क़ुरआन में ईश्वर के नेक बंदों के इस गुण का वर्णन किया गया है कि जब उन्हें ग़ुस्सा आता है तो वे माफ़ कर देते हैं (42:37)। पैग़ंबर-ए-इस्लाम ने अपने अनुयायियों को यह हुक्म दिया कि जो तुम्हारे साथ बुरा व्यवहार करे, तुम उससे अच्छा व्यवहार करो। दूसरे शब्दों में, आदमी को दूसरे से बुराई मिले, तब भी वह दूसरों को भलाई लौटाए। उसे जब उत्तेजित (provoke) किया जाए, तब भी वह उत्तेजित न हो।
यह उच्च नैतिकता ठीक वही है, जिसका उदाहरणात्मक नमूना ईश्वर ने पेड़ के रूप में भौतिक संसार में स्थापित किया हुआ है। इंसान और पेड़, दोनों एक ही दुनिया में एक-दूसरे के आसपास रहते हैं। इंसान का तरीक़ा यह है कि जब वह साँस लेता है तो वह वातावरण से ऑक्सीजन लेता है और अपने अंदर से कार्बन डाइऑक्सइड (carbon dioxide) बाहर निकालता है।
अगर पेड़ भी यही करें तो हमारी दुनिया हानिकारक गैस से भर जाए और रहने के योग्य न रहे, लेकिन पेड़ इंसान के बिल्कुल विपरीत मामला करता है। पेड़ बाहर से कार्बन डाईऑक्साइड ले लेता है और अपने अंदर से ऑक्सीजन निकालकर वातावरण में शामिल करता है, जो इंसान और अन्य जीव-जंतुओं के लिए बहुत ही ज़रूरी है।
क़ुरआन जिस नैतिकता की माँग इंसान से करता है, उसका एक मॉडल उसने पेड़ की दुनिया में व्यावहारिक रूप से स्थापित की हुई है। यह नैतिकता, जो पेड़ की दुनिया में भौतिक स्तर पर स्थापित है, उसी को इंसान अपनी ज़िंदगी में जागरूक स्तर पर अपनाता है। जो नैतिक कसौटी ईश्वर ने बाक़ी दुनिया में सीधे तौर पर अपने बल पर स्थापित कर रखी है, उसी नैतिक कसौटी को इंसानी दुनिया में ख़ुद इंसान को अपने इरादे से स्थापित करना है, ताकि ईसा मसीह के शब्दों में, “ईश्वर की मर्ज़ी जिस तरह आसमान पर पूरी होती है, उसी तरह ज़मीन पर भी पूरी हो।”
वह नैतिकता यह है कि दूसरे आदमी से अगर आपको नफ़रत मिले, तब भी आप उसे मुहब्बत लौटाएँ। दूसरे से आपको तकलीफ़ पहुँचे तो आप उसे अपनी तरफ़ से आराम पहुँचाने की कोशिश करें। लोग आपको ग़ुस्सा दिलाएँ तो आप उन्हें माफ़ कर दें। लोग नकारात्मक व्यवहार का प्रदर्शन करें, तब भी आप सकारात्मक व्यवहार से उनका जवाब दें। आपकी नैतिकता यह नहीं होनी चाहिए कि आप कार्बन देने वाले को कार्बन दें, बल्कि आपकी नैतिकता यह होनी चाहिए कि जो आदमी आपको कार्बन दे, उसे भी आपकी ओर से ऑक्सीजन मिले।