वैश्विक वातावरण का परिवर्तन

इस सिलसिले में पहली बात, जिसे जानना ज़रूरी है, वह यह कि वह कौन से हालात हैं, जिनके बीच हमें दावत के काम को अंजाम देना है। संक्षिप्‍त शब्‍दों में, उसका वर्णन इस तरह किया जा सकता है कि हमारे पूर्वजों के लिए दावत इलल्लाह का मतलब अनेकेश्वरवादी दौर (polytheistic era) को ख़त्म करना था। अब हमारे लिए दावत इलल्लाह का मतलब नास्तिकतावादी दौर (atheistic era) को ख़त्म करना है। हमारे पूर्वज अनेकेश्वरवादी दौर को ख़त्म करके एकेश्वरवादी दौर को ले आए। इसके बाद दुनिया में एक नया इतिहास अस्तित्‍व में आया। यह इतिहास हज़ार वर्ष तक सफलता के साथ चलता रहा, यहाँ तक कि सोलहवीं शताब्‍दी ई० में पश्चिमी विज्ञान अस्तित्व में आया। उसके बाद दुनिया का एक नया इतिहास बनना शुरू हुआ। बीसवीं शताब्‍दी में आकर यह इतिहास अपनी बुलंदी पर पहुँच गया। अब दोबारा यह हाल हो गया है कि इस्‍लाम के अस्तित्व में आने से पहले जिस तरह आचार-विचार के सभी विभागों पर अनेकेश्वरवाद का प्रभुत्‍व था, उसी तरह अब आचार-विचार के सभी विभागों पर नास्तिकता का प्रभुत्व हो चुका है; यहाँ तक कि आज धर्म भी ज्ञानात्‍मक रूप से नास्तिकता का परिशिष्‍ट (appendix) बन चुका है। इससे अलग उसकी कोई स्‍थायी हैसियत नहीं।

यहाँ एक हास्यपूर्ण बात वर्णन करने योग्य है, जो मौजूदा दौर में धर्म के रूप को बहुत अच्‍छी तरह स्‍पष्‍ट करती है। जर्मन विचारक ई० एफ़० शूमाकर ने अपनी एक घटना का वर्णन इन शब्‍दों में किया है—

“On a visit to Leningrad some year ago (August, 1968) I consulted a map to find out where I was, but I could not make it out. I could see several enormous churches, yet there was no trace of them on my map. When finally an interpreter came to help me, he said, “We don’t show churches on our maps.”

E.F. Schumacher

(A guide for the Perplexd, London, 1981, p. 9)

 “अगस्‍त, 1968 में मैं रूस के शहर लेनिनग्राड गया। वहाँ एक दिन मैं एक नक़्शा देख रहा था, ताकि मुझे पता चल सके कि मैं कहाँ हूँ, मगर मैं उसको न जान सका। मेरी नज़रों के सामने कई बड़े-बड़े चर्च थे, मगर मेरे नक़्शे में उनका कोई निशान मौजूद न था। आख़िरकार एक अनुवादक (Translator) ने मेरी सहायता की। उसने कहा कि हम अपने नक़्शों में चर्च को नहीं दिखाते।”

यह आंशिक घटना उस पूरी परिस्थिति की तस्‍वीर है, जो मौजूदा दौर में सामने आई है। आधुनिक इंसान ने ईश्वर को अपने सभी ज्ञानात्‍मक और वैचारिक नक़्शों से निकाल दिया है। मौजूदा दौर में भूगोल, इतिहास, भौतिक विज्ञान, वनस्‍पति विज्ञान, जीव विज्ञान, खगोल विज्ञान आदि सभी विद्याएँ बहुत विस्‍तार के साथ संकलित की गई हैं, लेकिन इन विद्याओं में कहीं भी ईश्वर का वर्णन नहीं। एक आदमी, जिसे नज़र हासिल हो, जब वह आँख उठाकर कायनात को देखता है तो हर ओर उसे ईश्वर की निशानियाँ साफ़ नज़र आतीं है, लेकिन संग्रहीत विद्याओं में ईश्वर हर जगह मौजूद चीज़ नहीं है। इन विद्याओं को पढ़ने वाला कहीं भी ईश्वर का कोई हवाला नहीं पाता।

इन हालात में एकेश्वरवाद के निमंत्रण का काम मानो ईश्वर को पुन: इंसानी सोच के नक़्शे पर लिखना है। विश्‍व स्‍तर पर एक ऐसी वैचारिक क्रांति लाना है कि इंसान दोबारा ईश्वरीय परिभाषाओं में सोचने के योग्य हो सके। इसके बाद ही यह संभव है कि एकेश्वरवाद और परलोक की बात आदमी की समझ में आए और इसे वह हक़ीक़त समझकर स्‍वीकार कर सके। हमारे पूर्वजों ने इंसानी सोच की दुनिया में अनेकेश्वरवाद की मानसिकता को तोड़कर एकेश्वरवाद की मानसिकता को स्‍थापित किया था। अब हमें दोबारा नास्तिकता की मानसिकता को एकेश्वरवाद की मानसिकता पर इंसानी सोच की व्‍यवस्‍था को स्‍थापित करना है। निमंत्रण के मामले की इससे कम कल्‍पना निमंत्रण के मामले को छोटा समझना (underestimation) है, जिसकी कोई क़ीमत न तो बंदों के नज़दीक है और न ही ईश्वर के नज़दीक।

Maulana Wahiduddin Khan
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