निमंत्रणकर्ता और निमंत्रित का संबंध
दूसरी महत्वपूर्ण बात मुसलमानों और ग़ैर-मुसलमानों के बीच निमंत्रणकर्ता और निमंत्रित का संबंध स्थापित करना है। मुस्लिम समुदाय की हैसियत से मुसलमान ईश्वरीय धर्म के निमंत्रणकर्ता हैं और बाक़ी सभी लोग उनके लिए निमंत्रित की हैसियत रखते हैं, लेकिन मौजूदा दौर में मुसलमानों ने सबसे बड़ी ग़लती यह की है कि उन्होंने दूसरी क़ौमों को अपना क़ौमी प्रतिद्वंद्वी और भौतिक शत्रु बना लिया है। इन क़ौमों के साथ उन्होंने सारी दुनिया में आर्थिक व राजनीतिक झगड़े छेड़े हुए हैं। क़ुरआन में निमंत्रणकर्ता का कलमा ‘ला असअलूकुम अलैहि मिन अज्र’ (मैं तुमसे इस पर कोई बदला नहीं चाहता) बताया गया है। ऐसी हालत में अधिकारों की माँग के यह सारे हंगामे अपनी निमंत्रणीय हैसियत को नकारने के समान अर्थ रखते हैं।
अगर हम यह चाहते हैं कि ईश्वर के यहाँ हमें ईश्वर के गवाह का दर्जा हासिल हो तो हमें यह क़ुर्बानी देनी होगी कि दूसरी क़ौमों से हमारे सांसारिक झगड़े, चाहे वह प्रत्यक्ष रूप से सही क्यों न हों, उनको हम एकतरफ़ा तौर पर ख़त्म कर दें, ताकि हमारे और दूसरी क़ौमों के बीच निमंत्रणकर्ता और निमंत्रित का संबंध स्थापित हो। हमारे और दूसरी क़ौमों के बीच वह संतुलित वातावरण अस्तित्व में आए, जिसमें उनके सामने एकेश्वरवाद और परलोक का निमंत्रण प्रस्तुत किया जाए और वे गंभीरता के साथ उस पर चिंतन कर सकें।
हुदैबिया संधि (6 हिजरी) में मुसलमानों ने एकतरफ़ा तौर पर इस्लाम के विरोधियों की सभी आर्थिक और क़ौमी माँगों को मान लिया था। उन्होंने अपने अधिकारों को छोड़ने के लिए ख़ुद अपने हाथ से हस्ताक्षर कर दिए थे, लेकिन मुसलमान जब यह समझौता करके लौटे तो ईश्वर की ओर से यह आयत उतरी— “बेशक हमने तुम्हें खुली जीत दे दी” (क़ुरआन, 48:1)। प्रत्यक्ष रूप में पराजय के समझौते को ईश्वर ने जीत का समझौता क्यों कहा। इसका कारण यह था कि इस समझौते ने मुसलमानों और ग़ैर-मुस्लिमों के बीच मुक़ाबले के मैदान को बदल दिया था। अब इस्लाम और ग़ैर-इस्लाम का मुक़ाबला एक ऐसे मैदान में स्थानांतरित हो गया था, जहाँ इस्लाम स्पष्ट रूप से बेहतर स्थिति (advantegeous position) में था।
ग़ैर-मुस्लिमों की आक्रामकता की वजह से उस समय इस्लाम और ग़ैर-इस्लाम का मुक़ाबला युद्ध के मैदान में हो रहा था। ग़ैर-मुस्लिम के पास हर तरह के ज़्यादा बेहतर लड़ाकू संसाधन थे। यही कारण है कि हिजरत के बाद लगातार लड़ाइयों के बावजूद मामले का फ़ैसला नहीं हो रहा था। अब हुदैबिया में ग़ैर-मुस्लिमों की सभी क़ौमी माँगों को मानकर उनसे यह वचन ले लिया गया कि दोनों पक्षों के बीच दस वर्षों तक प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष (direct or indirect) युद्ध नहीं होगा।
लगातार युद्ध की स्थिति बने रहने के कारण इस्लाम का लोगों को निमंत्रित करने का काम रुका हुआ था। युद्ध के बंद होते ही निमंत्रण का काम पूरी ताक़त के साथ होने लगा। लड़ाई के मैदान में उस समय इस्लाम कमज़ोर था, लेकिन जब मुक़ाबला शांतिपूर्ण प्रचार के मैदान में आ गया तो यहाँ अनेकेश्वरवाद के पास कुछ न था, जिससे वे एकेश्वरवाद की सत्यता का मुक़ाबला कर सकें। नतीजा यह हुआ कि अरब के क़बीले इतनी बड़ी संख्या में इस्लाम में दाख़िल हुए कि कुफ़्र का ज़ोर टूट गया और समझौते के केवल दो वर्ष के अंदर मक्का शहर शांतिपूर्वक जीत लिया गया।
मौजूदा दौर में भी उसी तरह के एक ‘हुदैबिया समझौते’ की ज़रूरत है। मुसलमान दूसरी क़ौमों से हर जगह आर्थिक लड़ाई लड़ रहे हैं। चूँकि मुसलमान अपनी लापरवाही के कारण आर्थिक पहलू से दूसरी क़ौमों की तुलना में बहुत पीछे हो गए हैं। उन्हें हर मोर्चे पर उनसे हार का सामना करना पड़ रहा है। अब ज़रूरत है कि एकतरफ़ा क़ुर्बानी के द्वारा इन मोर्चों को बंद करके मुक़ाबले के मैदान को बदल दिया जाए। इन क़ौमों को आर्थिक प्रतिस्पर्धा (economic competition) के मैदान से हटाकर वैचारिक प्रतिस्पर्धा (ideological competition) के मैदान में लाया जाए। पुराने ज़माने में मुक़ाबले के मैदान का यह परिवर्तन युद्ध को एकतरफ़ा तौर पर ख़त्म करके हासिल किया गया था। आज यह परिवर्तन क़ौमी अधिकारों के अभियान को एकतरफ़ा तौर पर ख़त्म करके हासिल होगा।
राष्ट्रीय हितों की यह क़ुर्बानी एक बहुत ही मुश्किल काम है, मगर इसी खोने में पाने का सारा राज़ छुपा हुआ है। मुसलमान जिस दिन ऐसा करेंगे, उसी दिन इस्लाम की जीत का आग़ाज़ हो जाएगा, क्योंकि वैचारिक क्षेत्र में किसी और के पास कोई चीज़ मौजूद ही नहीं। आर्थिक प्रतिस्पर्धा के मैदान में मुसलमानों के पास ‘परंपरागत हथियार’ हैं और दूसरी क़ौमों के पास ‘आधुनिक हथियार’। जबकि वैचारिक मैदान में मुसलमानों के पास हक़ीक़त है और दूसरी क़ौमों के पास पक्षपात, और हक़ीक़त के मुक़ाबले में पक्षपात ज़्यादा देर तक नहीं ठहर सकता।