह आदमी पर वही अवस्था छा जाती है, जिसका दरअसल वहाँ उद्देश्य है। क़ुरआन की वर्णन-शैली ऐसे मंत्रमुग्ध करने वाली है कि आदमी उसे केवल पढ़ता ही नहीं, बल्कि उसमें डूब जाता है। वह उसे केवल पढ़कर नहीं छोड़ देता, बल्कि वह मजबूर होता है कि उस पर ईमान लाए। क़ुरआन की यह शैली आधा क़ुरआन है।
यही कारण है कि क़ुरआन का अध्ययन करने वालों के लिए अरबी भाषा को सीखना बहुत ज़रूरी हो जाता है। यह एक ऐसी ज़रूरत है, जिसका वास्तविक अर्थों में कोई बदल नहीं।
साधारण अंदाज़ में क़ुरआन से फ़ायदा उठाने के लिए केवल अनुवाद काफ़ी है, मगर जो लोग ज़्यादा गहराई के साथ क़ुरआन का अध्ययन करना चाहते हों तो उनके लिए अरबी भाषा के अलावा और कुछ चीज़ों में जानकारी हासिल करना ज़रूरी है।
2. क़ुरआन का गहरा अध्ययन करने के लिए पहली मददगार चीज़ सुन्नत और तफ़्सीर (commentary, व्याख्या) का ज्ञान है। इन दोनों को हमने एक ही सूची में इसलिए नहीं रखा है, क्योंकि दोनों का दर्जा एक ही है। हक़ीक़त यह है कि प्रामाणिक सुन्नत और क़ुरआन में कोई अंतर नहीं। इनमें से एक का अध्ययन करना जैसे दूसरे का अध्ययन करना है। इसके विपरीत तफ़्सीर किसी इंसान के क़ुरआन के अध्ययन के नतीजों का नाम है और इंसान का अध्ययन चाहे वह किसी भी आदमी का हो, उसमें ग़लतियों की संभावना है। इसलिए तफ़्सीर कभी क़ुरआन की जगह नहीं ले सकती और न उसे किसी भी हाल में सुन्नत का दर्जा दिया जा सकता है। इस अंतर के बावजूद इन दोनों को एक क्रम में रखने का कारण दरअसल वह ऐतिहासिक दशा है, जो क़ुरआन की तुलना में इसे प्राप्त है।
क़ुरआन जिस तरह संपूर्ण और सुरक्षित रूप में हम तक पहुँचा है, रिवायात* उसी तरह हम तक नहीं पहुँची हैं। सही रिवायात के साथ बहुत-सी ग़लत रिवायात भी शामिल हो गई हैं, इसीलिए विद्वानों ने क़ुरआन के मुक़ाबले में इसे पूर्ण ज्ञान के बजाय अनुमानित ज्ञान की हैसियत दी है। अगर हदीसों में अनुमान और संदेह का हस्तक्षेप न होता और उनका कोई ऐसा भंडार मौजूद होता, जिसे पूर्ण रूप से सुरक्षित घोषित किया जा सके तो हदीसों को भी इसी तरह असल का दर्जा दिया जाता, जैसा कि ख़ुद क़ुरआन का है। केवल हदीस ही नहीं, बल्कि वह सारा मूल स्रोत, जो क़ुरआन से संबंधित है, उन सबका यही मामला है, जैसे इतिहास और अतीत के सारे पैग़ंबरों की किताबें अगर अपने मूल रूप में सुरक्षित होतीं तो यह सब भी क़ुरआन की तरह असल घोषित होते और सब बिना किसी झगड़े के एक-दूसरे का समर्थन करते।
तफ़्सीर और रिवायात का भंडार क़ुरआन को समझने के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। प्रमाणित रिवायत की हैसियत यह है कि वह ख़ुद क़ुरआन लाने वाले की ज़ुबान से क़ुरआन का स्पष्टीकरण है; वह उन मामलों का विस्तार है, जिनको ईश्वर की किताब ने संक्षिप्त (brief) छोड़ दिया है, वह उन संकेतों को स्पष्ट करना है, जिनको क़ुरआन ने स्पष्ट नहीं किया है। वह उन उद्देश्यों का और अधिक स्पष्टीकरण है, जिन उद्देश्यों के लिए क़ुरआन को अवतरित किया गया था। इसलिए जो आदमी क़ुरआन को समझना चाहता हो तो उसके लिए अनिवार्य है कि वह हज़रत मुहम्मद के उपदेशों से फ़ायदा उठाए जिन पर क़ुरआन उतरा। इसके बिना वह क़ुरआन के अर्थों तक नहीं पहुँच सकता। इसी तरह व्याख्याओं का भंडार मुसलमानों के बेहतरीन दिमाग़ों की कोशिश का नतीजा है, जो शताब्दियों से क़ुरआन को समझने के लिए वे करते चले आ रहे हैं। यह इतिहास के दीर्घ कालों में क़ुरआन का अध्ययन करने वालों के वैचारिक परिणाम हैं, जिनको छोड़कर क़ुरआन का अध्ययन करना बिल्कुल ऐसा है, जैसे कोई आदमी कहे कि पिछली सदियों में विज्ञान ने जो कुछ खोजें की हैं, उन सबको छोड़कर मैं दोबारा से कायनात पर विचार करूँगा। इसलिए ज़रूरी है कि हम क़ुरआन के अध्ययन के लिए तफ़्सीर और रिवायात के भंडारों से सहायता लें। उनको छोड़कर क़ुरआन का अध्ययन करना एक सिरफिरे आदमी का काम तो हो सकता है, मगर कोई गंभीर आदमी इस तरह की बेवकूफ़ी नहीं कर सकता।
3. क़ुरआन ने अपना निमंत्रण पेश करते हुए उसे दो चीज़ों से ख़ास तौर पर प्रमाणित किया है। एक ज़मीन और आसमान की उत्पत्ति और दूसरी चीज़ यह कि पिछली क़ौमों के हालात। क़ुरआन की यह सामान्य शैली है कि अपने दावे के पक्ष में प्रकृति के तर्क देकर और ऐतिहासिक घटनाओं से उसकी अधिक पुष्टि करे। पहली चीज़ इस घटना की गवाही है कि इस दुनिया का एक ईश्वर है, जिसकी मर्ज़ी मालूम करना हमारे लिए ज़रूरी है, इसे छोड़कर इंसान सफलता तक नहीं पहुँच सकता और दूसरी चीज़ इस बात का सबूत है कि ईश्वर हर ज़माने में कुछ इंसानों के ज़रिये अपना हुक्म भेजता रहा है। जिन लोगों ने इसे स्वीकार किया, वे सफल हुए और जिन्होंने इसे नहीं माना, वे तबाह कर दिए गए। कायनात वर्तमान भाषा में जिस हक़ीक़त की ओर इशारा करती है, पिछली क़ौमों के इतिहास की ज़ुबान इसी हक़ीक़त की पुष्टि करती है।
यह दोनों तर्क आज भी क़ुरआन को समझने और इस पर ईमान लाने के सिलसिले में बड़ी अहमियत रखते हैं। हालाँकि क़ुरआन विज्ञान की किताब नहीं है और न ही वह सामान्य अर्थों में कोई इतिहास की किताब है, मगर विज्ञान और इतिहास यही वह विशेष विद्याएँ हैं, जिन पर इनके तर्क का आधार स्थापित है। इसलिए क़ुरआन का कोई पढ़ने वाला इन विद्याओं से बेपरवाह रहकर क़ुरआन से कोई सही फ़ायदा नहीं उठा सकता।
पहली तरह के तर्क के सिलसिले में क़ुरआन ने इंसान के अंदर और बाहर की बहुत-सी निशानियों का ज़िक्र किया है और इन पर सोच-विचार करने की दावत दी है। इन तर्कों का क़ुरआन में इस तरह वर्णन नहीं है कि इनका विस्तृत विश्लेषण करके वैज्ञानिक शैली में इनके परिणाम इकट्ठे किए गए हों, बल्कि कायनात की निशानियों का ज़िक्र करके उनकी अलग-अलग दिशाओं या उद्देश्यों की ओर इशारा कर दिया गया है, जो सोच-विचार करने वाले को रास्ता दिखाती हैं मानो तर्कों का विवरण नहीं है, बल्कि तर्कों के शीर्षक हैं। इसलिए उनसे पूरा फ़ायदा तभी हासिल किया जा सकता है, जबकि कायनात के बारे में और अधिक जानकारी को सामने रखकर उनका अध्ययन किया जाए। दूसरे शब्दों में, वह जानकारी और नतीजे आदमी के दिमाग़ में होने चाहिए, जिनसे उन तर्कों की स्पष्टता होती है और जो उसके संकेतों को विस्तृत बनाने वाले हैं, जैसे— क़ुरआन कहता है कि वही है जिसने ज़मीन को तुम्हारे लिए आज्ञाकारी बनाया, तो चलो-फिरो उसके कंधों पर।
इन शब्दों में जिस बड़ी हक़ीक़त की ओर इशारा किया गया है, उसका विवरण हमें क़ुरआन में नहीं मिलेगा, बल्कि बाहरी साहित्य में उसे तलाश करना पड़ेगा। बाहरी अध्ययन से हमें मालूम होगा कि ज़मीन को किस तरह अथाह अंतरिक्ष के अंदर ठहराकर हमारे लिए रहने के योग्य बनाया गया है और किस तरह अलग-अलग व्यवस्थाओं के द्वारा इसे जीवन के स्थायित्व (stable) और मानवीय संस्कृति के विकास के लिए अनुकूल बनाया गया है।
क़ुरआन कहता है कि इस कायनात का रचयिता और इसका प्रबंधक केवल एक ईश्वर है। उसका दावा है कि कायनात एक अललटप कारख़ाना नहीं है, बल्कि एक व्यवस्थित योजना की शुरुआत है, जिसका अपने अंजाम तक पहुँचना अनिवार्य है। कायनात की इस हक़ीक़त को स्पष्ट करने के बाद वह इंसान को उसे मानने का निमंत्रण देता है। वह उससे कहता है कि इस कायनात की कल्पना का अनिवार्य अर्थ यह है कि कायनात का अंजाम ईश्वर के हाथ में हो और कायनात की सारी चीज़ों के लिए कामयाबी का रास्ता केवल यह हो कि वह ईश्वर की मर्ज़ी को पा ले। इस तरह वह पैग़ंबरी और वह्य की ज़रूरत साबित करके उसकी तरफ़ बुलाता है। फिर वह इंसान को कायनात की उन व्यवस्थाओं की याद दिलाता है, जो ईश्वर ने इंसान के लिए की हैं और जिनके बिना इंसानी ज़िंदगी की कल्पना नहीं की जा सकती। इन उपकारों की अनिवार्य माँग यह है कि आदमी अपने उपकारी (benefactor) के आगे झुक जाए। फिर वह इंसान को बताता है कि वह कितना विवश और तुच्छ प्राणी है और ख़ुद उसकी अपनी विवशता की ही यह माँग है कि वह ईश्वर की रस्सी को मज़बूती से थाम ले, जिसके सिवा दरअसल यहाँ कोई और सहारा नहीं है।
यह सारी बातें जो क़ुरआन पेश करता है, इन सबके सिलसिले में उसका मूल तर्क देना इंसान के अपने अस्तित्व और ज़मीन व आसमान के अंदर फैली हुई निशानियों से भरा हुआ है। वह हमारे अवलोकनों और अनुभवों के ही तर्कों से हमें अपने नज़रिये का मोमिन बनाना चाहता है, इसलिए उन निशानियों को सही रूप में समझने और उनसे पूरा फ़ायदा उठाने के लिए ज़रूरी है कि हमें उनके बारे में ज़रूरी ज्ञान प्राप्त हो। जब क़ुरआन कायनात की किसी घटना की ओर इशारा करे तो हमें मालूम हो कि वह क्या है। वह जब किसी निशानी का हवाला दे तो हम जानते हों कि हमारी ज़िंदगी के लिए उसकी क्या अहमियत है। वह जब किसी तर्क का ज़िक्र करे तो हम उस तर्क के बारे में इतनी जानकारी रखते हों कि उस पर सोच-विचार कर सकें। मतलब यह कि वह जब भी कायनात के किसी पहलू को हमारे सामने लाए तो हमारी आँखें उसे देखने के लिए खुली हुई हों और हमारा ज़हन उसे समझने के लिए ज़रूरी जानकारी अपने पास रखता हो।
एक आदमी कह सकता है कि क़ुरआन में कायनात के जिन तर्कों का वर्णन किया गया है, वह आख़िर संक्षिप्त शैली में ही क्यों हैं। उनको इतना विस्तृत होना चाहिए था कि क़ुरआन में उन्हें पढ़ लेना काफ़ी होता, बाहरी जानकारी लेकर उसका अध्ययन करने की ज़रूरत न होती। जवाब यह है कि इंसानी भाषा में कोई भी किताब ऐसी नहीं लिखी जा सकती, जिसमें वह सारी बातें अपने सारे विवरण के साथ दर्ज हों, जिनका उस किताब में ज़िक्र आया है। हर लेखक को अनिवार्य रूप से यह मानना पड़ता है कि उसका पढ़ने वाला कुछ जानकारियाँ पहले से रखता होगा। अगर ऐसा न हो तो दुनिया में केवल एनसाइक्लोपीडिया ही अस्तित्व में हो, कोई संक्षिप्त किताब लिखी ही न जा सके। यही कारण है कि क़ुरआन ने बहुत से मामलों में केवल इशारों से काम लिया है। जो बातें वह्य के बिना मालूम नहीं की जा सकतीं, उनका तो क़ुरआन में पूरा विवरण दिया गया है मगर वह बातें जिन्हें जानने के लिए अनिवार्य रूप से वह्य की ज़रूरत नहीं है, बल्कि इंसान ईश्वर की दी हुई बुद्धि से काम लेकर भी उन्हें मालूम कर सकता है तो ऐसी बातों की ओर केवल इशारा कर दिया गया है और इंसान से कहा गया है कि उन पर सोच-विचार करे।
इसके अलावा क़ुरआन की इस वर्णन-शैली के पीछे एक और महान नीति है। क़ुरआन एक आम आदमी के लिए भी है और एक दार्शनिक के लिए भी। वह अतीत के लिए भी था और भविष्य के लिए भी है। इसलिए उसने अपनी बातचीत का ऐसा तरीक़ा अपनाया, जो डेढ़ हज़ार साल पहले के इंसान के लिए भी समझने योग्य हो सकता था और फिर उन सभी लोगों के लिए भी उसके अंदर नसीहत है, जो आगे प्राप्त जानकारी को दिमाग़ में रखकर क़ुरआन का अध्ययन करें। क़ुरआन में उन तर्कों का ज़िक्र करते हुए ऐसे शब्दों का इस्तेमाल किया गया है, जो आने वाले समय में प्राप्त जानकारी को भी समेट लेते हैं। यह क़ुरआनी कथन-शैली का चमत्कार है कि कायनात की निशानियों का ज़िक्र करते हुए वह ऐसे शब्द इस्तेमाल करता है, जिनके अंदर एक ऐसा आदमी भी संतुष्टि प्राप्त कर लेता है जो कायनात के बारे में बहुत थोड़ी जानकारी रखता हो और उन्हीं शब्दों में एक वैज्ञानिक और दार्शनिक के लिए भी संतुष्टि और सांत्वना का सामान मौजूद है।
4. दूसरी चीज़ जिसको क़ुरआन ने तर्क का आधार बनाया है, वह इतिहास है। क़ुरआन इंसानी इतिहास को दो दौरों में विभाजित करता है। एक छठी शताब्दी ईसा पूर्व का इतिहास, जिसे वह इस अंदाज़ में पेश करता है कि वह सच और झूठ के टकराव का इतिहास है, जिसमें अनिवार्य रूप से हमेशा सच की जीत हुई है और झूठ की हार हुई है। क़ुरआन के अनुसार छठी शताब्दी ईस्वी तक इंसानी इतिहास जिस तरीक़े से सफ़र करता रहा है, वह यह है कि ज़मीन के ऊपर इंसान ने जितनी भी आबादी क़ायम की, उनमें ईश्वर की ओर से एक प्रतिनिधि (पैग़ंबर) आया। उसने इंसानों को उनकी ज़िंदगी का मक़सद बताया। उसने कहा कि ईश्वर ने मुझे यह संदेश देकर तुम्हारे पास भेजा है कि तुम उसकी बंदगी करो और मैं जो कुछ कहूँ, उसे मानो। उसने कहा कि अगर तुम मेरी बात नहीं मानोगे तो तबाह कर दिए जाओगे। इस तरह पैग़ंबर की यह चुनौती कि ज़िंदगी और मौत के बाद की कामयाबी उसके निमंत्रण को मानने या न मानने पर है, यह ख़ुद पैग़ंबर के दावे के सही होने को जाँचने की एक कसौटी बन गई।
क़ुरआन कहता है कि इतिहास किसी अपवाद के बिना लगातार इस दावे के पक्ष में फ़ैसला करता आया है कि जब भी ईश्वर का कोई पैग़ंबर सामने आया तो कुछ लोगों ने उसके निमंत्रण को स्वीकार किया और कुछ लोगों ने नहीं किया। अगर पैग़ंबर के मानने वालों की संख्या इतनी हुई कि वह एक संगठित दल का रूप धारण कर सके तो उसे नकारने वाले दल से टकराया गया और उन्हें हराकर ख़त्म कर दिया गया और अगर पैग़ंबर का साथ देने वाले कम हुए तो ईश्वर ने अपनी असाधारण सहायता भेजकर उनकी मदद की। आख़िरी कोशिश तक समझाने के बाद आख़िरकार एक पैग़ंबर की ज़ुबान से यह चैलेंज दे दिया गया—
“अपनी बस्तियों में तीन दिन और चल-फिर लो, (इसके बाद तुम्हारे लिए ज़िंदगी का कोई मौक़ा नहीं) यह वादा झूठा नहीं है।” (11:65)
इसलिए ईश्वर का प्रकोप अपने ठीक समय पर आया, उस पैग़ंबर और उसके मानने वालों के सिवा सब लोगों को ख़त्म कर दिया गया। इस तरह हर ज़माने में ईश्वर अपने पैग़ंबरों को प्रभावी करके उनके दावे का सही होना साबित करता रहा है। यह मानो इतिहास की गवाही है कि पिछली तारीख़ में जिन लोगों ने अपने आपको ईश्वर के प्रतिनिधि की हैसियत से प्रस्तुत किया, वे हक़ीक़त में ईश्वर के प्रतिनिधि थे और इंसान के लिए ज़रूरी है कि उनकी शिक्षाओं को अपनाए। जो ऐसा न करेगा, वह तबाह व बरबाद हो जाएगा। ठीक यही स्थिति ख़ुद आख़िरी पैग़ंबर हज़रत मुहम्मद के सिलसिले में पैदा हुई जिनके बारे में ईसा मसीह का यह कथन पूरा हुआ— “जो उससे टकराएगा, वह तबाह हो जाएगा।”
इतिहास की यह स्थिति हमें इतिहास के अध्ययन का ध्यान दिलाती है ताकि हम क़ुरआन के उन वादों को समझ सकें जो उसने पिछली क़ौमों के बारे में किए हैं; मगर इस सिलसिले में एक बड़ी परेशानी यह है कि पिछला इतिहास अपने मूल रूप में सुरक्षित नहीं है। पिछली सदियों में जिन लोगों के हाथों विद्याओं की उन्नति हुई है, उन्होंने विज्ञान और इतिहास दोनों को बिगाड़ने की पूरी कोशिश की है। कायनात का अध्ययन उन्होंने इस ढंग से किया मानो वह अपने आपमें कोई स्थायी चीज़ है और अपने आप गतिविधि करती है। वह अध्ययन उन्हें सिर्फ़ इस हद तक पहुँचाता है कि ‘जो है, वह क्या है’। वह उसकी तरफ़ निशानदेही नहीं करता कि ‘जो कुछ हो रहा है, वह क्यों हो रहा है’। इस सिलसिले में न केवल यह कि विज्ञान के विद्वान ख़ामोश रहते हैं बल्कि उनमें से बहुत से लोगों ने यह साबित करने की कोशिश भी की कि जो कुछ हमें महसूस होता है, वही असल हक़ीक़त है। इसके पीछे कोई और हक़ीक़त नहीं। कायनात की आश्चर्यजनक व्यवस्था और उसके विभिन्न अंशों का पारस्परिक सहयोग (mutual cooperation) इस बात का सबूत नहीं है कि उसके पीछे कोई बहुत बड़ा ज़हन काम कर रहा है, बल्कि यह केवल एक अच्छा संयोग है, इसके सिवा और कुछ नहीं।
इसी तरह इतिहास-लेखन की दिशा भी बिल्कुल दूसरी अपनाई गई है। प्राचीन इतिहास में क़ौमों के उत्थान व पतन (rise and fall) की बहुत ही आश्चर्यजनक घटनाएँ नज़र आती हैं। ज़मीन के अंदरूनी हिस्सों से ऐसे निशान बरामद हुए हैं, जिनसे साबित होता है कि कितनी विकसित और सुसंस्कृत (cultured) क़ौमें थीं, जो ज़मीन के नीचे दबा दी गईं, मगर हमारे इतिहासकारों के नज़दीक उन घटनाओं का सच और झूठ की लड़ाई से कोई संबंध नहीं है। जैसे मिस्र के इतिहास में फ़िरऔन के पानी में डूबने का ज़िक्र इस तरह आता है कि बादशाह एक दिन दरिया में नहाने गए थे कि संयोग से वहाँ डूब गए। इस तरह पहले के इतिहासकारों का दृष्टिकोण उस इतिहास-दर्शन से बिल्कुल अलग है, जो क़ुरआन ने पेश किया है।
कहने का मतलब यह है कि विज्ञान और इतिहास, दोनों की दिशा मौजूदा ज़माने में ग़लत हो गई है, फिर भी जहाँ तक पहली चीज़ यानी प्राकृतिक विज्ञान का संबंध है, तो सबसे पहले तो सारे वैज्ञानिकों का अंदाज़ा बराबर नहीं है। दूसरी बात यह कि उनके हासिल किए गए नतीजों को भी बड़ी आसानी से सही दिशा की ओर मोड़ा जा सकता है। उनके सिलसिले में हमारा काम केवल यह है कि जिन घटनाओं को वे संयोग या प्राकृतिक नियमों का नतीजा कहते हैं, उनको ईश्वर के अधिकार का नतीजा साबित करें; मगर इतिहास के सिलसिले में एक अहम सवाल यह है कि क्या किया जाए। क़ुरआन के अलावा सिर्फ़ इस्राईली क़ौम का धार्मिक साहित्य है, जो क़ुरआन के ऐतिहासिक दृष्टिकोण का समर्थन करता है। इसके अलावा संभवत: कहीं से भी इसका समर्थन नहीं मिलता। इस सिलसिले में क़ुरआन को जानने वाले को बहुत से काम करने हैं, जैसे— दूसरे धर्मों के साहित्य का इस हैसियत से निरीक्षण करना कि वह समुदायों के उत्थान व पतन की क्या तस्वीर पेश करता है। उनके यहाँ बहुत-सी ग़लत परंपराएँ शामिल हो गई हैं, मगर यह बिल्कुल संभव है कि ऐसे इशारे और ऐसी बुनियादें मिल सकें, जिनसे क़ुरआन की ऐतिहासिक कल्पना के पक्ष में तार्किक अंदाज़ा हासिल किया जा सके।
इसी तरह प्राचीनतम इतिहासकारों के यहाँ छानबीन करनी है कि उन्होंने पहली क़ौमों के हालात के बारे में क्या कुछ लिखा है। पुरातत्व (archeology) की खुदाई से जो चिह्न और शिलालेख (inscription) बरामद हुए हैं, उनका निरीक्षण करके देखना है कि उनके द्वारा क़ुरआन के इतिहास-दर्शन का किस हद तक समर्थन होता है। यह एक बहुत मुश्किल काम है, मगर पुरानी तार्किकता के एक अंश को स्पष्ट करने के लिए ज़रूरी है कि इस सिलसिले में भी कुछ काम किया जाए। यह काम क़ुरआन के हर इच्छुक का नहीं है, मगर कुछ लोगों को ज़रूर यह काम करना चाहिए, ताकि दूसरे लोग उनकी जाँच-पड़ताल से फ़ायदा उठा सकें।
जीव विज्ञान के विशेषज्ञों का विचार है कि इंसान अपनी मौजूदा योग्यताओं के साथ लगभग तीन लाख वर्ष से इस ज़मीन पर आबाद है, मगर उन्हें यह बात बड़ी आश्चर्यजनक लगती है कि मौजूदा सारी बौद्धिक योग्यताओं के बावजूद इंसान ने असल तरक़्क़ी अभी कुछ सौ वर्षों से की है। इससे पहले हज़ारों-लाखों वर्ष तक वह ख़ानाबदोशों की ज़िंदगी जीता रहा और पत्थर के कुछ बेढंगे हथियार बनाने के अलावा उसने कोई ख़ास तरक़्क़ी नहीं की। उसे अपने हथियारों को सीधी धार देने और आग का इस्तेमाल सीखने के लिए हज़ारों वर्ष लगे। ऐसा विचार किया जाता है कि अब से छह हज़ार साल पहले इंसान को नील नदी की घाटी में ख़ुद उगने वाले जौ उगते हुए दिखाई दिए और उस अवलोकन से उसने खेती का राज़ मालूम किया। इसका तरीक़ा मालूम होने और इसे अपनाने से इंसान रिहायशी ज़िंदगी जीने के लिए मजबूर हुआ और इसके बाद संस्कृति (culture) की बुनियाद पड़ी, मगर यह मानव इतिहास का सही अध्ययन नहीं है। हक़ीक़त यह है कि इस ज़मीन पर बार-बार बहुत ही शानदार संस्कृतियाँ पैदा हुईं और मिटा दी गईं, क़ौमें उभरीं और ख़त्म हो गईं।
पिछले ज़माने में जब पैग़ंबरों के आने का सिलसिला जारी था। किसी क़ौम में पैग़ंबर का आना हक़ीक़त में उसके लिए ईश्वर की अदालत का स्थापित होना था। इतिहास में बार-बार ऐसा हुआ है कि क़ौमें उभरीं और उन्होंने बड़ी-बड़ी संस्कृतियाँ क़ायम कीं। प्रसिद्ध इतिहासकार सर फ़्लिंडर्स ने अपनी किताब ‘द रेवोल्यूशन ऑफ़ सिविलाइज़ेशन’ (The Revolution of Civilization) में लिखा है कि संस्कृति एक निरंतर प्रदर्शन है, जो बार-बार होती है। उसने साबित किया है कि पिछले दस हज़ार वर्षों में लगभग आठ ‘सांस्कृतिक युग’ गुज़रे हैं। हर दौर से पहले एक ज़माना बर्बरता का गुज़रा है और उसके बाद पतन का दौर आया है। इस ऐतिहासिक दृष्टिकोण को सही मान लिया जाए तो इससे भी हमारे विचार का समर्थन होता है, मगर जब पैग़ंबर आया और उन्होंने उसकी आज्ञा का पालन नहीं किया तो ईश्वर की अदालत से उनके लिए उनके ख़ात्मे का फ़ैसला हुआ और वे अपने बड़े-बड़े शहरों और क़िलों के साथ तबाह कर दी गईं।
मौजूदा दौर का यह अंजाम अब क़यामत के दिन होगा। उस समय सारी दुनिया को एक ही समय ख़त्म करके सारे इंसान ईश्वर की अदालत में लाए जाएँगे। इस स्थिति ने प्राचीनकाल में संस्कृति को उन्नति व स्थायित्व के वह अवसर नहीं दिए, जिनका अवसर बाद के युग में मिला है। प्राचीन इतिहास और आधुनिक इतिहास के इस पक्ष की जानकारी ईमान को बढ़ाने वाली भी है और क़ुरआनी तार्किकता को समझने के लिए बहुत अहम भी।
5. इस सिलसिले में जो आख़िरी चीज़ क़ुरआन के अध्ययन के लिए सहायक ज्ञान की हैसियत रखती है, वह इस्राईली क़ौम की धार्मिक किताबों का अध्ययन है, जिनका क़ुरआन में बार-बार वर्णन हुआ है। क़ुरआन के अध्ययन के सिलसिले में इन किताबों का अध्ययन करना जैसे एक आसमानी किताब को समझने के लिए दूसरी आसमानी किताब से मदद लेना है। इसका मतलब यह नहीं है कि पहली किताबों को मापदंड के रूप में स्वीकार कर रहे हैं। यह किताबें कभी मापदंड नहीं बन सकतीं। इतना ही नहीं, उनमें मिलावट हो चुकी है और वे अपने मूल रूप में बाक़ी नहीं रही हैं। यह बात कि क़ुरआन आसमान से उतरने वाली आख़िरी किताब है और बाक़ी सभी किताबें इससे पहले की हैं, सिर्फ़ यह हक़ीक़त इसके सबूत के लिए काफ़ी है कि क़ुरआन को ही मापदंड होना चाहिए।
किसी बादशाह का आख़िरी हुक्म उसके अपने पहले हुक्मों को रद्द करना होता है, न कि पहले हुक्म उसके आख़िरी हुक्म को रद्द करते हैं। जो आदमी आख़िरी हुक्म को छोड़कर पहले के हुक्म की पैरवी करता है और कहता है कि यह भी तो मालिक ही की तरफ़ से आया है, तो वह पूरी तरह से इच्छाभक्ति से ग्रस्त है। वह अपनी राय की पूजा कर रहा है, न कि हुक्म देने वाले के हुक्म की। इसलिए क़ुरआन ईश्वर की मर्ज़ी मालूम करने के लिए अंतिम प्रमाण की हैसियत रखता है। बाक़ी किताबों से हम क़ुरआन का असल मतलब समझने में मदद ले सकते हैं, लेकिन उन्हें पूर्ण तर्क नहीं बना सकते।
मदद लेने की दो स्थिति हैं। एक तो भाषा और वर्णन-शैली की दृष्टि से और दूसरी शिक्षा की दृष्टि से। यह पता है कि बाइबल और इस्राइलियों की किताब ओल्ड टेस्टामेंट की मूल भाषा हिब्रू है और अरबी व हिब्रू दोनों ही एक मूल से निकली हैं, इसलिए क़ुदरती तौर पर दोनों भाषाओं में काफ़ी समानता है और एक भाषा दूसरी भाषा को समझने में मदद करती है। फिर आसमानी किताबों की एक विशेष वर्णन-शैली है। इस तरह पवित्र किताबों का अध्ययन उस विशेष वर्णन-शैली से हमें परिचित कराता है और उसकी गहराई को समझने में मदद करता है, जो आसमानी किताबों की हमेशा से रही है। इसलिए व्याख्याकारों ने क़ुरआन के बहुत से शब्दों और बयानों का मतलब समझने के लिए पहली किताबों से मदद ली है और बहुत ही लाभकारी अर्थों तक पहुँच प्राप्त की है।
दूसरी चीज़ शिक्षा है। अगर विवरण और समय की आवश्यकताओं की दृष्टि से आंशिक अंतर को नज़रअंदाज़ कर दिया जाए तो यह एक सच्चाई है कि पिछली किताबों में भी वही सारी बातें ईश्वर की ओर से अवतरित की गई थीं, जो क़ुरआन के द्वारा हम तक भेजी गई हैं। इसलिए अपनी असल हक़ीक़त की दृष्टि से दोनों एक-दूसरे का समर्थन करने वाली हैं, न कि विरोध करने वाली। पहली किताबों की यही वह हैसियत है, जिसके आधार पर वह क़ुरआन के अध्ययन के लिए एक उपयोगी स्रोत की हैसियत रखती है। जिस तरह क़ुरआन में एक ही विषय का अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग तरीक़ों से वर्णन किया गया है और इस तरह की किसी एक आयत को समझने के लिए उसी तरह की दूसरी आयत से मदद मिलती है। ठीक इसी तरह ईश्वर का कथन जो बाद के ज़माने में क़ुरआन के रूप में आया है, वह इससे पहले बनी इस्राईली क़ौम के पैग़ंबरों पर अलग-अलग रूपों में अवतरित होता रहा है। इसलिए पहली किताबों में ईश्वर का जो कथन है, वह उसके बाद के कथन को समझने में एक मददगार की हैसियत रखता है।
यह क़ुरआन के सिलसिले में सहायक विद्याओं का एक संक्षिप्त वर्णन है। आख़िर में मैं उसी बात को फिर दोहराऊँगा, जिसे मैं शुरू में कह चुका हूँ यानी यह कि इन सबसे बढ़कर जो चीज़ क़ुरआन से फ़ायदा हासिल करने या क़ुरआन को समझने के लिए ज़रूरी है, वह इंसान का अपना इरादा है। शेष विद्याएँ क़ुरआन को समझने में मदद कर सकती हैं, मगर क़ुरआन का ज्ञान जज़्ब करने के लिए किसी बाहरी ज्ञान की ज़रूरत नहीं। इंसान की अपनी हासिल करने की भावना ही वह चीज़ है, जिसके ज़रिये वह क़ुरआन को जज़्ब करता है। क़ुरआन मार्गदर्शन की किताब है। किसी के ज़हन में क़ुरआन का उतर जाना दूसरे शब्दों में यह मतलब रखता है कि उस आदमी को मार्गदर्शन मिल गया। उसे भलाई या बुराई के दो रास्तों में से उस रास्ते को अपनाने का हौसला मिला, जो उसकी ज़िंदगी को कामयाबी की ओर ले जाने वाला है और मार्गदर्शन का मिलना-न-मिलना आदमी के अपने इरादे पर निर्भर है। मार्गदर्शन देने वाला ईश्वर है। उसके सिवा कहीं और से आदमी मार्गदर्शन हासिल नहीं कर सकता; मगर ईश्वर की ओर से मार्गदर्शन उसी को मिलता है, जो उसका इच्छुक हो। इसलिए क़ुरआन का अध्ययन उसी के लिए फ़ायदेमंद साबित होता है और किसी ऐसे ही आदमी को यह हौसला मिलता है कि क़ुरआन उसकी ज़िंदगी में दाख़िल हो जाए। जिसे सच्चाई की तलाश हो, जो वाक़ई सही अर्थों में क़ुरआन का इच्छुक हो। जो अपने अंदर यह इरादा पैदा कर चुका हो कि सच्चाई उसे जहाँ और जिस रूप में भी मिलेगी, वह उसे ले लेगा और उससे लिपट जाएगा। क़ुरआन का ज्ञान किसी स्कूल के सर्टिफिकेट के रूप में आदमी को नहीं मिलता, न ही पुस्तकालयों की अलमारियों से उसे ज़हन में स्थानांतरित (transfer) किया जा सकता है। यह उसी को मिलता है, जो वास्तविक अर्थों में क़ुरआन का इच्छुक हो। जिसके अंदर इतना हौसला हो कि हर निजी रुझान की तुलना में सच्चाई को अहमियत दे सके। जो क़ुरआन को ईश्वर की किताब समझकर उसका अध्ययन करे और इसकी तुलना में अपनी वह हैसियत समझे, जो एक बंदे की अपने मालिक के हुक्म की तुलना में होती है। जब बंदा अपने ज़हन को साफ़ करके क़ुरआन को सुनने-समझने वाला बनाता है तो ईश्वर उसकी ओर ध्यान देता है और क़ुरआन के अर्थ उसके ज़हन में उतरते चले जाते हैं, जैसे सूखी ज़मीन में बारिश हो और बूँद-बूँद करके उसमें समाती चली जाए। उसे सत्य जहाँ और जिस रूप में मिलेगा, वह इसे ले लेगा और इससे लिपट जाएगा।