क़ुरआन एक सुरक्षित किताब
“हमने क़ुरआन को उतारा है और हम ही इसकी हिफ़ाज़त करने वाले हैं।” (क़ुरआन, 15:9)
एक लिपिक महोदय को एक किताब का मसौदा (draft) लिखने के लिए दिया गया। इस मसौदे में एक जगह हदीस के विद्वान अबू दुआद का नाम था। लिपिक महोदय अबू दुआद से परिचित न थे, हालाँकि वह अबू दाऊद को जानते थे। इसलिए उन्होंने अबू दुआद की जगह अबू दाऊद लिख दिया।
इस तरह की ग़लतियों के उदाहरण बहुत आम हैं। एक आदमी किसी लेख को पढ़ रहा है या उसे नक़ल कर रहा है। इसी बीच एक ऐसा वाक्य आता है, जिसे वह समझ नहीं पाता। इसलिए वह उसे अपनी समझ के अनुसार बदलकर कुछ से कुछ कर देता है, यहाँ तक कि ऐसे भी लोग हैं, जो किसी व्यक्तिगत स्वार्थ के तहत मूल लेख में जानबूझकर परिवर्तन करते हैं और अपनी ओर से उसमें ऐसी बातें शामिल कर देते हैं, जो असल किताब में उसके लेखक ने शामिल न की थीं।
पिछली आसमानी किताबों में जो परिवर्तन हुए हैं, उनका कारण इंसान की यही कमज़ोरी है। क़ुरआन में यह वर्णन है कि ईश्वर ने ज़मीन और आसमान को छह दिनों में पैदा किया है। यही बात बाइबल में इस तरह है कि छह दिनों का अलग-अलग विवरण है। हर दिन की उत्पत्तियों का वर्णन करने के बाद उसमें यह वाक्य मिलता है— “और शाम हुई और सुबह हुई।” यह वाक्य निश्चित रूप से कथित ऊपरी विचार के तहत इंसान द्वारा की गई वृद्धि है। किसी महापुरुष ने अपने आप ही बाइबल के वाक्य को पूर्ण करने के लिए यह शब्द बढ़ा दिए। क़ुरआन के शब्दों में यह गुंजाइश है कि दिन को दौर (period) के अर्थ में ले सके, लेकिन बाइबल में कथित वाक्य की वृद्धि ने उसे दौर के अर्थ में लेना असंभव बना दिया।
बाइबल में इस तरह के उदाहरण बहुत हैं, यहाँ तक कि कुछ उदाहरण बहुत ही बेकार हैं, जैसे— क़ुरआन में वर्णन है कि मूसा को ईश्वर ने यह चमत्कार दिया कि वे अपना हाथ निकालें तो वह चमकने लगे, बाइबल में उसका वर्णन है मगर वहाँ यह शब्द लिखे हुए हैं—
“फिर ईश्वर ने मूसा से कहा कि तू अपना हाथ अपने सीने पर रखकर ढक ले। उसने अपना हाथ अपने सीने पर रखकर ढक लिया और जब उसने उसे निकालकर देखा तो उसका हाथ कोढ़ से बर्फ़ की तरह सफ़ेद था।” (बाइबिल, ख़ुरूज 4:6)
बाइबल के इस वाक्य में ‘कोढ़ से’ निश्चित रूप से बाद के लोगों की व्याख्यात्मक वृद्धि है। क़ुरआन के शब्दों के अनुसार, मूसा के हाथ का चमकना ईश्वरीय कारण से मालूम होता है और बाइबल के शब्दों के अनुसार रोग के कारण।
क़ुरआन सभी आसमानी किताबों में अकेली वह किताब है, जिसमें किसी भी तरह का फेरबदल न हो सका। इसका कारण यह है कि पिछली आसमानी किताबों की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी ख़ुद उन किताबों के वाहक इंसानों पर डाली गई थी, इसलिए क़ुरआन में उनके लिए ‘इस्तेहफ़ाज़’ का शब्द आया है यानी (इंसानों से) हिफ़ाज़त चाहना। इसके विपरीत क़ुरआन के बारे में ‘हाफ़िज़’ का शब्द आया है यानी (ईश्वर) हिफ़ाज़त करने वाला।
क़ुरआन में ऐसे बहुत से अवसर थे, जहाँ क़ुरआन के मानने के लिए गुंजाइश थी, कि वे उसमें कथित उपरोक्त प्रकार के परिवर्तन कर डालें। इसके उदाहरण बड़ी संख्या में मौजूद हैं, कि उन्होंने व्यवहारत: ऐसा किया भी; मगर उन्होंने जो कुछ किया, वह फुटनोट की हद तक सीमित रहा। ‘मूल लेख’ (text) में वे किसी तरह का कोई परिवर्तन न कर सके। फुटनोट और व्याख्या में चूँकि उनके हाथ बँधे हुए न थे, इसलिए उसमें उन्होंने तरह-तरह के अबोध (ignorant) परिवर्तन कर दिए, लेकिन जहाँ तक असल किताब का संबंध है, उसे ईश्वर ने सीधे तौर पर अपनी निगरानी में ले रखा था, इसलिए यहाँ वे किसी तरह का फेरबदल करने में असमर्थ रहे।
इस मौक़े पर स्पष्टता के लिए हम दो उदाहरण देते हैं। क़ुरआन की पहली अवतरित आयत है— “इक़रा बिस्मी रब्बी कल्लज़ी ख़लक़” यानी “पढ़ अपने रब के नाम से, जिसने पैदा किया।” इसी तरह दूसरी जगह पर है— “सनुक़रि-उका फ़ला तनसा” यानी “हम तुझको पढ़ा देंगे, फिर तू न भूलेगा।” इन आयात में ‘इक़रा’ और ‘सनुक़रि’ के शब्दों से ऐसा मालूम होता है कि आपके सामने कोई किताब या कोई लिखी हुई चीज़ रखी गई और कहा गया कि इसको पढ़ो।
यह बात मुसलमानों की आम आस्था के बिल्कुल ख़िलाफ़ है, क्योंकि सारी दुनिया के मुसलमानों का यह यक़ीन है कि हज़रत मुहम्मद पढ़े-लिखे नहीं थे। जैसे आयत के यह शब्द अपने प्रत्यक्ष की दृष्टि से मुसलमानों की आस्था में रुकावट हैं और इस्लाम के विरोधियों को अनावश्यक रूप से यह कहने का अवसर देते हैं कि पैग़ंबर-ए-इस्लाम हज़रत मुहम्मद अनपढ़ नहीं थे, बल्कि पढ़े-लिखे थे। इसके बावजूद ऐसा नहीं हुआ कि दूसरी किताबों के मूल पाठ की तरह मुसलमान क़ुरआन के इन शब्दों को बदल दें। यह क़ुरआन के सुरक्षित किताब होने का एक स्पष्ट अंदरूनी सबूत है, वरना अगर दूसरी किताब की तरह मामला होता तो क़ुरआन में हमें ‘इक़रा’ (पढ़) के स्थान पर ‘उतलू‘ (तू पढ़) का ‘तलफ़्फ़ुज़’ (उच्चारण) लिखा हुआ मिलता। इसी तरह लिखने वालों ने ‘सनुक़रि-उका’ के बजाय ‘सनहफ़िज़ुका’ मतलब ‘हम तुझे याद करा देंगे’ लिख दिया होता।
इसी तरह एक उदाहरण सूरह क़ियामह की आयत ‘वक़ीला मन राक़’ मतलब ‘और कहा जाएगा कि है कोई झाड़-फूँक वाला है।’ सारी दुनिया के मुसलमान जब इस आयत को पढ़ते हैं तो वे ‘मन’ पर ठहरते हैं यानी मन के बाद थोड़ा रुककर ‘राक़’ कहते हैं। इसका कारण यह है कि पैग़ंबर-ए-इस्लाम से सुनने वाले पैग़ंबर के साथियों ने बयान किया कि आपने जब यह आयत पढ़ी तो आप अक्षर ‘मन’ पर रुके, वरना व्याकरण की कला की दृष्टि से इसका कोई भी कारण नहीं है कि यहाँ यह विराम क्यों किया जाए। अगर क़ुरआन के साथ इसके वाहक वह मामला कर सकते, जो दूसरी किताबों के साथ उनके वाहकों ने किया तो अनिवार्य रूप से ऐसा होता कि यह विराम बाक़ी न रहता। ऐसी स्थिति में मुसलमान इसे ‘वक़ीला मनराक़’ पढ़ते, न कि ‘वक़ीला मन (विराम) राक़’।
इसी तरह क़ुरआन में है— “या अय्युहन्नबी इज़ा तल्लक़तुमुन-निसाअ।” मतलब “ऐ पैग़ंबर ! जब तुम सब लोग औरतों को तलाक़ दो।” यह वाक्य व्याकरण के सामान्य नियम के विरुद्ध है। इसमें एक से संबोधन करके समूह की संज्ञा लाई गई है। आम लिखने और बोलने वाले कभी ऐसा नहीं करते। अगर क़ुरआन का वह मामला होता, जो दूसरी आसमानी किताबों का है तो निश्चित रूप से ऐसा होता कि कुछ मुसलमान इस आयत के शब्दों को बदलकर इस तरह लिख चुके होते— “या अय्युहन्नबीयु इज़ा तल्लक़ता अन निसाअ” (ऐ नबी जब तू अपनी औरतों को तलाक़ दे) या “अय्युहर्रुसुलु इज़ा तल्लक़तुमुन-निसाअ।” (ऐ पैग़ंबरों! जब तुम सब लोग अपनी औरतों को तलाक़ दो)।
यही मामला लेखन-शैली का है। अरबी सुलेखकला (calligraphy) ने बाद के ज़माने में बहुत तरक़्क़ी की, जबकि क़ुरआन उस समय लिखा गया, जब सुलेखकला ने अभी इतनी तरक़्क़ी नहीं की थी। इसलिए क़ुरआन की लेखन-शैली में और आम सुलेखकला में कुछ जगह अंतर है। जैसे— क़ुरआन में ‘मालिकि’ को ‘मलिक’ लिखा हुआ है (1:4), यहाँ तक कि इस लेखन-शैली के कारण आयत के दो उच्चारण बन गए हैं। कोई उसे ‘मालिकि’ पढ़ता है तो कोई ‘मलिकि’ पढ़ता है। इसके बावजूद किसी के लिए यह मुमकिन नहीं हुआ कि उस शब्द को ‘मालिकि’ बना दे।
क़ुरआन के फुटनोट (footnote) में बाद के लोगों ने जो आंतरिक परिवर्तन किए हैं, उनमें से एक उदाहरण क़ुरआन की यह आयत है— “मैं ज़मीन पर एक ख़लीफ़ा बनाने वाला हूँ।” बाद में अनेक व्याख्याकारों ने इस आयत में ख़लीफ़ा शब्द को ‘ख़लीफ़ातुल्लाह’ यानी ‘अल्लाह का उत्तराधिकारी’ के समानार्थ बना दिया और इसकी व्याख्या इन शब्दों में की है— “ईश्वर ने फ़रिश्तों से कहा कि मैं ज़मीन पर अपना एक ख़लीफ़ा नियुक्त करने वाला हूँ।” हालाँकि ‘अपना’ का शब्द यहाँ सरासर वृद्धि है। उन लोगों ने फुटनोट में तो इस तरह की वृद्धि ख़ूब की, लेकिन मूल लेख में वृद्धि करना उनके लिए संभव न हो सका। अगर क़ुरआन के मूल पाठ पर ईश्वर का पहरा न होता तो संभवत: वे आयत के शब्दों को नाकाफ़ी समझकर उसे इस तरह लिख देते—
“इन्नी जाइलुन फ़िल अर्ज़ी ख़लीफ़ती या इन्नी जाइलुन फ़िल अर्ज़ी ख़लीफ़तम मिन्नी।”
दूसरी आसमानी किताबों में से हर किताब में यह हुआ है कि उन किताबों के मानने वाले अपने तौर पर जो कुछ चाहते थे, वह सब उन्होंने ईश्वर की किताब में कहीं-न-कहीं दाख़िल कर दिया। उदाहरण के लिए— यूहन्ना की मौजूदा बाइबल में हमें यह वाक्य मिलता है, “दूसरे दिन उसने यीशु को अपनी ओर आते देखकर कहा कि देखो यह ईश्वर का बर्रा (मेमना) है, जो दुनिया के गुनाह उठा ले जाता है। यह वही है, जिसके बारे में मैंने कहा था कि एक आदमी मेरे बाद आएगा, जो मुझसे श्रेष्ठ है, क्योंकि वह मुझसे पहले था।” (यूहन्ना, अध्याय 1, 35:36)
यूहन्ना की बाइबल का यह वाक्य पैग़ंबर याह्या की ज़ुबान से यीशु मसीह के बारे में है। याह्या का यह वक्तव्य बाक़ी तीनों बाइबल में भी है, मगर उनमें ‘जो दुनिया का गुनाह उठा ले जाता है’ मौजूद नहीं। ये शब्द निश्चित रूप से बाद में मूल वक्तव्य में इसलिए बढ़ाए गए हैं, ताकि उनसे प्रायश्चित्त की आस्था निकाली जा सके। बाद के ईसाइयों की पसंदीदा आस्था प्रायश्चित्त को बाइबल से साबित करने के लिए याह्या के कथित वक्तव्य में यह वाक्य बढ़ा दिया गया। हालाँकि अगर वह याह्या का वाक्य होता तो वह चारों बाइबल में मौजूद होता।
यही बात क़ुरआन में भी हो सकती थी, मगर हम देखते हैं कि मुसलमानों की बहुत-सी पसंदीदा आस्थाएँ भी क़ुरआन के मूल पाठ के अंदर मौजूद नहीं। उदाहरण के लिए— हज़रत मुहम्मद का सभी पैग़ंबरों से बेहतर होना और ईश्वर के यहाँ आपका गुनाहगारों का सिफ़ारिशी होना मुसलमानों की पसंदीदा आस्थाएँ है, लेकिन क़ुरआन में किसी जगह पर वह स्पष्ट रूप से मौजूद नहीं है। मुसलमान यह तो कर सके कि अपनी इन आस्थाओं को साबित करने के लिए कुछ आयतों से नतीजे के तौर पर अर्थ निकाले, लेकिन वे उनको क़ुरआन के मूल पाठ में शामिल न कर सके। अगर मुसलमानों को मूल पाठ में रद्दोबदल की ताक़त हासिल होती तो निश्चित ही आज हम क़ुरआन में कोई ऐसी आयत पढ़ते, जिसके शब्द यह होते— “ऐ मुहम्मद ! तुम सारे नबियों में श्रेष्ठ हो और क़यामत के दिन तुम गुनाहगारों की सिफ़ारिश करोगे।”
यह कुछ साधारण प्रकार के आंतरिक उदाहरण हैं, जिनसे यह साबित होता है कि क़ुरआन आज भी उस शुरुआती हालत में मौजूद है, जिस हालत में पैग़ंबर हज़रत मुहम्मद ने उसे अपने ज़माने में लिखवाया था। उसमें किसी तरह का हल्का-सा भी परिवर्तन न हो सका।
अब स्पष्ट है कि क़ुरआन जब केवल आसमानी किताब है, जिसका मूल पाठ पूरी तरह सुरक्षित है तो उसी का हक़ है कि वह उन लोगों के लिए अकेली मार्गदर्शक किताब बने, जो ईश्वरीय वाणी को मानते हैं और ईश्वर के मार्गदर्शन के अनुसार ज़िंदगी गुज़ारना चाहते हैं। सुरक्षित और असुरक्षित, दोनों तरह की किताबों की मौजूदगी में निश्चित रूप से सुरक्षित किताब की पैरवी की जाएगी, न कि असुरक्षित और परिवर्तित किताब की।