आधुनिक काल में इस्लाम का पुनर्जागरण
मौजूदा ज़माने में इतिहास दोबारा वही पहुँच गया है, जहाँ वह डेढ़ हज़ार वर्ष पहले के दौर में पहुँचा था। प्राचीनकाल में इंसान पर अनेकेश्वरवाद का प्रभाव इस तरह पड़ा कि इतिहास में उसकी निरंतरता स्थापित हो गई और हालत यहाँ तक पहुँची कि हर आदमी जो इंसानी नस्ल में पैदा होता, वह अनेकेश्वरवादी होता। अब पिछले कुछ सौ वर्षों के अमल के परिणामस्वरूप नास्तिकतावादी विचार (atheistic views) इंसान पर प्रभावशाली हो गए हैं। ज्ञान एवं व्यवहार के हर विभाग में नास्तिकतावादी विचार-शैली इस तरह छा गई है कि दोबारा मानव इतिहास में नास्तिकता की निरंतरता स्थापित हो गई है। अब हर आदमी, जो पैदा होता है, चाहे वह दुनिया के किसी भी हिस्से में पैदा हो, वह नास्तिकतावादी विचारों के प्रभाव में पैदा होता है। नास्तिकता आज का प्रभावशाली धर्म है और इस्लाम का पुनर्जागरण (renaissance) मौजूदा दौर में उस समय तक संभव नहीं, जब तक नास्तिकता को वैचारिक प्रभुत्व (conceptual dominance) के स्थान से हटाया न जाए।
मौजूदा ज़माने में इस्लाम के पुनर्जागरण को संभव बनाने के लिए दोबारा वही दोनों तरीक़े अपनाने हैं, जो पहले प्रभुत्व के समय अपनाए गए थे यानी लोगों की तैयारी और सत्य के विरोधियों की हार।
पहला काम हमें ख़ुद अपने संसाधनों के तहत अंजाम देना है। जहाँ तक दूसरे काम का मामला है, उसे मौजूदा ज़माने में दोबारा ईश्वर ने उसी तरह बहुत बड़े पैमाने पर अंजाम दे दिया है, जिस तरह उसने पहले दौर में अंजाम दिया था। ज़रूरत सिर्फ़ यह है कि इन पैदा हो चुके अवसरों को इस्तेमाल किया जाए।
(1) मौजूदा ज़माने में इस्लाम के पुनर्जागरण की मुहिम को कामयाब बनाने के लिए सबसे पहले काम करने वाले लोगों की ज़रूरत है मानो अब दोबारा एक नए अंदाज़ में उसी चीज़़ की ज़रूरत है, जिसकी हज़रत इब्राहीम की योजना में ज़रूरत थी यानी सही मायनों में एक मुस्लिम गिरोह की तैयारी।
मौजूदा ज़माने में इस्लामी पुनर्जागरण की मुहिम चलाने के लिए जिन लोगों की ज़रूरत है, वे साधारण मुसलमान नहीं हैं; बल्कि ऐसे लोग हैं, जिनके लिए इस्लाम एक खोज (discovery) बन गया हो। वह घटना, जो किसी इंसान को सबसे ज़्यादा एक्टिव करती है, वह इसी खोज की घटना है। जब आदमी किसी चीज़ को खोज के दर्जे में पाए तो अचानक उसके अंदर एक नई शख़्सियत उभर आती है। विश्वास, साहस, संकल्प, मर्दानगी, उदारता, क़ुर्बानी, एकता— मतलब यह कि वह सभी गुण, जो कोई बड़ा काम करने के लिए ज़रूरी हैं, वह सब, खोज की बुनियाद पर पैदा होते हैं।
मौजूदा ज़माने में पश्चिमी क़ौमों में जो उच्च गुण पाए जाते हैं, वह सब, इसी खोज का नतीजा हैं। पश्चिमी क़ौमों ने पारंपरिक संसार की तुलना में वैज्ञानिक दुनिया की खोज की है। यही वह खोज का अहसास है, जिसने पश्चिमी क़ौमों में वह उच्च गुण पैदा कर दिए हैं, जो आज उनके अंदर पाए जाते हैं।
शुरुआती दौर में हज़रत मुहम्मद के साथियों का मामला भी यही था। उन्हें ईश्वरीय धर्म खोज के रूप में मिला था। उन्होंने अज्ञानता की तुलना में इस्लाम धर्म को पाया था। उन्होंने अनेकेश्वरवाद की तुलना में एकेश्वरवाद को खोज के रूप में पाया था। उन पर संसार की तुलना में परलोक का प्रकटन हुआ था। यही चीज़ थी, जिसने उनके अंदर वह असाधारण गुण पैदा कर दिए, जिन्हें आज हम किताबों में पढ़ते हैं। आज अगर इस्लामी पुनर्जागरण की मुहिम को प्रभावी रूप से चलाना है तो दोबारा ऐसे इंसान पैदा करने होंगे, जिन्हें इस्लाम खोज के रूप में मिला हो, न कि केवल नस्ली विरासत के रूप में।
(2) इस्लाम चौदह सौ वर्ष पहले शुरू हुआ। उसके बाद इसका एक इतिहास बना— सांस्कृतिक महानता और राजनीतिक विजय-प्राप्ति का इतिहास। आज जो लोग अपने आपको मुसलमान कहते हैं, वे इसी इतिहास के किनारे खड़े हुए हैं। जिस क़ौम की भी यह हालत हो, वह हमेशा नज़दीकी इतिहास में अटककर रह जाती है। वह इतिहास से गुज़रकर शुरुआती असलियत तक नहीं पहुँचती। यही मामला आज मुसलमानों का है। मौजूदा ज़माने के मुसलमान विवेकी या अविकेकी रूप से अपना धर्म इतिहास से ले रहे हैं, न कि वास्तविकता में क़ुरआन और सुन्नते-रसूल से।
यही कारण है कि इस्लाम आज के मुसलमानों के लिए गर्व की चीज़ बना हुआ है, न कि ज़िम्मेदारी की चीज़। उनके विचारों और व्यवहारों में यह मानसिकता इस तरह बस गई है कि हर जगह इसका अवलोकन किया जा सकता है। इस्लाम को क़ुरआन और सुन्नत में देखिए तो वह सरासर ज़िम्मेदारी की चीज़ नज़र आएगा। इसके विपरीत इस्लाम को जब उसके सांस्कृतिक इतिहास और राजनीतिक घटनाओं के आईने में देखा जाएगा तो वह गर्व और महानता की चीज़ मालूम होने लगता है। वर्तमान दौर में मुसलमानों के सारे क्रांतिकारी आंदोलन इसी गर्व की भावना के अधीन उठे। यही कारण है कि वे वक़्ती हंगामे पैदा करके ख़त्म हो गए, क्योंकि, गर्व की भावना पाखंड और हंगामे की ओर ले जाती है और ज़िम्मेदारी की भावना हक़ीक़त और गंभीर व्यवहार की ओर।
इस्लामी पुनर्जागरण की मुहिम को प्रभावी रूप से चलाने के लिए वह लोग चाहिए, जिन्होंने इस्लाम को कु़रआन और हदीस की शुरुआती शिक्षाओं से हासिल किया हो, न कि बाद में बनने वाले सांस्कृतिक और राजनीतिक इतिहास से। क़ुरआन और हदीस से धर्म को हासिल करने वाले लोग ही गंभीरता और ज़िम्मेदारी की भावना के तहत कोई सच्ची मुहिम चला सकते हैं। इसके विपरीत जो लोग इतिहास से अपना धर्म हासिल करें, वे केवल अपने गर्व का झंडा बुलंद करेंगे, वे किसी परिणामजनक कार्यविधि (result oriented action) का सबूत नहीं दे सकते।
मौजूदा ज़माने में मुसलमान एक हारी हुई क़ौम बने हुए हैं। पूरी मुस्लिम दुनिया इस अहसास में जी रही है कि उस पर ज़ुल्म हो रहा है (persecution complex)। इसका कारण इतिहास से धर्म को लेना है। हमने ऐतिहासिक महानता को धर्म समझा। हमने ‘लालक़िला’ और ‘ग्रेनाडा’ में अपनी इस्लामियत की पहचान की खोज की। चूँकि मौजूदा ज़माने में दूसरी क़ौमों ने हमसे यह चीज़ें छीन लीं, इसलिए हम फ़रियाद और ग़म में लीन हो गए। अगर हम ईश्वर के मार्गदर्शन को धर्म समझते तो हम कभी निराशा की अनुभूति का शिकार न होते, क्योंकि वह ऐसी चीज़ है, जिसे कोई ताक़त हमसे कभी छीन नहीं सकती। हमने छिन जाने वाली चीज़ों को इस्लाम समझा, इसलिए जब वह छिन गईं तो हम शिकायत और निराशा की आकृति बनकर रह गए। अगर हम न छिनने वाली चीज़ों को इस्लाम समझते तो हमारा कभी वह हाल न होता, जो आज हर ओर नज़र आ रहा है। कैसी अजीब बात है कि जो ज़्यादा बड़ी चीज़ हमारे पास अभी तक बिना छिनी हुई सुरक्षित है, उसकी हमें समझ नहीं और जो छोटी चीज़ हमसे छिन गई है, उसके लिए हम शिकायत और विरोध में व्यस्त हैं।
इसी का यह नतीजा है कि पूरी दुनिया में मुसलमान दूसरी क़ौमों से लड़ाई-झगड़े में व्यस्त हैं। वे इस्लाम को अपनी क़ौमी महानता का निशान समझते हैं, इसलिए जो लोग उन्हें इस महानता को छीनते हुए नज़र आते हैं, उनके ख़िलाफ़ वे लड़ने के लिए खड़े हो गए हैं। कहीं यह लड़ाई शब्दों के द्वारा हो रही है और कहीं हथियारों के द्वारा। इस परिस्थिति ने मुसलमानों के पूरे रवैय्ये को नकारात्मक बना दिया है। इस्लाम अगर उन्हें ईश्वरीय मार्गदर्शन के रूप में मिलता तो वे महसूस करते कि उनके पास दूसरी क़ौमों को देने के लिए कोई चीज़ है। वे अपने को देने वाला समझते और दूसरे को लेने वाला। जबकि मौजूदा हालात में वे समझते हैं कि वे छिने हुए लोग हैं और दूसरे छीनने वाले लोग। हमारे और दूसरी क़ौमों के बीच सच्चा संबंध निमंत्रणकर्ता और निमंत्रित का है, लेकिन ऐतिहासिक इस्लाम को इस्लाम समझने का यह नतीजा हुआ है कि दूसरी क़ौमें हमारे लिए केवल प्रतिद्वंद्वी और दुश्मन बनकर रह गई हैं। हमारे और दूसरी क़ौमों के बीच जब तक यह प्रतिद्वंद्विता का माहौल बाक़ी है, इस्लामी पुनर्जागरण का कोई सच्चा काम शुरू नहीं किया जा सकता।
पहले ही पड़ाव में ऐसा नहीं हो सकता कि सभी मुसलमानों को प्रतिद्वंद्वितावादी मानसिकता से मुक्त कर दिया जाए, लेकिन कम-से-कम एक ऐसी टीम का होना ज़रूरी है, जिसके लोग अपनी सीमा तक इस ज़हनी माहौल से निकल चुके हों। जिनके अंदर ऐसा वैचारिक परिवर्तन (ideological change) आ चुका हो कि वे दूसरी क़ौमों को अपना निमंत्रित समझें, न कि भौतिक प्रतिद्वंद्वी और क़ौमी दुश्मन। यह देखने में साधारण-सी बात बड़ी मुश्किल बात है। इसके लिए अपने आपको क़ुर्बान करना पड़ता है। अपने और दूसरी क़ौमों के बीच निमंत्रणकर्ता और निमंत्रित का संबंध स्थापित करने की अनिवार्य शर्त यह है कि हम एकतरफ़ा तौर पर सारी शिकायतों को भुला दें। हर तरह की भौतिक हानियों को सहन करने के लिए तैयार हो जाएँ। निमंत्रणकर्ता और निमंत्रित का संबंध निमंत्रणकर्ता की ओर से एकतरफ़ा क़ुर्बानी पर स्थापित होता है और मौजूदा दुनिया में नि:संदेह यह सबसे ज़्यादा मुश्किल काम है।
पहले दौर में इस्लामी क्रांति को संभव बनाने के लिए ईश्वर ने एक ख़ास इंतज़ाम यह किया कि ईरान और रोम के साम्राज्य, जो उस ज़माने में एकेश्वरवादी धर्म के सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी थे, उन्हें आपस में टकराकर इतना कमज़ोर कर दिया कि मुसलमानों के लिए उन्हें हराना बड़ा आसान हो गया।
ईश्वर की यही मदद मौजूदा ज़माने के मुसलमानों के लिए एक और रूप में सामने आई है और वह है कायनात के बारे में ऐसी जानकारियों का सामने आना, जो धार्मिक सच्चाइयों को चमत्कारिक स्तर पर साबित कर रही हैं। प्राचीनकाल में अंधविश्वासी विचार-शैली का वर्चस्व था, इस आधार पर कायनाती दुनिया के बारे में इंसान ने अजीब-अजीब आधारहीन मत स्थापित कर रखे थे। ब्रह्मांड को क़ुरआन में ‘आला-ए-रब’ यानी ‘ईश्वर का चमत्कार’ कहा गया है, लेकिन यह ईश्वरीय चमत्कार अंधविश्वासी पर्दे में छुपा हुआ था।
पहले दौर की इस्लामी क्रांति के नतीजों में से एक नतीजा यह है कि प्रकृति के प्रदर्शन, जो इससे पहले इबादत का विषय बने हुए थे, वह इंसान के लिए खोज और विजय का विषय बन गए। इस तरह मानव इतिहास में पहली बार प्रकृति की घटनाओं को शुद्ध ज्ञानात्मक (वैज्ञानिक) शैली में जानने का विचार पैदा हुआ। यह विचार लगातार बढ़ता रहा, यहाँ तक कि वह यूरोप पहुँचा। यहाँ तरक़्क़ी पाकर वह उस क्रांति का कारण बना, जिसे वर्तमान युग में ‘वैज्ञानिक क्रांति’ कहा जाता है।
विज्ञान ने जैसे अंधविश्वासी पर्दे को हटाकर ईश्वर के चमत्कार का ईश्वरीय चमत्कार होना साबित कर दिया। उसने प्रकृति के प्रदर्शन को ‘पूज्य’ के स्थान से हटाकर ‘रचना’ के स्थान पर रख दिया, यहाँ तक कि स्थिति ऐसी हो गई कि चाँद, जिसकी प्राचीनकाल में इंसान ईश्वर समझकर पूजा करता था, उस पर उसने अपने पाँव रख दिए और वहाँ अपनी मशीनें उतार दीं। यह एक सच्चाई है कि विज्ञान ने जो नए तर्क अर्जित किए हैं, उन्हें उचित रूप में प्रयोग किया जाए तो एकेश्वरवादी धर्म के निमंत्रण को उस उच्च स्तर पर प्रस्तुत किया जा सकता है, जिसके लिए इससे पहले चमत्कारों को प्रकट किया जाता था।
ज़मीन और आसमान में जो चीज़ें हैं, वह इसलिए हैं कि उन्हें देखकर आदमी ईश्वर को याद करे, लेकिन इंसान ने ख़ुद उन्हीं चीज़ों को ईश्वर समझ लिया। यह एक तरह की अवहेलना (disregard) थी। इसी तरह की अवहेलना मौजूदा ज़माने में विज्ञान की जानकारियों के बारे में सामने आ रही है। वैज्ञानिक खोजों से जो सच्चाइयाँ सामने आई हैं, वह सब ईश्वर के ईश्वरत्व का सबूत हैं। वह इंसान को ईश्वर की याद दिलाने वाली हैं, लेकिन मौजूदा ज़माने के नास्तिक विचारकों ने दोबारा एक अवहेलना की। उन्होंने विज्ञान की सच्चाई को ग़लत दिशा देकर यह किया कि जिस चीज़ से ईश्वर का सबूत निकल रहा था, उसे इन्होंने इस बात का सबूत बना दिया कि यहाँ कोई ईश्वर नहीं है, बल्कि सारी व्यवस्था एक यांत्रिक क्रिया (mechanical action) के तहत अपने आप हो रही है।
विज्ञान ने जिस कायनात की जो छानबीन की है, वह एक आख़िरी हद तक अर्थपूर्ण और उद्देश्यपूर्ण कायनात है। आधुनिक खोजों ने साबित किया है कि हमारी दुनिया अव्यवस्थित तत्त्व का अर्थहीन अंबार नहीं है, बल्कि वह ऊँचे दर्जे का एक व्यवस्थित कारख़ाना है। दुनिया की सभी चीज़ें बहुत ज़्यादा समानता के साथ एक ऐसी दिशा की ओर यात्रा करती हैं, जो हमेशा उद्देश्यपूर्ण नतीजों को पैदा करने वाली हों। कायनात में व्यवस्था और उद्देश्यात्मकता की खोज स्पष्ट रूप से व्यवस्थापक की मौजूदगी का पता देती है। वह कायनात के पीछे ईश्वरीय कारीगरी का पक्का सबूत है, लेकिन वर्तमान युग के नास्तिक विचारकों (atheist thinkers) ने यह किया कि इस वैज्ञानिक खोज की दिशा नास्तिकता की ओर मोड़ दी। उन्होंने कहा कि जो कुछ साबित हुआ है, वह बजाय ख़ुद घटना है, लेकिन इसका क्या सबूत कि वह कोई नतीजा (end) है। यह संभव है कि वह केवल एक प्रभाव (effect) हो यानी यह ज़रूरी नहीं है कि यहाँ कोई ज़हन हो, जो समझदारी और इरादे के तहत जानबूझकर घटनाओं को एक ख़ास अंजाम की ओर ले जा रहा हो। ऐसा भी हो सकता है कि घटनाओं की बुद्धिहीन क्रियाओं के प्रभाव से अपने आप चीज़ें अस्तित्व में आई हैं, जो संयोग से अर्थपूर्ण भी हो— यह अर्थहीन व्याख्या ख़ुद एक इरादे के तहत वजूद में आई है। फिर कितनी अजीब बात है कि अर्थपूर्ण कायनात को बिना इरादे की कारीगरी मान लिया जाए।
एक ओर विज्ञान के ज़ाहिर होने के बाद नास्तिक विचारकों ने बहुत बड़े पैमाने पर विज्ञान को नास्तिकता की दिशा देने की कोशिश की है। दूसरी ओर इसकी तुलना में धार्मिक विचारकों (religious thinkers) की कोशिशें इतनी ही कम हैं। पिछले सौ वर्ष के अंदर एक ओर हज़ारों की संख्या में उच्च ज्ञानात्मक पुस्तकें छपी हैं, जिनके द्वारा विज्ञान से ग़लत रूप से नास्तिकता को बरामद करने की कोशिश की गई है। दूसरी ओर धार्मिक विचारकों की पंक्ति में कुछ ही वर्णन योग्य ज्ञानात्मक कोशिशों का नाम लिया जा सकता है। इनमें से एक क़ीमती किताब सर जेम्स जींज़ की ‘द मिस्टीरियस यूनिवर्स’ (The Mysterious Universe) है। इस किताब में योग्य लेखक ने ‘कार्यकारणता के सिद्धांत’ (principles of causation) को शुद्ध वैज्ञानिक प्रामाणिकता के द्वारा ध्वस्त (demolished) कर दिया है, जिसे मौजूदा ज़माने में ईश्वर का मशीनी बदल समझ लिया गया था।
बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध के आख़िर में अनगिनत नई हक़ीक़तें इंसान के ज्ञान में आई हैं, जो बहुत ही उच्च स्तर पर धार्मिक विश्वासों की सच्चाई को साबित कर रही हैं, लेकिन अभी तक कोई ऐसा धार्मिक विचारक सामने नहीं आया, जो इन वैज्ञानिक जानकारियों को धार्मिक सच्चाइयों के सबूतों के तौर पर संकलित करे। अगर यह काम उच्च स्तर पर हो सके तो वह एकेश्वरवाद के निमंत्रण के पक्ष में एक ज्ञानात्मक चमत्कार प्रकट करने के अर्थ के समान होगा।
क़ुरआन से मालूम होता है कि अतीत में जितने पैग़ंबर आए, सबकी पैग़ंबरी पर उनके समय में लोगों ने संदेह किया (11:62)। पैग़ंबर-ए-इस्लाम के साथ भी शुरुआत में यही स्थिति सामने आई कि पहले जिन लोगों को हज़रत मुहम्मद ने संबोधित किया, उन लोगों ने आपकी पैग़ंबरी पर संदेह किया (क़ुरआन, 38:8)। हालाँकि इसी के साथ क़ुरआन में यह ऐलान किया गया कि आपको ‘मक़ाम-ए-महमूद’ यानी ‘प्रशंसित स्थान’ पर खड़ा किया जाएगा। इस ऐलान का मतलब यह था कि आपकी पैग़ंबरी शक के पड़ाव से गुज़रकर एक ऐसे पड़ाव पर पहुँचेगी, जब वह पूरी तरह से स्वीकृत पैग़ंबरी बन जाए। महमूद (तारीफ़ के लायक़) होना स्वीकार करने का आख़िरी दर्जा है।
हर पैग़ंबर जब निमंत्रण देना शुरू करता है तो वह अपनी क़ौम के अंदर एक ऐसी शख़्सियत होता है, जिसे लोग शक की नज़र से देखते हैं। “मालूम नहीं कि यह वास्तविक पैग़ंबर हैं या केवल दावा कर रहे हैं”— इस तरह के विचार लोगों के ज़हन में घूमते हैं और अंतिम समय तक ख़त्म नहीं हो पाते। पैग़ंबरी अपने शुरुआती दौर में सिर्फ़ दावा होती है। वह अपने दावे का ऐसा सबूत नहीं होती, जिसे मानने के लिए लोग मजबूर हो जाएँ।
यही कारण है कि जब भी कोई पैग़ंबर आया तो वह अपनी क़ौम की नज़र में विवादित हस्ती बन गया, क्योंकि पैग़ंबर की सच्चाई को जानने के लिए लोगों के पास उस समय उसका केवल दावा था। उसके हक़ में पक्के ऐतिहासिक सबूत अभी जमा नहीं हुए थे। इस तरह के सबूत हमेशा बाद में वजूद में आते हैं । आम तौर पर पैग़ंबरों का मामला इसके बाद के पड़ाव तक न पहुँच सका।
दूसरे पैग़ंबर विवादित दौर में शुरू हुए और विवादित दौर में ही उनकी समाप्ति हो गई, क्योंकि उनके बाद उनके संदेश के पीछे ऐसा गिरोह जमा न हो सका, जो उनकी ज़िंदगी और उनके कथन को पूरी तरह से सुरक्षित रख सके। दूसरे पैग़ंबर अपने ज़माने में लोगों के लिए इसलिए विवादित थे कि वे अभी अपने इतिहास की शुरुआत में थे, बाद के दौर में वे दोबारा विवादित हो गए, क्योंकि बाद में जो उनका इतिहास बना, वह इंसान के ज्ञान के स्तर पर प्रमाणित न था।
पैग़ंबरों की सूची में इस दृष्टि से केवल आख़िरी पैग़ंबर हज़रत मुहम्मद एक अपवाद हैं। हालाँकि आपने दूसरे पैग़ंबरों की तरह अपनी पैग़ंबरी की शुरुआत विवादित दौर से की, लेकिन बाद के दौर में आपको इतनी असाधारण सफलता मिली कि ज़मीन के एक बड़े हिस्से में आपकी और आपके साथियों की सत्ता स्थापित हो गई। एक शताब्दी से भी कम समय में आपके धर्म ने एशिया और अफ़्रीक़ा की बड़ी शक्तियों को हराकर अपने अधीन कर लिया।
पैग़ंबर-ए-इस्लाम को जितनी चुनौतियों का सामना करना पड़ा, वह सबमें विजेता रहे। आपने जितनी भविष्यवाणियाँ की, सब पूरी हुईं। जो भी ताक़त आपसे टकराई, वह टुकड़े-टुकड़े हो गई। आपकी ज़िंदगी में ऐसी घटनाएँ घटीं, जिनके आधार पर समय में इतिहास में आपका रिकॉर्ड स्थापित हो गया। सारे पैग़ंबरों के इतिहास में आपको यह असाधारण सफलता मिली कि आपकी पैग़ंबरी विवादित पड़ाव से निकलकर प्रशंसित पड़ाव में पहुँच गई। आपकी बातें और आपके कारनामे, दोनों इस तरह सुरक्षित हालत में बरक़रार रहे कि किसी के लिए आपके बारे में शक करने की गुंजाइश नहीं।
मौजूदा ज़माने में सत्य धर्म के निमंत्रणकर्ताओं को एक ऐसा ख़ास मौक़ा (advantage) हासिल है, जो इतिहास के पिछले दौरों में किसी निमंत्रणकर्ता गिरोह को हासिल न था। वह यह कि आज हम इस हैसियत में हैं कि एकेश्वरवाद के निमंत्रण को प्रमाणित (established) पैग़ंबरी की सतह पर पेश कर सकें। जबकि इससे पहले एकेश्वरवाद का निमंत्रण केवल विवादित (controversial) पैग़ंबरी की सतह पर दिया जा सकता था।
दुसरे पैग़म्बरों के समुदाय अगर विवादित पैग़ंबरी के वारिस थे तो हम प्रशंसित पैग़ंबरी के वारिस हैं। मुसलमानों को विश्व-समुदायों के सामने सच की गवाही के जिस काम को अंजाम देना है, उसके लिए आज ईश्वर ने हर तरह के अनुकूल अवसरों को पूरी तरह से खोल दिया है। इसके बावजूद अगर मुसलमान इस गवाही के काम को अंजाम न दें या मज़हब की गवाही के नाम पर क़ौमी झगड़ें खड़े करने लगें तो मुझे मालूम नहीं कि क़यामत के दिन पूरी दुनिया के मालिक के सामने क्योंकर भारमुक्त (exonerated) हो सकते हैं।
नोट :- नवंबर, 1983 के आख़िरी हफ़्ते में लाहौर में क़ुरआनी सेमिनार हुआ। इस मौक़े पर लेखक को एक निबंध पढ़ने का निमंत्रण दिया गया। दृष्टिगत लेख इसी सेमिनार में पेश करने के लिए तैयार किया गया।