ईश्वरीय प्रबंधन
यहूदियों को ईश्वर की ओर से हुक्म दिया गया था कि वे ‘तौरात’ की सुरक्षा करें(सूरह अल-माइदा)। इसके विपरीत क़ुरआन के बारे में कहा गया है—
“हमने क़ुरआन को उतारा है और हम ही इसके रक्षक हैं।” (15:9)
इससे पता चलता है कि पिछली आसमानी किताबों को सुरक्षित रखने की ज़िम्मेदारी उनकी क़ौमों पर डाली गई थी, जबकि क़ुरआन को सुरक्षित रखने की ज़िम्मेदारी ख़ुद ईश्वर ने ली है। पिछली आसमानी किताबें भी इसी तरह ईश्वर की किताबें थीं, जिस तरह क़ुरआन ईश्वर की किताब है, लेकिन फ़र्क़ यह है कि पिछली आसमानी किताबों के वाहक उन किताबों की सुरक्षा के बारे में अपनी ज़िम्मेदारी को पूरा न कर सके। यह किताबें अपने मूल रूप में बाक़ी न रहीं, लेकिन क़ुरआन की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी ईश्वर ने ख़ुद ली थी, इसलिए क़ुरआन ईश्वर की विशिष्ट सहायता से पूरी तरह सुरक्षित रहा।
इसका मतलब यह नहीं है कि आसमान से ईश्वर के फ़रिश्ते उतरेंगे और वे क़ुरआन को अपने साये में लिये रहेंगे। मौजूदा दुनिया इम्तिहान की दुनिया है। यहाँ परलोक की हक़ीक़तों को अदृश्य (invisible) रखा गया है, इसलिए यहाँ कभी ऐसा नहीं हो सकता कि फ़रिश्ते सामने आकर क़ुरआन की रक्षा करने लगें। मौजूदा दुनिया में इस तरह का काम हमेशा सामान्य हालात में किया जाता है, न कि असामान्य हालात में। यहाँ क़ुरआन की सुरक्षा का काम ऐतिहासिक साधनों और चलते-फिरते इंसानों के ज़रिये लिया जाएगा, ताकि ग़ैब (unseen) का पर्दा बाक़ी रहे। घटनाओं से पता चलता है कि ईश्वर ने अपने वादे को पूरे इतिहास में उच्चतम स्तर पर अंजाम दिया है। इस उद्देश्य के लिए उसने विभिन्न क़ौमों से मदद ली है और इस काम में मुसलमानों को भी इस्तेमाल किया है और ग़ैर-मुस्लिमों को भी।
पिछले पैग़ंबरों के साथ यह घटना घटी कि उनको ऐसे बहुत कम साथी मिले, जो उनके बाद उनकी किताब की सुरक्षा की पक्की गारंटी बन सकते, लेकिन पैग़ंबर-ए-इस्लाम हज़रत मुहम्मद का मामला मुख्य रूप से दूसरे पैग़ंबरों से अलग है। मृत्यु से लगभग ढाई महीने पहले आपने हज किया, जिसे ‘हज्जतुल विदा’ कहा जाता है। इस मौक़े पर ‘अरफ़ात’ के मैदान में एक लाख चालीस हज़ार मुसलमान मौजूद थे। इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि पैग़ंबर-ए-इस्लाम के अंतिम समय तक आप पर ईमान लाने वाले मर्दों और औरतों की कुल संख्या कम-से-कम 5,00,000 हो चुकी होगी। यह संख्या प्राचीन इंसानी आबादी की दृष्टि से बहुत असाधारण है। आपके बाद यह संख्या बढ़ती रही, यहाँ तक कि देश-के-देश मुसलमान होते चले गए। इस तरह क़ुरआन की सुरक्षा के लिए इतना बड़ा इंसानी गिरोह इकट्ठा कर दिया गया, जो इससे पहले किसी आसमानी किताब की सुरक्षा के लिए इकट्ठा नहीं हुआ था।
इसके बाद दूसरी सहायक घटना यह घटी कि अरब में और अरब के बाहर मुसलमानों की जीत का सिलसिला शुरू हुआ। यह सिलसिला यहाँ तक फैला कि प्राचीन आबाद दुनिया के अधिकतर हिस्सों पर मुसलमानों का शासन स्थापित हो गया और उन्होंने दुनिया का सबसे बड़ा और शक्तिशाली साम्राज्य (empire) स्थापित किया। यह साम्राज्य किसी ताक़त से पराजित हुए बिना निरंतर स्थापित रहा और क़ुरआन की सुरक्षा करता रहा। यह सिलसिला 1,000 वर्ष तक जारी रहा, यहाँ तक कि प्रेस का दौर आ गया और क़ुरआन के नष्ट होने की संभावना सिरे से ख़त्म हो गई।
प्रेस के दौर में यह संभव हो गया कि किसी किताब का एक संस्करण लिखा जाए और उसे छापकर एक ही तरह की करोड़ों प्रतियाँ तैयार कर ली जाएँ, लेकिन पहले ऐसा संभव नहीं था। पुराने ज़माने में किताब की हर प्रति अलग-अलग हाथ से लिखी जाती थी। इस कारण अक्सर एक प्रति और दूसरी प्रति में कुछ-न-कुछ अंतर हो जाता था। इसलिए पुरानी किताबों में से जो भी किताब आज दुनिया में पाई जाती है, उसकी हस्तलिखित (manuscripts) प्रतियों में से कोई भी दो प्रतियाँ ऐसी नहीं, जिनमें अंतर न हो। यह केवल क़ुरआन ही है, जिसकी लाखों प्रतियाँ हाथ से लिखकर तैयार की गईं और उनकी बड़ी संख्या आज भी संग्रहालयों और पुस्तकालयों (museums and libraries) में मौजूद है, लेकिन एक हस्तलिखित प्रति और दूसरी हस्तलिखित प्रति में थोड़ा-सा भी अंतर नहीं पाया जाता। यह ईश्वर की ख़ास मदद थी, जिसने क़ुरआन के बारे में मुसलमानों को इतना ज़्यादा सतर्क और संवेदनशील (alert and sensitive) बना दिया।
इसी के साथ ईश्वर ने यह इंतज़ाम किया कि क़ुरआन को याद (रटकर उसके मूल पाठ को याद करना) करने का अनोखा तरीक़ा शुरू हुआ, जो इससे पहले के ज्ञात इतिहास में कभी किसी किताब के लिए नहीं किया गया था। हज़ारों-लाखों लोगों के दिल में यह भावना उभरी कि वे क़ुरआन के मूल पाठ को शुरू से आख़िर तक याद करें और याद रखें। इस तरह के लोग इतिहास के हर दौर में हज़ारों की संख्या में पैदा होते रहे। यह सिलसिला क़ुरआन के ज़माने से शुरू होकर आज तक जारी है। ज्ञात इतिहास के अनुसार दुनिया में ऐसी कोई भी दूसरी किताब नहीं है, जिसके मानने वालों ने इस तरह किसी किताब को याद करने का इंतज़ाम किया हो, जिस तरह क़ुरआन के मानने वाले हर दौर में करते रहे हैं। क़ुरआन को याद करने के रिवाज ने उसकी सुरक्षा के इस अनोखे इंतज़ाम को संभव बना दिया, जिसे एक फ़्रांसीसी विद्वान मोरिस बुकाई ने दोहरी जाँच (double checking) का तरीक़ा कहा है यानी एक लिखी हुई प्रति को दूसरी लिखी हुई प्रति से मिलाना और इसी के साथ याददाश्त की मदद से उसकी प्रामाणिकता को जाँचते रहना।
डेढ़ हज़ार वर्ष के इस्लामी इतिहास में यह जो कुछ हुआ, ईश्वर की तरफ़ से हुआ। इम्तिहान के हालात को बनाए रखने के लिए हालाँकि इसे साधन के पर्दे में अंजाम दिया गया है, लेकिन जब क़यामत आएगी और सारी हक़ीक़तें ज़ाहिर कर दी जाएँगी, उस समय लोग देखेंगे कि अरब की इस्लामी क्रांति से लेकर प्रेस-युग के नए सुरक्षात्मक तरीक़ों तक सारे काम ईश्वर ही ख़ुद प्रत्यक्ष रूप से अंजाम देता था। हालाँकि देखने में वह कुछ हाथों को उसका ज़रिया बनाता रहा।
क़ुरआन के बारे में ईश्वर के इस ख़ास इंतज़ाम का एक और अहम पहलू है, जिसका संबंध ख़ास तौर पर मुसलमानों से है। क़ुरआन के शब्दों की सुरक्षा, जो मुसलमानों के हाथों हो रही है, यही दरअसल वह चीज़ नहीं है, जो क़ुरआन के सिलसिले में ईश्वर को हमसे वांछित हो। यह काम तो ख़ुद सीधे ईश्वर के इंतज़ाम में हो रहा है, फिर हमारा इसमें क्या कमाल! जो लोग इस सुरक्षा के काम में व्यस्त हैं, वे अपनी ईमानदारी के अनुसार मुआवज़ा (compensation) पाएँगे, लेकिन यही मुसलमानों की असल ज़िम्मेदारी नहीं है। यह काम चाहे कितना ही ईमानदारी से और कितने ही बड़े पैमाने पर किया जाए, इससे हमारी असल ज़िम्मेदारी ख़त्म नहीं हो सकती।
हक़ीक़त यह है कि पिछली क़ौमों का इम्तिहान मूल पाठ की सुरक्षा में था, मुसलमानों का इम्तिहान अर्थ की सुरक्षा में है। पिछले ज़माने में जो लोग ईश्वरीय किताब के वाहक बनाए गए, उनकी परीक्षा अर्थ की सुरक्षा के साथ-साथ समान रूप से मूल पाठ की सुरक्षा में भी थी, लेकिन मुसलमानों की परीक्षा सबसे बढ़कर अर्थ की सुरक्षा में है। मुसलमानों को क़ुरआन के सिलसिले में जिस चीज़ का सबूत देना है, वह यह है कि क़ुरआन की व्याख्या और विस्तार में अंतर न करें। क़ुरआन में जिस चीज़ को जिस दर्जे में रखा गया है, उसे उसी दर्जे में रखें। वे क़ुरआन के उद्देश्य में कोई व्याख्यात्मक परिवर्तन न करें। क़ुरआन को दूसरों के सामने पेश करते हुए वे उसी असल बात को पेश करें, जो क़ुरआन में अरबी भाषा में उतारी गई है, न कि ख़ुद बनाई व्याख्याओं के द्वारा एक नया मज़हब बनाएँ और उसे क़ुरआन के नाम पर लोगों के सामने पेश करने लगें।
मुसलमानों का क़ुरआन का वाहक बनने में नाकाम होना यह है कि वे क़ुरआन को सौभाग्य और पुण्यफल की किताब बना दें और अपने मज़हब की गाड़ी व्यावहारिक रूप से दूसरी बुनियादों पर चलाने लगें। कोई मसाइल के नाम पर गतिविधि करने लगे और कोई धार्मिक विशेषताओं के नाम पर— कोई महापुरुषों के उपदेशों और कहानियों को मज़हब की बुनियाद बना ले और कोई सभाओं व भाषणों की धूम मचाने को। कोई क़ुरआन को अपने राजनीतिक आंदोलन का परिशिष्ट (appendix) बना ले और कोई अपने क़ौमी हंगामों का। क़ुरआन के नाम पर इस तरह की गतिविधियाँ क़ुरआन के अर्थ में परिवर्तन का दर्जा रखती हैं। मुसलमान अगर क़ुरआन के अर्थ के साथ इस तरह का मामला कर रहे हों तो वे केवल इस आधार पर ईश्वर की पकड़ से नहीं बच सकते कि क़ुरआन के शब्दों की सुरक्षा और दोहराने में उन्होंने कोई कमी नहीं की थी।
इस बात को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि ईश्वरीय किताब की वाहक दूसरी क़ौमों को जो सज़ा किताब के मूल पाठ के परिवर्तन पर दी गई, वह सज़ा मुसलमानों को किताब के अर्थ के परिवर्तन पर मिलेगी। मुसलमानों का असल इम्तिहान जहाँ हो रहा है, वह यही है। अगर वे ईश्वर की किताब के अर्थों को ख़ुद बनाई गई व्याख्याओं से बदल डालें तो वे केवल इसलिए ईश्वर की पकड़ से नहीं बच सकते कि उन्होंने किताब के मूल पाठ में कोई परिवर्तन नहीं किया था, क्योंकि इम्तिहान आदमी के अधिकार के दायरे में होता है और मुसलमानों को जहाँ अधिकार प्राप्त है, वह क़ुरआन के अर्थ में परिवर्तन है, न कि क़ुरआन के मूल पाठ में परिवर्तन। क़ुरआन के मूल पाठ में परिवर्तन से तो ईश्वर ने सारी क़ौमों को असमर्थ कर रखा है, फिर वहाँ किसी का इम्तिहान किस तरह होगा ।