धर्म के निमंत्रण का काम बहुत ही मुश्किल काम है, मगर ईश्वर ने अपनी विशिष्ट कृपा से इसे हमारे लिए आसान बना दिया है। इस मक़सद के लिए ईश्वर ने मानव इतिहास में ऐसे परिवर्तन किए, जिससे हमारे लिए नए अवसर खुल गए। मौजूदा दौर में यह ऐतिहासिक काम अपनी अंतिम सीमा को पहुँच गया है, यहाँ तक कि अब यह संभव हो गया है कि जो काम पहले ‘ख़ून’ के द्वारा करना पड़ता था, उसे अब क़लम की स्याही के द्वारा अंजाम दिया जा सके।
इस काम को आसान करने के तीन ख़ास पहलू हैं, जिनकी ओर क़ुरआन में इशारे किए गए हैं—
(1) क़ुरआन में ईमान वालों को यह दुआ बताई गई— “हे ईश्वर ! हम पर वह बोझ न डाल, जो तूने पिछली क़ौमों पर डाला था।”
अगर शब्द बदलकर इस आयत की व्याख्या की जाए तो यह कहा जा सकता है कि इसका मतलब यह है कि एकेश्वरवाद के निमंत्रण का जो काम पिछले निमंत्रणकर्ताओं को, विचारों के प्रतिबंध के वातावरण में करना पड़ता था, उसे हमें विचारों की स्वतंत्रता के वातावरण में करने का अवसर प्रदान करे। पिछले ज़माने में यह हालत थी कि एकेश्वरवाद की घोषणा करने वाले को पत्थर मारे जाते। उसे आग में डाल दिया जाता। उसके शरीर को चीर दिया जाता। इसका कारण यह था कि पिछले ज़माने में हुकूमत की बुनियाद अनेकेश्वरवाद पर क़ायम थी। पिछले ज़माने के राजा काल्पनिक देवताओं के प्रतिनिधि बनकर शासन करते थे, इसलिए जब कोई आदमी अनेकेश्वरवाद को बेबुनियाद क़रार देता तो उस ज़माने के राजाओं को महसूस होता कि उस दृष्टिकोण का आधार समाप्त हो रहा है, जिस पर उन्होंने अपने शासन को स्थापित किया हुआ है।
पैग़ंबर-ए-इस्लाम के द्वारा जो क्रांति आई, उसने अनेकेश्वरवाद की सामूहिक हैसियत को ख़त्म करके उसे एक व्यक्तिगत आस्था बना दिया। अब अनेकेश्वरवाद अलग हो गया और राजनीतिक संस्था अलग। इस तरह वह दौर ख़त्म हो गया, जबकि अनेकेश्वरवाद लोगों के लिए एकेश्वरवाद की घोषणा की राह में रुकावट बन सके। यही वह बात है, जिसका क़ुरआन में इन शब्दों में वर्णन है— “और उनसे लड़ो, यहाँ तक कि फ़ितना ख़त्म हो जाए और दीन सारा-का-सारा ईश्वर के लिए हो जाए।”
इस सिलसिले में दूसरी बात यह है कि इस्लाम ने जब अंधविश्वास और दिव्य व्यक्तित्व की विचारधारा का अंत किया तो वंशीय राजशाही की बुनियाद भी हिल गई। इसलिए मानव इतिहास में एक नया दौर शुरू हुआ, जो आख़िरकार यूरोप पहुँचकर लोकतंत्र (democracy) के रूप में पूरा हुआ। इसके बाद व्यक्तिगत शासन के स्थान पर प्रजातांत्रिक शासन का नियम दुनिया में प्रचलित हुआ और वैचारिक स्वतंत्रता (ideological freedom) को हर आदमी का पवित्र अधिकार स्वीकार कर लिया गया। इस वैश्विक वैचारिक क्रांति ने सत्य के निमंत्रणकर्ताओं के लिए यह बड़ी संभावना खोल दी कि वे अनावश्यक बाधाओं से निडर होकर पूरी दुनिया में सत्य के ऐलान के काम को अंजाम दे सकें।
(2) क़ुरआन में यह घोषणा की गई है— “हम बहुत जल्द ही क्षितिज (horizon) में और इंसानों के अंदर ऐसी निशानियाँ दिखाएँगे, जिससे खुल जाए कि यह सत्य है।” (41:53)
क़ुरआन की इस आयत में उस क्रांति की ओर इशारा है, जिसे आधुनिक वैज्ञानिक क्रांति कहा जाता है।
कायनात अपने पूरे अस्तित्व के साथ ईश्वर का प्रमाण है। सारी रचनाएँ अपने रचयिता के गुणों को प्रदर्शित कर रही हैं, जैसे कायनात क़ुरआन का प्रमाण है। फिर भी यह प्रमाण वैज्ञानिक क्रांति से पहले बड़ी हद तक अनदेखी हालत में पड़ा हुआ था। इस खोज के लिए ज़रूरी था कि चीज़ों की गहराई के साथ जाँच-पड़ताल की जाए, लेकिन, अनेकेश्वरवाद की आस्था इस जाँच-पड़ताल की राह में रुकावट थी। अनेकेश्वरवादी इंसान कायनात के प्रदर्शन को पूजने की चीज़ समझे हुए था, फिर वह इसे जाँच-पड़ताल की चीज़ कैसे बनाता।
एकेश्वरवाद की सार्वजनिक क्रांति ने इस रुकावट को ख़त्म कर दिया। इस्लामी क्रांति के बाद कायनात की पावनता का विचार ख़त्म हो गया। अब कायनात के प्राकृतिक प्रदर्शन पर स्वतंत्रतापूर्वक चिंतन-मनन शुरू हो गया। यह काम शताब्दियों तक विश्व स्तर पर जारी रहा, यहाँ तक कि आख़िरकर वह यूरोप पहुँच गया। यूरोप में उसे अनुकूल धरातल मिला। यहाँ उसने तेज़ी से तरक़्क़ी की, जिसके परिणामस्वरूप यहाँ वह महान क्रांति हुई, जिसे मौजूदा दौर में ‘वैज्ञानिक क्रांति’ कहा जाता है।
वैज्ञानिक खोजों के द्वारा कायनात की जो हक़ीक़त मालूम हुई है, वह क़ुरआन के निमंत्रण को निश्चितता के स्तर पर साबित कर रही है। लेखक ने अपनी किताब ‘मज़हब और जदीद चैलेंज’ में इसका विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। जो लोग ज़्यादा जानकारी के इच्छुक हों, वे इस किताब का अध्ययन करें।
(3) इस सिलसिले में तीसरी चीज़ वह है, जिसकी ओर क़ुरआन की इस आयत में इशारा किया गया है—
“क़रीब है, ईश्वर तुम्हें एक मक़ाम-ए-महमूद पर खड़ा करे।”(17:79)
महमूद का मतलब है ‘प्रशंसा किया हुआ’। प्रशंसा दरअसल मानने और स्वीकार करने का अंतिम रूप है। किसी को मानने वाला जब उसे मानने की अंतिम सीमा पर पहुँचता है तो वह उसकी प्रशंसा करने लगता है। इस दृष्टि से इसका मतलब यह होगा कि ईश्वर की योजना यह थी कि पैग़ंबर-ए-इस्लाम को स्वीकार्य पैग़ंबरी के स्थान पर खड़ा करे। पैग़ंबर-ए-इस्लाम दुनिया में भी प्रशंसित थे और परलोक में भी प्रशंसित। ‘शफ़ाअते-क़ुब्रा’, जिसका वर्णन हदीस में है, वह परलोक में आपका मक़ाम-ए-महमूद है और आपका ऐतिहासिक रूप से प्रमाणित व स्वीकार्य होना दुनिया में आपका मक़ाम-ए-महमूद है।
ईश्वर की ओर से हर दौर में और हर क़ौम में पैग़ंबर आए। यह सब सच्चे पैग़ंबर थे। इन सबका संदेश भी एक था, लेकिन विभिन्न कारणों से इन पैग़ंबरों को ऐतिहासिक हैसियत प्राप्त न हो सकी। ऐतिहासिक रिकॉर्ड के अनुसार आज के इंसान के लिए उन पैग़ंबरों की हैसियत विवादित पैग़ंबरीकी है, न कि मान्य पैग़ंबरी की। पैग़ंबर-ए-इस्लाम की पैग़ंबरी ऐतिहासिक रूप से एक प्रमाणित पैग़ंबरी है, जबकि दूसरे पैग़ंबरों की पैग़ंबरी ऐतिहासिक रूप से प्रमाणित नहीं। इस आधार पर आज यह सभंव हो गया है कि हम प्रमाणित (established) पैग़ंबरी की सतह पर दीन का निमंत्रण दे सकें, जबकि इससे पहले हमेशा विवादग्रस्त पैग़ंबरी की सतह पर दीन का निमंत्रण देना पड़ता था।
डॉक्टर निशिकांत चट्टोपाध्याय भारत के एक उच्च शिक्षित हिंदू थे। वह उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में हैदराबाद में पैदा हुए। डॉक्टर चट्टोपाध्याय को सच की तलाश हुई। इस उद्देश्य से उन्होंने हिंदी, अंग्रेज़ी, जर्मन, फ्रेंच आदि भाषाएँ सीखीं। उन्होंने सभी धर्मों का अध्ययन किया, लेकिन वे किसी से संतुष्ट न हो सके। इसका एक बड़ा कारण यह था कि उन्होंने पाया कि यह समस्त धर्म ऐतिहासिक मापदंड पर साबित नहीं होते, फिर किस तरह उनकी वास्तविकता पर विश्वास किया जाए और उनको प्रामाणिक समझा जाए।
अंत में उन्होंने इस्लाम धर्म का अध्ययन किया। वे यह देखकर हैरान रह गए कि इस्लाम की शिक्षाएँ आज भी अपने मूल रूप में पूरी तरह सुरक्षित हैं। इस्लाम के आदर्श चरित्र पूरी तरह से ऐतिहासिक हैं, न कि मिथक (काल्पनिक) व्यक्तित्व। वे लिखते हैं— “मैंने पाया कि पैग़ंबर-ए-इस्लाम की ज़िंदगी में कोई चीज़ अस्पष्ट व धुँधली नहीं और न ही रहस्यमय या मिथक (mythological) है, जैसा कि उदाहरण के रूप में— ज़रथुश्त्र और श्रीकृष्ण के यहाँ, यहाँ तक कि बुद्ध और ईसा मसीह के यहाँ है। दूसरे पैग़ंबरों के अस्तित्व तक के बारे में विद्वानों ने शक किया है, यहाँ तक कि इनकार किया है, लेकिन जहाँ तक मैं जानता हूँ कि पैग़ंबर-ए-इस्लाम के बारे में कोई यह साहस न कर सका कि उन्हें अंधविश्वासी आस्था या परियों की कहानी कह सके।”
इसके बाद डॉक्टर निशिकांत चट्टोपाध्याय कहते हैं—
“Oh, what a relief to find, after all, a truly historical Prophet to beleive in.”
Why have I accepted Islam, Dr Nishikant Chattopadhyay.
“आह ! कितनी राहत मिली! आख़िरकार एक ऐसा पैग़ंबर पाकर जो सही मायनों में ऐतिहासिक है जिस पर इंसान यक़ीन कर सके”
यही वह चीज़ है, जिसे क़ुरआन में मक़ाम-ए-महमूद कहा गया है (17:79)। ऐतिहासिक पैग़ंबरी का ही दूसरा नाम नबूवत-ए-महमूदी है। आख़िरी पैग़ंबर हज़रत मुहम्मद को मक़ाम-ए-महमूद पर खड़ा करने का मतलब यह है कि आप दूसरे पैग़ंबरों की तरह ऐतिहासिक रूप से अज्ञात व्यक्तित्व या अप्रामाणिक व्यक्तित्व नहीं होंगे, बल्कि आप सारे इंसानों के लिए पूरी तरह से एक ज्ञात और स्वीकृत व्यक्तित्व होंगे। आपका जीवन-चरित्र भी एक सुरक्षित जीवन-चरित्र होगा और आपकी शिक्षा भी एक सुरक्षित शिक्षा।
यह इस्लाम के निमंत्रणकर्ताओं के लिए मौजूदा दौर में बहुत बड़ा फ़ायदा है। इसका मतलब यह है कि निमंत्रण के क्षेत्र में वे बिना मुक़ाबले के सफलता प्राप्त करने की स्थिति में हैं।
इंसान पैदाइशी तौर पर अपने स्वभाव में ईश्वर की चाह, लेकर पैदा होता है। इसलिए उसे सच्चाई की तलाश होती है। वह मानवीय विद्याओं में अपनी माँग का जवाब खोजना चाहता है, लेकिन वह खोज नहीं पाता। फिर वह धर्मों का अध्ययन करता है तो पाता है कि मौजूदा सभी धर्म ऐतिहासिक रूप से असुरक्षित हैं। उन्हें ऐतिहासिक विश्वसनीयता (historical credibility) का दर्जा प्राप्त नहीं। यहाँ हम इस स्थिति में हैं कि इंसान से कह सकें कि तुम जिस चीज़ की तलाश में हो, वह सुरक्षित और प्रामाणिक स्थिति में हमारे पास मौजूद है। दूसरों के पास केवल ग़ैर-ऐतिहासिक पैग़ंबर हैं, जिन्हें वे दुनिया के सामने प्रस्तुत करें, मगर इस्लाम का पैग़ंबर पूरी तरह एक ऐतिहासिक पैग़ंबर है। इतिहास की प्रामाणिक कसौटी के अनुसार आपके बारे में किसी तरह का शक करने की गुंजाइश नहीं। दूसरों के पास विवादग्रस्त पैग़ंबरी है और इस्लाम के पास प्रामाणिक पैग़ंबरी। यह ईश्वर की बहुत बड़ी कृपा है। उसने संभव बना दिया है कि ईश्वर के दीन का निमंत्रण आज प्रामाणिक पैग़ंबरी की सतह पर दिया जाए, जबकि इससे पहले वह केवल विवादित पैग़ंबरी की सतह दिया जा सकता था।