“और हमने तुम्हारे ऊपर क़ुरआन उतारा, बयान करने वाली हर चीज़ का और मार्गदर्शक व कृपा।” (क़ुरआन, 16:89)
आदम पहले इंसान थे और इसी के साथ पहले पैग़ंबर भी। कुछ रिवायात के अनुसार आदम के बाद लगभग एक हज़ार वर्ष तक आपकी नस्ल एकेश्वरवाद और सत्य धर्म का पालन करती रही। उसके बाद -आदम की नस्ल में अनेकेश्वरवाद का चलन हो गया (2:213)। नूह इसी समुदाय के लोगों के सुधार के लिए आए, जो उस समय मेसोपोटामिया के हरे-भरे इलाक़े में आबाद थे।
नूह की लंबी कोशिशों के बाद भी आदम के अनुयायी दोबारा अनेकेश्वरवादी धर्म छोड़ने को तैयार नहीं हुए। उनमें से केवल कुछ लोग थे, जो नूह पर ईमान लाए। इसलिए एक बड़ा भयंकर तूफ़ान आया और कुछ ईमान वालों को छोड़कर सभी लोगों को डुबो दिया गया। इसके बाद नूह के अनुयायियों द्वारा दोबारा इंसानी नस्ल चली, लेकिन दोबारा वही क़िस्सा सामने आया, जो इससे पहले सामने आ चुका था। कुछ समय बाद ज़्यादातर लोग एकेश्वरवादी धर्म को छोड़कर अनेकेश्वरवादी धर्म पर चल पड़े। यही क़िस्सा हज़ारों वर्षों तक बार-बार सामने आता रहा। ईश्वर ने लगातार पैग़ंबर भेजे (क़ुरआन, 23:44), लेकिन इंसान उनसे कोई सीख हासिल करने के लिए तैयार न हुआ, यहाँ तक कि सारे पैग़ंबरों को मज़ाक़ का विषय बना लिया गया (क़ुरआन, 36:30)।
यह सिलसिला हज़ारों वर्षों तक जारी रहा यहाँ तक कि इतिहास में अनेकेश्वरवाद की निरंतरता स्थापित हो गई। उस ज़माने के इंसानी समाज में जो भी आदमी पैदा होता, वह अपने माहौल की हर चीज़ से अनेकेश्वरवाद की सीख ले लेता। धार्मिक रस्म-रिवाजों, सामाजिक समारोहों, क़ौमी मेलों और शासन की व्यवस्था तक हर चीज़ अनेकेश्वरवादी आस्थाओं पर स्थापित हो गई। ऐसी स्थिति हो गई कि जो भी इंसान पैदा हो, वह अनेकेश्वरवाद के माहौल में आँख खोले और अनेकेश्वरवाद के ही माहौल में उसका अंत हो जाए। इसी चीज़ को मैंने इतिहास में अनेकेश्वरवाद की निरंतरता स्थापित हो जाने से स्पष्ट किया है और यही वह हक़ीक़त है, जो नूह की दुआ में इन शब्दों में मिलती है—
“और इनकी नस्ल से जो भी पैदा होगा, वह दुष्कर्मी और अवज्ञाकारी ही होगा।” (क़ुरआन, 71:27)
अब इतिहास इब्राहीम तक पहुँच चुका था, जिनका ज़माना 2100 वर्ष ईसा पूर्व है। ख़ुद इब्राहीम ने प्राचीन इराक़ में जो सुधारवादी प्रयास किए, उनका भी वही अंजाम हुआ, जो आपसे पहले दूसरे पैग़ंबरों का हुआ था। उस समय ईश्वर ने इंसान के मार्गदर्शन के लिए नई योजना बनाई। वह योजना यह थी कि विशिष्ट प्रबंध के द्वारा एक ऐसी नस्ल तैयार की जाए, जो अनेकेश्वरवाद की निरंतरता से अलग होकर परवरिश पाए। अपने प्राकृतिक हालात पर स्थापित रहने के कारण उसके लिए एकेश्वरवाद को स्वीकार करना आसान हो जाए, फिर उसी गिरोह को इस उद्देश्य के लिए इस्तेमाल किया जाए कि वह इतिहास में जारी होने वाली अनेकेश्वरवाद की निरंतरता को तोड़े।
उस समय इब्राहीम को हुक्म हुआ कि वह इराक़, सीरिया, मिस्र और फ़िलिस्तीन जैसे आबाद इलाक़ों को छोड़कर प्राचीन मक्का के ग़ैर-आबाद इलाक़े में जाएँ और वहाँ अपनी पत्नी हाजरा और दूध पीते बच्चे इस्माईल को बसा दें। यह इलाक़ा बंजर घाटी वाला होने के कारण उस ज़माने में बिल्कुल ग़ैर-आबाद था। इस आधार पर वह प्राचीन अनेकेश्वरवादी सभ्यता से पूरी तरह मुक्त था। इब्राहीम की दुआ— “तेरे सम्मानित घर के पास” (क़ुरआन, 14:37) यानी एक ऐसी जगह, जो अनेकेश्वरवाद की पहुँच से दूर हो। इब्राहीम की इस दुआ का मतलब यह था, कि हे ईश्वर ! मैंने अपनी संतान को एक बिल्कुल ग़ैर-आबाद इलाक़े में बसा दिया है, जहाँ अनेकेश्वरवादी सभ्यताओं के प्रभाव अभी तक नहीं पहुँचे हैं। ऐसा मैंने इसलिए किया है, ताकि वहाँ एक ऐसी नस्ल पैदा हो, जिसकी अनेकेश्वरवाद की निरंतरता से अलग होकर परवरिश हो और वास्तविक अर्थों में एक ही ईश्वर की इबादत करनेवाली बन सके।
किसी सभ्यता का निरंतरता से अलग हटकर परवरिश पाना क्या अर्थ रखता है, इसकी स्पष्टता एक आंशिक उदाहरण से होती है। लेखक एक ऐसे इलाक़े का रहने वाला है, जिसकी भाषा उर्दू है। मेरे पिता उर्दू बोलते थे। मैं भी उर्दू बोलता हूँ और मेरे बच्चों की भाषा भी उर्दू है। अब यह हुआ कि मेरा एक लड़का लंदन में एक ऐसे इलाक़े में रहने लगा, जहाँ केवल अंग्रेज़ी बोलने वाले लोग रहते हैं और हर तरफ़ अंग्रेज़ी भाषा का माहौल है। इसका नतीजा यह हुआ कि मेरे उस लड़के के बच्चे अब केवल अंग्रेज़ी भाषा जानते हैं। वे उर्दू में अपने विचारों को प्रकट करने की योग्यता नहीं रखते। जब मैं लंदन गया तो मुझे अपने उन पोतों से अंग्रेज़ी भाषा में बात करनी पड़ी।
मेरे उन पोतों का यह हाल इसलिए हुआ, क्योंकि उनकी परवरिश उर्दू की निरंतरता से अलग हटकर हुई। अगर वे मेरे साथ दिल्ली में होते तो उन बच्चों का यह मामला कभी न होता।
इस्माईल की क़ुर्बानी की घटना की हक़ीक़त भी यही है। इब्राहीम को जो सपना (क़ुरआन, 37:102) दिखाया गया, वह उदाहरणात्मक सपना था, लेकिन इब्राहीम अपनी बहुत ही ज़्यादा निष्ठा के कारण उसके पालन के लिए तैयार हो गए। प्राचीन मक्का में न पानी था, न हरियाली और न ही ज़िंदगी का कोई सामान। ऐसी स्थिति में अपनी संतान को वहाँ बसाना निश्चित ही उन्हें क़ुर्बान करने के समान था। इसका मतलब यह था कि उन्हें जीते-जी मौत के हवाले कर दिया जाए। अनेकेश्वरवाद की निरंतरता से अलग करके नई नस्ल पैदा करने की योजना किसी ऐसी जगह पर ही व्यवहार में लाई जा सकती थी, जहाँ ज़िंदगी के साधन न हों और इस आधार पर वहाँ कोई इंसानी आबादी न हो। इब्राहीम के सपने का मतलब यह था कि वे अपनी संतान को आर्थिक व सामाजिक दृष्टि से क़ुर्बान करके ऊपर वर्णित नस्ल तैयार करने में ईश्वरीय योजना का साथ दें।
यह योजना हालाँकि संसाधनों के दायरे में व्यवहार में लानी थी, इसलिए उसकी नियमानुसार निगरानी भी होती रही। इब्राहीम ख़ुद फ़िलिस्तीन में रहा करते थे, लेकिन वे कभी-कभी इसकी जाँच के लिए मक्का जाते रहते थे।
शुरुआत में उस जगह पर केवल हाजरा और इस्माईल थे। बाद में जब वहाँ ज़मज़म का पानी निकला आया तो क़बीला जुरहुम के कुछ ख़ानाबदोश लोग यहाँ आकर बस गए। इस्माईल बड़े हुए तो उन्होंने क़बीला जुरहुम की एक लड़की से विवाह कर लिया। रिवायात में आता है कि इब्राहीम एक बार फ़िलिस्तीन से चलकर मक्का पहुँचे तो उस समय इस्माईल घर पर नहीं थे। इब्राहीम ने उनकी पत्नी से हाल-चाल मालूम किया। पत्नी ने बताया कि हम बहुत बुरे हाल में हैं और बड़ी कठिनाई से गुज़र-बसर हो रहा है। इब्राहीम यह कहकर वापस आ गए कि जब इस्माईल आएँ तो उन्हें मेरा सलाम कहना और यह कहना कि अपने दरवाज़े की चौखट बदल दो। इस्माईल जब लौटे और पत्नी से यह बात सुनी तो वे समझ गए कि यह मेरे पिता थे और उनका संदेश उदाहरण की भाषा में यह है कि मैं मौजूदा औरत को छोड़कर दूसरी औरत से विवाह कर लूँ। इसलिए उन्होंने उसे तलाक़ दे दी और क़बीले की दूसरी औरत से विवाह कर लिया। इब्राहीम की नज़र में वह औरत इस योग्य न थी कि तैयार की जाने वाली नस्ल की माँ बन सके।
कुछ समय बाद इब्राहीम दोबारा मक्का आए। अब भी इस्माईल घर पर न थे, लेकिन उनकी दूसरी पत्नी वहाँ मौजूद थी। इब्राहीम ने उससे हाल-चाल पूछा तो उसने सब्र और शुक्र की बातें की और कहा कि हम बहुत अच्छे हाल में हैं। इब्राहीम यह कहकर लौट गए कि जब इस्माईल आएँ तो उनसे मेरा सलाम कहना और यह संदेश देना कि अपने घर की चौखट को बनाए रखो। जब इस्माईल वापस आए और अपनी पत्नी से वह सब बातें सुनीं तो वे समझ गए कि यह मेरे पिता थे और उनके संदेश का मतलब यह है कि इस औरत के अंदर यह योग्यता है कि योजनानुसार अनुकूलता करके रह सके और फिर इससे वह नस्ल तैयार हो, जिसका तैयार करना ईश्वर को वांछित है। (तफ़्सीर इब्ने-कसीर)
इस तरह अरब के मरुस्थल के अलग-थलग माहौल में एक नस्ल बनना शुरू हुई। इस नस्ल की ख़ासियतें क्या थीं, इसके बारे में हम यह कह सकते हैं कि यह नस्ल एक ही समय में दो ख़ासियतें रखती थी— एक प्राकृतिक और दूसरी मर्दानगी।
अरब के मरुस्थलीय (desert) माहौल में प्रकृति के सिवा और कोई चीज़ न थी, जो इंसान को प्रभावित करे। खुले जंगल, ऊँचे पहाड़, रात के समय दूर तक फैले आसमान में जगमगाते हुए तारे आदि। इस तरह के प्राकृतिक दृश्य चारों ओर से इंसान को एकेश्वरवाद की सीख दे रहे थे। वे हर समय उसे ईश्वर की महानता और कारीगरी की याद दिलाते थे। इस ख़ालिस ईश्वरीय माहौल में परवरिश पाकर वह नस्ल तैयार हुई, जो इब्राहीम के शब्दों में इस बात की योग्यता रखती थी कि वह सही मायनों में उम्मत-ए-मुस्लिमा (सूरह बक़रह, 2:128) बन सके यानी अपने आपको पूरी तरह से ईश्वर को सौंप देने वाली क़ौम। यह एक ऐसी क़ौम थी, जिसकी प्रकृति अपनी शुरुआती हालत में सुरक्षित थी। इसीलिए वह प्राकृतिक धर्म को स्वीकार करने में पूरी क्षमता रखती थी।
इसी के साथ दूसरी चीज़, जिसे पैदा करने के लिए यह माहौल विशेष रूप से उपयुक्त था; वह वही है, जिसे अरबी भाषा में ‘अल-मुरूआ’ (मर्दानगी) कहते हैं। प्राचीन हिजाज़ (सऊदी अरब का उत्तर पश्चिमी तटवर्तीय इलाक़ा) के पथरीले माहौल में ज़िंदगी गुज़ारना बहुत मुश्किल था। वहाँ बाहरी साधनों से ज़्यादा इंसान के गुण उपयोगी होते थे। वहाँ बाहरी माहौल में वह चीज़ें मौजूद न थीं, जिन पर इंसान भरोसा करता है। वहाँ इंसान के पास एक ही चीज़ थी और वह उसका अपना वजूद था। ऐसे माहौल में प्राकृतिक रूप से ऐसा होना था कि इंसान के आंतरिक गुण ज़्यादा-से-ज़्यादा उजागर हों। इस तरह दो हज़ार साल के अमल के परिणामस्वरूप वह क़ौम बनकर तैयार हुई, जिसके अंदर आश्चर्यजनक रूप से उच्च पौरुष गुण थे। प्रोफ़ेसर फ़िलिप हिट्टी के शब्दों में, पूरा अरब बहादुरों की एक ऐसी नर्सरी (nursery of heroes) में बदल गया, जिसका उदाहरण न इससे पहले के इतिहास में पाया गया और न इसके बाद।
छठी शताब्दी ईस्वी में वह समय आ गया था कि इतिहास में अनेकेश्वरवाद की निरंतरता को तोड़ने की योजना को पूरा किया जाए। इसलिए इस्माईल की नस्ल में आख़िरी पैग़ंबर हज़रत मुहम्मद पैदा हुए, जिनके बारे में क़ुरआन में इन शब्दों का वर्णन है—
“वही है, जिसने भेजा अपने पैग़ंबर को मार्गदर्शन और सच्चे धर्म के साथ, ताकि उसे सब धर्मों पर प्रभावशाली कर दे, चाहे अनेकेश्वरवादियों को यह कितना ही नापसंद हो।” (61:9)
इस आयत से पता चलता है कि आख़िरी पैग़ंबर का ख़ास मिशन यह था कि अनेकेश्वरवादी धर्म को प्रभुत्व (dominance) के स्थान से हटा दें और एकेश्वरवादी धर्म को प्रभावशाली धर्म की हैसियत से दुनिया में स्थापित कर दें। इस प्रभुत्व का मतलब दरअसल वैचारिक और सैद्धांतिक प्रभुत्व है यानी लगभग उसी तरह का प्रभुत्व, जैसा कि मौजूदा ज़माने में वैज्ञानिक विद्याओं को पारंपरिक विद्याओं के ऊपर हासिल हुआ है।
यह प्रभुत्व इतिहास की सबसे ज़्यादा मुश्किल योजना थी। इसका कुछ अंदाज़ा इस उदाहरण से हो सकता है कि प्राचीन पारंपरिक विद्याओं को अगर आधुनिक वैज्ञानिक विद्याओं पर प्रभावशाली करने की मुहिम चलाई जाए तो वह कितनी मुश्किल होगी। इसी तरह सातवीं शताब्दी में यह बड़ा मुश्किल काम था कि अनेकेश्वरवादी सभ्यता को पराजित किया जाए और उसकी जगह एकेश्वरवादी धर्म को प्रभावशाली विचार का दर्जा दिया जाए। किसी व्यवस्था के वैचारिक प्रभुत्व को समाप्त करना ऐसा ही है, जैसे किसी पेड़ को जड़ सहित उखाड़ फेंकना। इस तरह का काम बहुत ही मुश्किल काम होता है, जो बड़ी गहरी योजनाबंदी और कड़े संघर्ष के बाद ही अंजाम दिया जा सकता है।
इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए आख़िरी पैग़ंबर हज़रत मुहम्मद को दो विशेष सहायक चीज़ें प्रदान की गईं। एक वह, जिसका वर्णन सूरह आले-इमरान की आयत नं० 110 में इस तरह है— “तुम सर्वश्रेष्ठ समूह हो, जिसे लोगों के लिए निकाला गया है।” दो हज़ार साल के अमल के नतीजे में एक ऐसा समूह तैयार किया गया, जो समय का बेहतरीन सर्वश्रेष्ठ समूह था। जैसा कि बताया गया, एक ओर वह अपनी रचनात्मक प्रकृति पर क़ायम था और दूसरी ओर वह चीज़ें उसके अंदर पूरी तरह मौजूद थीं, जिसे सदाचारी चरित्र या पौरुष गुण कहा जाता है। इसी समूह के चुने हुए बेहतरीन लोग इस्लाम स्वीकार करने के बाद वह लोग बने, जिन्हें असहाब-ए-रसूल यानी पैग़ंबर के साथी कहा जाता है।
दूसरी ख़ास मदद वह थी, जिसकी ओर सूरह अर-रूम की शुरुआती आयतों में संकेत मिलता है। पैग़ंबर-ए-इस्लाम के भेजे जाने के समय दुनिया में दो बड़े अनेकेश्वरवादी साम्राज्य थे। एक रूमी,बाइजेंटाइन साम्राज्य और दूसरा ईरानी, सासानी साम्राज्य। उस समय की आबाद दुनिया का ज़्यादातर हिस्सा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इन्हीं दोनों साम्राज्यों के क़ब्ज़े में था। एकेश्वरवाद को बड़े पैमाने पर दुनिया में प्रभावशाली करने के लिए इन दोनों अनेकेश्वरवादी साम्राज्यों से टकराव अनिवार्य था। ईश्वर ने यह किया कि ठीक उसी ज़माने में दोनों साम्राज्यों को एक-दूसरे से टकरा दिया। उनकी यह लड़ाई पीढ़ी-दर-पीढ़ी जारी रही। एक बार ईरानी उठे और रूमियों की ताक़त को तहस-नहस करके उनके साम्राज्य के एक बहुत बड़े हिस्से पर क़ब्ज़ा कर लिया। दूसरी बार रूमी उठे और उन्होंने ईरानियों की ताक़त को बिल्कुल तोड़ डाला। यही कारण है कि असहाब-ए-रसूल जब पैग़ंबर-ए-इस्लाम के नेतृत्व में संगठित होकर उठे तो उन्होंने बहुत कम समय में एशिया और अफ़्रीक़ा के बड़े हिस्से को जीत लिया और हर तरफ़ अनेकेश्वरवाद को हरा दिया और एकेश्वरवाद का प्रभुत्व स्थापित कर दिया। इस सिलसिले में प्रोफ़ेसर हिट्टी के एक बयान का यहाँ वर्णन किया जाता है—
‘The enfeebled condition of the rival Byzantines and Sasanids who had conducted internecine against each other for many generation, the heavy taxes, consequent upon these wars, imposed on the citizens of both empires and undermining their sense of loyalty… all these paved the way for the surprisingly rapid progress of Arabian arms’.
Philip K. Hitti, History of the Arabs, London, p. 142-43
रूमी और ईरानी साम्राज्यों की आपसी दुश्मनी ने दोनों को बहुत ज़्यादा कमज़ोर कर दिया था। दोनों ने एक-दूसरे के ख़िलाफ़ विनाशकारी युद्ध छेड़ रखा था। यह सिलसिला कई पीढ़ियों तक जारी रहा। इसका ख़र्च पूरा करने के लिए प्रजा पर भारी कर लगाए गए, जिसके परिणामस्वरूप प्रजा अपने शासकों के प्रति वफ़ादार न रही। इस तरह यही वह चीज़ें थीं, जिन्होंने अरब के हथियारों को मौक़ा दिया कि वे रूमी और ईरानी इलाक़ों में आश्चर्यजनक सीमा तक कामयाबी हासिल कर सकें।
इतिहासकारों ने सामान्य रूप से इस घटना का वर्णन किया है, लेकिन वे इसे एक साधारण स्वाभाविक घटना समझते हैं। हालाँकि यह असाधारण घटना एक ईश्वरीय योजना थी, जो आख़िरी पैग़ंबर के समर्थन के लिए विशेष रूप से प्रकट की गई।
एक अमेरिकी एनसाइक्लोपीडिया में ‘इस्लाम’ के शीर्षक से जो लेख है, उसमें एक ईसाई लेखक ने यह शब्द लिखे हैं कि इस्लाम के आने से मानव इतिहास की दिशा बदल गई—
‘Its advent changed the course of human history.’
यह एक हक़ीक़त है कि पहले दौर की इस्लामी क्रांति के बाद मानव इतिहास में ऐसे परिवर्तन हुए, जो इससे पहले इतिहास में कभी नहीं हुए थे और उन सारे परिवर्तनों की जड़ यह थी कि दुनिया में अनेकेश्वरवाद की निरंतरता समाप्त होकर एकेश्वरवाद की निरंतरता जारी हुई। अनेकेश्वरवाद सारी बुराइयों की जड़ है और एकेश्वरवाद सारी ख़ूबियों का स्रोत है। इसलिए जब यह बुनियादी घटना घटी तो इसी के साथ इंसान के लिए सारी ख़ूबियों का दरवाज़ा खुल गया, जो अनेकेश्वरवाद के प्रभाव के कारण अब तक उसके लिए बंद पड़ा था।
अब अंधविश्वासी दौर के समाप्त होने के बाद ज्ञानात्मक दौर शुरू हुआ। मानवीय विभेद की बुनियाद ढह गई और इसके बजाय मानवीय समानता का दौर शुरू हुआ। जातीय शासन की जगह लोकतांत्रिक शासन की बुनियाद पड़ी। प्राकृतिक प्रदर्शन, जो सारी दुनिया में पूजा का विषय बने हुए थे, पहली बार अनुसंधान और वशीभूत का विषय बने और इस तरह प्रकृति की हक़ीक़तों के खुलने की शुरुआत हुई। यह दरअसल एकेश्वरवाद की ही क्रांति थी, जिससे उन सारी क्रांतियों की बुनियाद पड़ी, जो अंततः प्रसिद्ध घटना को पैदा करने का कारण बनीं, जिसे आधुनिक विकसित दौर कहा जाता है।
इब्राहीम ने दुआ की थी—
“हे ईश्वर ! मुझे और मेरी संतान को इससे बचा कि हम मूर्तियों की पूजा करें। हे ईश्वर ! इन मूर्तियों ने बहुत से लोगों को गुमराह कर दिया।” (क़ुरआन, 14:36)
सवाल यह है कि मूर्तियों ने किस तरह लोगों को गुमराह किया? मूर्तियों में वह कौन-सी ख़ासियत थी, जिसके आधार पर वे लोगों को गुमराह करने में सफल हुईं? इसका राज़ उस समय समझ में आता है, जब यह देखा जाए कि इब्राहीम के ज़माने में वह कौन-सी मूर्तियाँ थीं, जिनके बारे में आपने यह शब्द कहे।यह मूर्तियाँ सूरज, चाँद और सितारे थे। ऐतिहासिक रूप से साबित है कि इब्राहीम के ज़माने में जो सभ्य दुनिया थी, उसमें हर जगह आसमान में चमकते पिंडों की पूजा होती थी जिन्हें सूरज, चाँद और सितारे कहा जाता है। इसी से यह बात मालूम हो जाती है कि यह मूर्तियाँ क्योंकर लोगों को गुमराह कर पाती थीं।
हालाँकि ईश्वर सबसे बड़ी हक़ीक़त है, लेकिन वह आँखों से दिखाई नहीं देता। इसके विपरीत सूरज, चाँद और सितारे हर आँख को जगमगाते हुए नज़र आते हैं। इसी जगमगाहट के कारण लोग उनके धोखे में आ गए और उनसे प्रभावित होकर उन्हें पूजना शुरू कर दिया। उन रोशन पिंडों का प्रभाव इंसान के ज़हन पर इतना ज़्यादा हुआ कि वह पूरी इंसानी सोच पर छा गया, यहाँ तक कि शासन की स्थापना भी उन्हीं की बुनियाद पर होने लगी। उस समय के राजा अपने आपको सूरज की संतान और चाँद की संतान बताकर लोगों पर शासन करने लगे।
आख़िरी पैग़ंबर हज़रत मुहम्मद के द्वारा एकेश्वरवाद को प्रभावशाली करके इस दौर को ख़त्म किया गया। उस समय एकेश्वरवाद के प्रभुत्व की जो योजना बनाई गई, उसके दो ख़ास पड़ाव थे। पहला पड़ाव वह था, जिसे क़ुरआन में— “और उनसे लड़ो, यहाँ तक कि फ़ितना बाक़ी न रहे और दीन सारा-का-सारा ईश्वर के लिए हो जाए” (8:39) कहा गया है। इस आयत में ‘फ़ितना’ का मतलब आक्रामक अनेकेश्वरवाद है। प्राचीनकाल में अनेकेश्वरवाद को आक्रामकता का अवसर इसलिए प्राप्त था, क्योंकि उस ज़माने में शासन की बुनियाद अनेकेश्वरवाद पर स्थापित हो गई थी। अनेकेश्वरवाद को पूरी तरह से शासन का संरक्षण प्राप्त था। ऐसी स्थिति में जब एकेश्वरवाद का निमंत्रण दिया जाता था तो उस समय के शासकों को यह महसूस होने लगता कि यह निमंत्रण उनके शासन के अधिकार को संदिग्ध कर रहा है, इसलिए वे एकेश्वरवाद के निमंत्रणकर्ताओं को कुचलने के लिए खड़े हो जाते। प्राचीनकाल में आक्रामक आस्था का मूल कारण यही था।
पैग़ंबर-ए-इस्लाम और आपके साथियों को यह हुक्म हुआ कि अनेकेश्वरवाद की पताका उठाने वालों से लड़ो और अनेकेश्वरवाद की इस हैसियत को समाप्त कर दो कि वे एकेश्वरवाद के निमंत्रणकर्ताओं को अपने अत्याचार का निशाना न बना सकें। दूसरे शब्दों में, इसका मतलब यह था कि अनेकेश्वरवाद का संबंध राजनीति से समाप्त कर दिया जाए। अनेकेश्वरवाद और राजनीति, दोनों एक-दूसरे से अलग हो जाएँ। पैग़ंबर और आपके साथियों ने यह मुहिम पूरी ताक़त से शुरू की। उनकी कोशिशों से पहले अरब में अनेकेश्वरवाद का दबदबा समाप्त हुआ। उसके बाद प्राचीन आबाद दुनिया के ज़्यादातर इलाक़ों में अनेकेश्वरवादी व्यवस्था को हराकर हमेशा के लिए अनेकेश्वरवाद की आक्रामक हैसियत को समाप्त कर दिया गया। अब हमेशा के लिए अनेकेश्वरवाद अलग हो गया और राजनीतिक सत्ता अलग।
अनेकेश्वरवाद पर एकेश्वरवाद के प्रभुत्व का दूसरा पड़ाव वह था, जिसका वर्णन क़ुरआन की इस आयत में है—
“हम उन्हें अपनी निशानियाँ दिखाएँगे, क्षितिज में भी और ख़ुद उनके अंदर भी। यहाँ तक कि उन पर ज़ाहिर हो जाएगा कि यह क़ुरआन हक़ है।” (41:53)
पहले पड़ाव का मतलब प्रकृति के प्रदर्शनों से राजनीतिक दृष्टिकोण ग्रहण करने को समाप्त करना था। वह सातवीं शताब्दी ईस्वी में पूरी तरह पूरा हो गया। दूसरे पड़ाव का मतलब यह था कि प्राकृतिक प्रदर्शनों से अंधविश्वासों के पर्दे को हटा दिया जाए और उसे ज्ञान के प्रकाश में लाया जाए। इस दूसरे पड़ाव की शुरुआत पैग़ंबर के ज़माने से हुई और उसके बाद वह मौजूदा वैज्ञानिक क्रांति के रूप में पूरा हुआ।
मौजूदा दुनिया ईश्वर के गुणों का प्रकट होना है। यहाँ रचनाओं के आईने में आदमी उसके रचयिता को पाता है। वह उस पर सोच-विचार करके ईश्वर की ताक़त और महानता का अवलोकन करता है, लेकिन प्राचीन अंधविश्वासी विचारों ने दुनिया की चीज़ों को रहस्यमय रूप से पवित्र बना रखा था। हर चीज़ के बारे में कुछ अंधविश्वासी आस्थाएँ बन गई थीं और ये आस्थाएँ उन चीज़ों की खोज में रुकावट थीं। एकेश्वरवाद की क्रांति के बाद जब सारी दुनिया ईश्वर की रचना स्वीकार की गई तो इसके बारे में पवित्रता का विचार समाप्त हो गया। अब दुनिया की हर चीज़ का निष्पक्ष अध्ययन किया जाने लगा और उसकी खोजबीन शुरू हो गई।
इस खोजबीन और अध्ययन के परिणामस्वरूप चीज़ों की हक़ीक़तें सामने आने लगीं। दुनिया के अंदर प्रकृति की जो गुप्त व्यवस्था जारी है, वह इंसान के सामने आने लगी, यहाँ तक कि आधुनिक विज्ञान की क्रांति के रूप में वह भविष्यवाणी पूरी हो गई, जिसका वर्णन उपरोक्त आयत में है।
आधुनिक विज्ञान के अध्ययन ने कायनात की जो हक़ीक़तें इंसान के सामने खोली हैं, उन्होंने हमेशा के लिए अंधविश्वासी दौर को ख़त्म कर दिया है। इन खोजी गई हक़ीक़तों से एक ही समय में दो फ़ायदे हासिल हुए हैं। एक यह कि धार्मिक आस्थाएँ अब केवल दावों की आस्थाएँ नहीं रहीं, बल्कि ख़ुद इंसान के ज्ञान के द्वारा उनका सत्य होना एक प्रमाणित चीज़ बन गया है।
दूसरा यह कि यह जानकारियाँ एक ईश्वरभक्त के लिए उसके विश्वास में वृद्धि का अथाह भंडार हैं। इनके द्वारा कायनात के बारे में जो कुछ पता चला है, वह हालाँकि बहुत कम है, फिर भी वह इतना ज़्यादा हैरान करने वाला है कि उसे पढ़कर और जानकर आदमी के शरीर के रोंगटे खड़े हो जाएँ। उसका ज़हन ईश्वर की पहचान की रोशनी हासिल करे। उसकी आँखें ईश्वर की महानता और डर से आँसू बहाने लगे। वह आदमी को उस ऊँचे दर्जे तक पहुँचा दे, जिसे हदीस में ‘ईश्वर की इबादत इस तरह करो, जैसे तुम उसे देख रहे हो’ कहा गया है।