“हमने क़ुरआन को उतारा है और हम ही इसकी हिफ़ाज़त करने वाले हैं।”
(क़ुरआन, 15:9)
क़ुरआन 23 वर्ष में उतरा। सबसे पहली आयत जो उतरी, वह ‘आयते-इल्म’ (96:1) थी और आख़िरी आयत ‘आयते-आख़िरत’ (2:281)। शुरुआती 23 वर्ष तक ख़ुद पैग़ंबर-ए-इस्लाम की शख़्सियत क़ुरआन को लेने का ज़रिया थी। अपने बाद आपने कुछ लोगों को नामज़द कर दिया कि मेरे बाद उनसे तुम क़ुरआन सीखना। यह वे लोग थे, जिन्होंने बहुत ही सही तरीक़े से पूरे क़ुरआन को अपने सीने में सुरक्षित कर लिया था और अरबी भाषा से गहरी जानकारी और पैग़ंबर-ए-इस्लाम की निरंतर संगति की वजह से इस योग्य हो गए थे कि प्रामाणिक रूप से क़ुरआन की शिक्षा दे सकें।
दूसरे ख़लीफ़ा हज़रत उमर फ़ारूक़ के ज़माने में एक आदमी कूफ़ा से मदीना आया। बातचीत के दौरान उसने आपसे कहा कि कूफ़ा में एक आदमी याददाश्त के आधार पर क़ुरआन पढ़ाता है। यह सुनकर हज़रत उमर ग़ुस्सा हो गए, मगर जब यह मालूम हुआ कि वह बुज़ुर्ग अब्दुल्ला बिन मसऊद हैं तो आप ख़ामोश हो गए (इस्तिआब, जिल्द 1, पेज नं० 377)। इसका कारण यही था कि अब्दुल्ला बिन मसऊद को पैग़ंबर-ए-इस्लाम की अनुमति प्राप्त थी। आपके द्वारा जिन लोगों को यह अधिकार प्राप्त था उनमें कुछ प्रमुख लोग यह थे— उस्मान, अली, उबई इब्ने-कअब, ज़ैद बिन साबित, इब्ने-मसऊद, अबू दरदा, अबू मूसा अशअरी, सालिम मौला अबी हुज़ैफ़ा।
यह लोग हमेशा नहीं रह सकते थे। यह अंदेशा बना हुआ था कि किसी समय ऐसे सारे लोग ख़त्म हो जाएँ और क़ुरआन दूसरे लोगों के हाथों में जाकर मतभेद का शिकार हो जाए। यमामा की लड़ाई (12 हिजरी) के बारे में ख़बर आई कि बड़ी संख्या में मुसलमान क़त्ल हो गए हैं। उमर, पहले ख़लीफ़ा हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ के पास आए और कहा कि अब क़ुरआन की सुरक्षा की इसके अलावा कोई स्थिति नहीं है कि इसे लिखित रूप में नियमपूर्वक संकलित कर लिया जाए। इस अवसर पर रिवायत में इन शब्दों का वर्णन है— “जब सालिम मौला अबू हुज़ैफ़ा का क़त्ल हुआ तो उमर को ख़तरा महसूस हुआ कि कहीं क़ुरआन ज़ाया न हो जाए, वह अबू बक्र के पास आए।”
(फ़त्ह-उल-बारी, जिल्द 9, पेज नं० 9)
यमामा की जंग में पैग़ंबर के लगभग 700 साथी मारे गए थे, मगर उमर को ‘क़ुरआन को नुक़सान’ होने का ख़तरा सालिम की मौत की वजह से हुआ। इसकी वजह यह थी कि वह उन कुछ ख़ास साथियों में से थे, जिन्हें पैग़ंबर-ए-इस्लाम ने क़ुरआन पढ़ाने की इजाज़त दी थी।
जैसा कि साबित है कि पैग़ंबर-ए-इस्लाम क़ुरआन के उतरते ही उसे फ़ौरन लिखवा दिया करते थे। लिखने की अहमियत इतनी ज़्यादा थी कि सूरह निसा आयत नं० 195 उतर चुकी थी। बाद में ‘ग़ैरी-ऊलीज़्ज़रर’ के शब्द इस आयत में वृद्धि के रूप में उतरे। इमाम मालिक के शब्दों में यह एक शब्द भी आपने उसी समय लिखने वाले को बुलवाकर लिखवाया।
जब आयत ‘ला यसतवी अल-क़ायदून’ आख़िर तक उतरी तो पैग़ंबर हज़रत मुहम्मद ने कहा कि ज़ैद को बुलाओ और वह तख़्ती, क़लम, और स्याही लेकर आएँ। जब वह आ गए तो कहा— “लिखो, ला यसतवी।” (सही बुख़ारी)
आपका नियम था कि अवतरित आयत को लिखवाने के बाद उसे पढ़वाकर सुनते। ज़ैद बिन साबित का बयान है कि अगर कोई हिस्सा लिखने से छूट जाता तो उसे ठीक कराते। जब यह सब काम पूरा हो जाता, तब लोगों के बीच प्रचार-प्रसार का हुक्म दिया जाता। लिखने वालों की संख्या 42 तक मानी गई है (अत-तरातीबुल इदारिया, जिल्द 1,पेज नं०16)। इब्ने-अब्दुल बर ने ‘ईक़दुल फ़रीद’ (जिल्द 4,पेज नं०114) में लिखा है कि हंज़ला इब्ने-रबी इन सभी लिखने वालों के सरदार थे यानी उन्हें हुक्म था कि वह हर समय आपके साथ रहें। आपकी इस व्यवस्था का नतीजा यह था कि जब आपकी मौत हुई तो बड़ी संख्या में लोगों के पास क़ुरआन के अंश लिखे हुए मौजूद थे। एक संख्या उन लोगों की भी थी, जिनके पास पूरा क़ुरआन अपने मूल क्रम के साथ संग्रहीत रूप में मौजूद था। इनमें से चार विशेष रूप से वर्णन-योग्य हैं— अबू दरदा, मआज़ बिन जबल, ज़ैद बिन साबित और अबू ज़ैद।
‘पैग़ंबर-ए-इस्लाम की मौत हुई तो चार आदमियों के पास पूरा क़ुरआन लिखित रूप में मौजूद था— अबू दरदा, मआज़ बिन जबल, ज़ैद बिन साबित और अबू ज़ैद।’
(फ़ज़ाईलुल क़ुरआन लि-इब्ने-कसीर, जिल्द 1, पृष्ठ 158)
क़ुरआन पूरी तरह से लिखा हुआ पैग़ंबर के दौर में मौजूद था, हालाँकि किताब के रूप में एक जगह सजिल्द नहीं हुआ था। क़स्तलानी ने लिखा है—
“क़ुरआन पूरी तरह से पैग़ंबर-ए-इस्लाम के ज़माने में ही लिखा जा चुका था, लेकिन सारी सूरतों को एक जगह जमा नहीं किया गयाथा।”
(अल-कितानी, जिल्द 2, पेज नं०384)
हारिस मुहासबी, जो इमाम हंबल के समकालीन हैं, ने अपनी किताब ‘फ़हमुल सुनन’ में लिखा है—
“क़ुरआन की सूरतें उसमें अलग-अलग लिखी हुई थीं। अबू बक्र के हुक्म से संग्रहकर्ता (ज़ैद बिन साबित) ने एक जगह सब सूरतों को जमा किया और एक धागे से सबको व्यवस्थित किया।”
क़ुरआन को लिखने के तीन चरण थे— लेखन, संपादन और जमा। पहले चरण में जब कोई आयत या सूरत उतरती तो उसे किसी टुकड़े पर लिख लिया जाता था। इस सिलसिले में निम्न चीज़ों के नाम आए हैं—
रुक़ाअ— चमड़ा
लिख़ाफ़— पत्थर की सफ़ेद पतली तख़्तियाँ (सलेट)
कत्फ़— ऊँट के बाज़ू की गोल हड्डी
असीब— खजूर की शाख़ का चौड़ा हिस्सा
दूसरे चरण की प्रक्रिया को हदीस में संपादन से स्पष्ट किया गया है (मुस्तदरक हाकिम)। सबसे पहले हर आयत को अवतरित होते ही लिख लिया जाता था, फिर जब सूरत पूरी हो जाती तो पूरी सूरत को क्रमबद्ध रूप में चमड़े पर लिखा जाता था। इस तरह संपादित क़ुरआन (पूरा या अधूरा) पैग़ंबर के दौर में ही बड़ी संख्या में लोगों के पास आ चुका था।उमर के ईमान लाने की प्रसिद्ध घटना में यह बात है कि अपनी बहन को चोट पहुँचाने के बाद आपने कहा कि वह किताब मुझे दिखाओ, जो अभी तुम पढ़ रही थीं (इब्ने-हिशाम)। बहन ने जवाब दिया, “नापाकी के साथ तुम इसे नहीं छू सकते।” फिर आप नहाए और उनकी बहन ने किताब उन्हें दी।
तीसरे चरण के कार्य को ‘जमा’ करने से स्पष्ट किया गया है यानी पूरे क़ुरआन को एक ही जिल्द में जमा करके लिखना। पैग़ंबर के ज़माने में क़ुरआन अलग-अलग वस्तुओं पर विभिन्न हिस्सों में होता था। इसलिए सारी सूरतों को एक ही आकार और साइज़ के पन्नों पर लिखवाकर एक ही जिल्द में बाँधने का तरीक़ा आपके समय में प्रचलित न था। पैग़ंबर के केवल चार साथी — उबई बिन कअब, मआज़ बिन जबल, अबू ज़ैद, ज़ैद बिन साबित थे, जिन्होंने पूरा क़ुरआन पैग़ंबर के दौर में एकत्रित रूप में तैयार कर लिया था, फिर भी उनकी हैसियत निजी संग्रहों की थी। पहले ख़लीफा अबू बक्र ने जो काम किया, वह यही था कि उन्होंने राज्य के प्रबंधन के तहत सारी सूरतों को एक ही आकार और साइज़ पर लिखवाकर एक जिल्द में तैयार कराया। ज़ैद बिन साबित ने काग़ज़ के टुकड़े पर अबू बक्र के हुक्म से क़ुरआन की सारी सूरतों को लिखा था। कुछ जाँचकर्ताओं ने यह विचार व्यक्त किया है कि जब एक ही आकार के पन्ने बनाए जाते थे तो उनको क़रातीस (काग़ज़ के टुकड़े) कहते थे। एक साइज के पन्नों पर लिखे होने के कारण अबू बक्र की हुकूमत में संकलित किए गए उस संस्करण को रुबाअ कहते थे। रुबाअ का अनुवाद चौकोर किया जा सकता है। इससे मालूम होता है कि उन पन्नों की लंबाई-चौड़ाई संभवत: बराबर थी। कहा जाता है कि उमर के दौर में मिस्र, इराक़, शाम (मौजूदा सीरिया) और यमन आदि में क़ुरआन के एक लाख से ज्यादा संस्करण (editions) मौजूद थे।
बाद के ज़माने में लिखा हुआ क़ुरआन ही लोगों के लिए क़ुरआन को सीखने का ज़रिया बन सकता था, फिर भी एक ख़तरा अब भी था। पवित्र किताब में बहुत ही सामान्य अंतर भी एक बड़े मतभेद का कारण बन जाता है, इसलिए यह अंदेशा था कि अलग-अलग लोग अगर अपने-अपने तौर पर क़ुरआन लिखें तो लिखने और पढ़ने का अंतर मुसलमानों के अंदर बहुत बड़ा मतभेद खड़ा कर देगा और उसे ख़त्म करने का कोई रास्ता बाक़ी न रहेगा, जैसे— सूरह फ़ातिहा में एक ही शब्द को केवल बोलने के अंतर से कोई ‘मालिकी यौमिद्दीन’ लिखता है तो कोई ‘मलिकि यौमिद्दीन’ और कोई ‘मलीकी यौमिद्दीन’। फिर जैसे-जैसे ज़माना गुज़रता, लेखन-शैली और लिपि का अंतर नए-नए मतभेद पैदा करता चला जाता। इसलिए उमर की सलाह से पहले ख़लीफ़ा अबू बक्र ने तय किया कि सरकारी प्रबंधन में क़ुरआन का एक प्रामाणिक संस्करण लिखवा दिया जाए और पढ़ने में अंतर की संभावना को हमेशा के लिए ख़त्म कर दिया जाए।
इसके लिए ज़ैद बिन साबित सबसे ज़्यादा क़ाबिल आदमी थे, क्योंकि वह हज़रत मुहम्मद के लिपिक (scribe) थे। ज़ैद और उबई बिन कअब, दोनों ‘अरज़ा-ए-अख़ीरह’ में शामिल थे और उन्होंने हज़रत मुहम्मद से सीधे तौर पर पूरे क़ुरआन को पैग़ंबरी क्रम के साथ सुना था। उन्हें पूरा क़ुरआन पूरी तरह से याद था और इसके साथ ही पूरा क़ुरआन संकलित रूप से लिखा हुआ भी उनके पास मौजूद था। पहले ख़लीफ़ा ने उन्हें हुक्म दिया कि तुम क़ुरआन इकट्ठा करने के लिए खोजबीन शुरू करो और उसे जमा कर दो। इस बात के तय होने के बाद उमर ने मस्जिद में ऐलान कर दिया कि जिसके पास क़ुरआन का जो भी टुकड़ा मौजूद हो, वह ले आए और ज़ैद के सामने पेश करे।
पहले ख़लीफ़ा के ज़माने में क़ुरआन ‘काग़ज़’ यानी चमड़े, पत्थर और खजूर के पेड़ की छाल आदि पर लिखा हुआ तो मौजूद था और बहुत से लोगों के सीनों में, पैग़ंबर-ए-इस्लाम से सुनकर, संकलित रूप में सुरक्षित था लेकिन वह एक किताब की तरह जिल्द के रूप में अब तक जमा नहीं हुआ था। पहले ख़लीफ़ा ने हुक्म दिया कि इसे जिल्द के रूप में जमा कर दो—
“हारिस मुहासबी अपनी किताब फ़हमुल सुनन में लिखते हैं कि क़ुरआन का लेखन कोई नई बात नहीं थी, क्योंकि पैग़ंबर हज़रत मुहम्मद उसे लिखवाया करते थे; लेकिन वे चमड़े, हड्डी और खजूर की शाख़ पर अलग-अलग तरह से लिखा हुआ था। अबू बक्र सिद्दीक़ ने उसे संकलित रूप में इकट्ठा लिखने का हुक्म दिया और यह उन पन्नों की तरह था, जो पैग़ंबर-ए-इस्लाम के घर में पाए गए। उनमें क़ुरआन छितरे हुए रूप में लिखा हुआ था। इसी को जमा करने वाले ने जमा कर दिया और एक धागे में इस तरह पिरो दिया कि उसका कोई हिस्सा ज़ाया न हो।” (अल-इतक़ान, जिल्द 1, पेज नं० 40)
अबू बक्र सिद्दीक़ के दौर में एकत्रित क़ुरआन का यह मतलब नहीं है कि इससे पहले क़ुरआन जमा न था और आपके शासन के दौर में इसे जमा किया गया। क़ुरआन इससे पहले भी पूरी तरह जमा था। ‘अरज़ा-ए-अख़ीरह’ के बहुत से सहाबा को शामिल करके आपने उसकी पुष्टि भी कर दी थी। क़ुरआन के एकत्रीकरण का यह प्रबंधन केवल इसलिए हुआ कि थोड़े से संभावित अंतर को बाक़ी न रहने दिया जाए, जो याददाश्त और लेखन में अंतर के कारण हो सकते थे। जैसे—उमर ने ज़ैद बिन साबित को यह आयत सुनाई—
“मिनल मुहाजिरीना अल-अंसारि वल्लज़ीना इत्तबाऊहुम बि इहसान।”
“मुहाजिरीन, अंसार और जिन लोगों ने अच्छाई के साथ उनका अनुसरण किया।”
ज़ैद ने कहा कि मुझे तो यह आयत जिस तरह याद है, उसमें अंसार और अल्लज़ीना के बीच एक ‘वाव’ (और) भी है। तब इस बात की जाँच-पड़ताल शुरू हुई और आख़िरकार अलग-अलग लोगों की गवाहियों से यह साबित हुआ कि ज़ैद की राय सही थी। इस तरह किताब में आयत को ‘वाव’ के साथ इस तरह लिखा गया।
“मिनल मुहाजिरीना वल-अंसारि वल्लज़ीना इत्तबाऊहुम बिइहसान।” (9:100)
मौलाना बहरुलउलूम अपनी किताब ‘शरह सुल्लम’ में लिखते हैं, “क़ुरआन का यह क्रम, जिस पर वह आज है, पैग़ंबर-ए-इस्लाम हज़रत मुहम्मद से साबित है। क़ुरआन को पढ़ने की दस शैलियों ने क़ुरआन को इसी क्रम से नक़ल किया है। यह दस शैलियाँ वह हैं, जो इस्लामी दुनिया में सभी को स्वीकार हैं और जिस पर सभी धार्मिक विद्वानों की सहमति है।”
ज़ैद बिन साबित ने जब पूरा क़ुरआन संकलित कर लिया तो उनकी किताब के अलावा जितने विभिन्न अंश जमा हुए थे, उन सबको जलाकर ख़त्म कर दिया गया। यह सजिल्द किताब पहले ख़लीफ़ा अबू बक्र के पास रख दी गई। आपकी मौत के बाद वह दूसरे ख़लीफ़ा उमर फ़ारूक़ के पास रही। फिर आपकी मौत के बाद वह हफ़्सा बिंते-उमर के पास सुरक्षित रही।
जब तीसरे ख़लीफा हज़रत उस्मान के शासन का समय आया तो उस समय तक इस्लाम बहुत फैल चुका था और मुसलमानों की संख्या बहुत बढ़ गई थी। उस समय अलग-अलग इलाक़ों के मुसलमानों के लिए क़ुरआन सीखने का ज़रिया पैग़ंबर के साथी थे, जो मदीना से निकलकर इस्लामी देशों में हर तरफ़ फैल गए थे, जैसे— सीरिया में उबई बिन कअब से क़ुरआन सीखते थे, कूफ़ा में अब्दुल्ला बिन मसऊद से, इराक़ में अबू मूसा अशअरी से। फिर भी उच्चारण और लेखन में भिन्नता के कारण दोबारा लोगों में क़ुरआन के बारे में मतभेद होने लगे, यहाँ तक कि वे एक-दूसरे को काफ़िर कहने लगे (तिबयान अल-जज़ाइरी)। इब्ने-अबी दाऊद ने ‘किताब-उल-मसाहिफ़’ में लिखा है कि वलीद बिन उक़बा के ज़माने में एक बार वह कूफ़ा की मस्जिद में थे। हुज़ैफ़ा बिन अल-यमान भी उस समय मस्जिद में मौजूद थे। मस्जिद में एक गिरोह क़ुरआन के वर्णन में व्यस्त था। एक आदमी ने कोई आयत पढ़ी और कहा, “क़िरआतु अब्दुल्ला बिन मसऊद।” दूसरे ने इसी आयत को किसी और ढंग से पढ़ा और कहा, “क़िराअतु अबी मूसा अल-अशअरी।” हज़रत हुज़ैफ़ा यह सुनकर ग़ुस्सा हो गए। उन्होंने खड़े होकर एक संक्षिप्त भाषण दिया और कहा—
“तुमसे पहले जो लोग थे, उन्होंने इसी तरह मतभेद किया। ख़ुदा की क़सम! मैं सवार होकर अमीरुल मोमिनीन (उस्मान) के पास जाऊँगा।”
अम्मारह बिन ग़ज़िय्या की रिवायत के अनुसार, हुज़ैफ़ा बिन अल-यमान वापस आए। वह एक फ़ौजी अफ़सर थे और उस समय आर्मीनिया और अज़रबैजान के फ़ौजी अभियान से लौटे थे। वह मदीना पहुँचे तो अपने घर जाने के बजाय सीधे तीसरे ख़लीफा उस्मान के पास आए और कहा—
“ऐ अमीरुल मोमिनीन ! लोगों को सँभालिए, इससे पहले कि लोग ईश्वर की किताब के बारे में मतभेद में पड़ जाएँ, जिस तरह यहूदी और इसाई मतभेद में पड़ गए।”
उस्मान के ज़माने में ऐसे लोग इस्लाम में दाख़िल हो गए थे, जिनकी मातृभाषा अरबी न थी। ज़ाहिर हैं अरबी शब्दों व अक्षरों के सही उच्चारण वह नहीं कर सकते थे । ख़ुद अरब के विभिन्न क़बीलों की बोलचाल (dialects) अलग-अलग थी। इससे क़ुरआन के पढ़ने में मतभेद पैदा हुआ, नतीजे के तौर पर अनुकरण और लेख में मतभेद पैदा हो गया। इब्ने-क़ुतैबा ने लिखा है कि क़बीला बनी हुज़ैल ‘हत्ता’ को ‘अत्ता’ पढ़ता था। इब्ने-मसऊद इसी क़बीले से संबंध रखने के कारण ‘हत्ताईन’ को ‘अत्ताईन’ पढ़ते थे। क़बीला बनू असद ‘तअलमूना’ की ‘ते’ को ‘ज़ेर’ के साथ (तिअलमून) पढ़ता था। मदीने के लोग ‘ताबूत’ का ‘उच्चारण’ ‘ताबूह’ करते थे। क़बीला क़ैस ‘काफ़’ स्त्रीलिंग का उच्चारण ‘शीन’ से करते थे। इसी तरह क़बीला तमीम ‘अलिफ़ नून’ के ‘अन’ शब्द को ‘ऐन नून’ ‘अन’ के रूप में पढ़ते थे। एक क़बीला ‘सीन’ अक्षर को ‘ते’ अक्षर के रूप में अदा करता था और ‘अऊज़ू बि रब्बिन्नात मलिकिन्नात इलाहीन्नात’ पढ़ता था आदि।
इन हालात में पैग़ंबर के साथी हुज़ैफ़ा बिन यमान की सलाह से तीसरे ख़लीफ़ा उस्मान ने सिद्दीक़ी संस्करण की नक़लें तैयार कराईं और सारे शहरों में इसका एक-एक संस्करण भेज दिया। यह काम दोबारा ज़ैद बिन साबित अंसारी के नेतृत्व में किया गया और उनकी मदद के लिए ग्यारह लोग नियुक्त किए गए। तीसरे ख़लीफ़ा के हुक्म के अनुसार इस कमेटी ने क़ुरआन को क़ुरैश के उच्चारण के अनुसार लिखा, जो कि पैग़ंबर-ए-इस्लाम का उच्चारण था। इसके बाद आपने हुक्म दिया कि दूसरे संस्करण, जो लोगों ने अपने आप लिखे हैं, वह उनको हुकूमत को सौंप दें। इस तरह उनको जमा करके आग के हवाले कर दिया गया।
इस तरह क़ुरआन को लिखावट यानी लिपि और लेखन के आधार पर एक बना दिया गया, लेकिन स्वाभाविक मतभेद के कारण सारे लोग एक तरह से क़ुरआन को पढ़ने में समर्थ (capable) नहीं हो सकते थे, इसलिए लोगों को आज़ादी दे दी गई कि वे ‘सात’ तरीक़ों (dialects) में पढ़ सकते हैं। अबू बक्र सिद्दीक़ के क़ुरआन जमा करने का काम पैग़ंबर हज़रत मुहम्मद की मौत के एक वर्ष बाद पूरा हुआ था, जबकि उस्मान के समय क़ुरआन को क्रमबद्ध करने का काम पैग़ंबर की मौत के 15 वर्ष बाद हुआ।
तीसरी शताब्दी के प्रसिद्ध सूफ़ी और विद्वान हारिस मुहासबी का कथन ‘इतक़ान’ में सियूती ने अनुकरण किया है—
“लोगों में मशहूर है कि उस्मान क़ुरआन के संग्रहकर्ता हैं, हालाँकि यह सही नहीं। उन्होंने केवल यह किया कि उन्होंने लोगों को पढ़ने की एक शैली पर जमा कर दिया ।”
कुछ लोगों ने उपहास (redicule) और दुश्मनी के तौर पर इस तरह की बातें फैला दीं कि उस्मान ने क़ुरआन में परिवर्तन कर डाले, जैसे— क़ुरआन की आयत ‘वक़िफ़ुहूम इन्नहुम मसउलून’ (37:24) के आख़िर में ‘अन विलायती अली’ के शब्द थे, जिन्हें उस्मानी ज़माने में जानबूझकर क़ुरआन से निकाल दिया गया, यहाँ तक कि कुछ लोगों ने यह हास्यपद बात मशहूर कर दी कि ‘विलायत’ के नाम से एक अलग सूरह क़ुरआन में थी,जिसमें हज़रत मुहम्मद के घरवालों के नाम और उनके अधिकारों आदि का विस्तृत वर्णन था जिसे क़ुरआन से निकाल दिया गया। इस तरह की बातें बिल्कुल बेबुनियाद हैं। ‘इन्ना अलैना जमआहु’ (75:17) शिया व सुन्नी, दोनों के निकट सहमतिपूर्ण क़ुरआन की आयत है। फिर क़ुरआन को ईश्वर की किताब मानते हुए कैसे कोई आदमी इस तरह की बेबुनियाद बातों को मान सकता है। प्रसिद्ध शिया धार्मिक विद्वान अल्लामा तबरसी ने लिखा है—
सभी विद्वानों (शिया और सुन्नी दोनों) की सहमति है की क़ुरआन में कोई वृद्धि नहीं हुई । कुछ लोग कहते हैं कि क़ुरआन में कमी हुई है लेकिन वह भी गलत है।
हक़ीक़त यह है कि कभी भी जाँचकर्ताओं ने इस तरह के दावे नहीं किए, बल्कि यह अवसरवादियों के शोशे थे, जो उन्होंने राजनीतिक उद्देश्य के लिए गढ़े थे। हज़रत मुहम्मद के घरवालों की श्रेष्ठता के सारे प्रसंग इसलिए गढ़े गए, ताकि उनके लिए ख़िलाफ़त (सत्ता) का अधिकार साबित हो जाए, जैसे— एक अपरिचित आदमी मुहम्मद बिन जहम अल-हिलाली थे। उन्होंने इमाम जाफ़र सादिक़ की ओर इशारा करके यह बात मशहूर की कि क़ुरआनी आयत ‘उम्मतुन हिया अरबा मिन उम्मतिन’ (16:92) में परिवर्तन किया गया है। जबकि असल शब्द थे ‘अइम्मातुना हिया अज़का मिन अइम्मातिकुम’ (तफ़्सीर रूहुलमआनी, मुक़द्दमा) यानी हमारे बनी हाशिम के इमाम व शासक बनी उमैय्या के शासकों से बेहतर हैं।
जैसा कि निवेदन किया गया, उस्मान ने 25 हिजरी में हफ़्सा बिंते-उमर के पास से अबू बक्र सिद्दीक़ का जमा किया हुआ क़ुरआन मँगवाया। उस समय क़ुरआन के लिखने वाले पहले आदमी ज़ैद बिन साबित मौजूद थे। उनके मार्गदर्शन में आपने 12 लोगों का दल नियुक्त किया। उन्होंने सिद्दीक़ी संकलन के आधार पर सात संस्करण तैयार किए। फिर यह संस्करण सभी इस्लामी देशों में भेज दिए गए। उस्मान ने हुक्म दिया कि इसके सिवा जितनी भी कॉपियाँ लोगों ने अपने आप ही लिख ली हैं, वह सब जला दी जाएँ। एक संस्करण उन्होंने राजधानी मदीना में रखा और उसका नाम ‘अल-इमाम’ रखा और शेष साम्राज्य के हर हिस्से में भेज दिए। मक्का, सीरिया, यमन, बहरीन, बसरा, कूफ़ा में हर जगह पर एक संस्करण भेजा।
यह किताब बाद की शताब्दियों में बहुत अच्छे ढंग से पीढ़ी-दर-पीढ़ी स्थानांतरित होती रही, यहाँ तक कि वह प्रेस के दौर में पहुँच गई, जिसके बाद नष्ट होने या परिवर्तन होने का कोई सवाल नहीं। इस शुरुआती संस्करण के साथ बाद के संस्करणों की समानता का कितना ज़्यादा प्रबंध किया गया है, इसकी दो छोटी-सी मिसाल लीजिए। सूरह मोमिनून की आयत नंबर 108 में ‘क़ाला’ (अलिफ़ के साथ) लिखा हुआ है और यही शब्द इसी सूरह की अगली आयत नंबर 112 में ‘क़ाल’ (बग़ैर अलिफ़) लिखा गया है। इस तरह शुरुआती कुरआन में जो शब्द जिस रूप में लिखा हुआ था, ठीक उसी तरह उसको लिखा जाता रहा, चाहे एक ही शब्द दो जगह दो लिपि के साथ क्यों न हो। इसी तरह सूरह क़ियामह की आयत ‘व क़ीला मन’ के बाद पढ़ने वाला थोड़ी देर विराम के लिए ठहरता है, फिर ‘राक़’ पढ़ता है। इसका कारण केवल यह है कि पैग़ंबर-ए-इस्लाम ने इस मौक़े पर हल्का-सा विराम किया था। क़ुरआन में इस तरह के दूसरे अनेक स्थान हैं, मगर कभी क़ुरआन पढ़ने वालों को यह विचार नहीं आया कि अपने आप दूसरे स्थानों पर भी इसी तरह विराम देकर पढ़ना शुरू कर दें।
आज जो क़ुरआन मुसलमानों में प्रचलित है, उसकी प्रामाणिकता में किसी वर्ग का कोई मतभेद नही, यहाँ तक कि शिया जाँचकर्ता विद्वान भी इस मामले में सहमत हैं। किताब ‘तारीख़ुल क़ुरआन लि-अबी अब्दुल्ला अज़्ज़नजानी शीयी’ (पेज नं० 46) में अनुकरण किया गया है कि अली बिन मूसा अल-मारूफ़ इब्ने-ताऊस (589-664 हिजरी), जो शिया जाँचकर्ता विद्वानों में से हैं, उन्होंने अपनी किताब ‘सादुस्सऊद’ में शहरिस्तानी से अनुकरण किया है—
“वह कहते हैं कि मैंने हज़रत अली बिन अबी तालिब को यह कहते हुए सुना कि ऐ लोगो ! ईश्वर से डरो ! उस्मान के मामले में हद से न गुज़रो (exaggeration)। यह न कहो कि उन्होंने क़ुरआन को जलाया। ईश्वर की सौगंध ! उन्होंने नहीं जलाया, लेकिन उस समय उन्होंने पैग़ंबर के साथियों के एक दल को इकट्ठा किया था और पूछा था कि तुम क़ुरआन को पढ़ने के मतभेद के बारे में क्या कहते हो। एक आदमी दूसरे आदमी से मिलता है और कहता है कि मेरा पढ़ना तुम्हारे पढ़ने से बेहतर है। इस तरह की बात कुफ़्र तक जाती है। साथियों ने कहा कि आपकी क्या राय है? उन्होंने कहा कि मैं चाहता हूँ कि सभी लोगों को एक किताब पर इकट्ठा कर दूँ, क्योंकि तुम अगर आज मतभेद में पड़ गए तो तुम्हारे बाद के लोग और ज़्यादा मतभेद में पड़ेंगे। पैग़ंबर के सभी साथियों ने कहा कि हाँ, आपकी राय से हम सहमत हैं।’’
क़ुरआन की यह एक ऐसी विशेषता है, जिसे दुश्मनों तक ने स्वीकार किया है। सर विलियम म्योर लिखते हैं—
“मुहम्मद की मौत के चौथाई शताब्दी के बाद ही ऐसे विवाद और गुटबंदियाँ हो गईं, जिसके परिणामस्वरूप उस्मान को क़त्ल कर दिया गया और यह मतभेद आज भी बाक़ी हैं, मगर इन सब वर्गों का क़ुरआन एक ही है। हर ज़माने में समान रूप से सब वर्गों का एक ही क़ुरआन पढ़ना इस बात का रद्द न होने वाला सबूत है कि आज हमारे सामने वही किताब है, जो उस बदक़िस्मत ख़लीफ़ा उस्मान के हुक्म से तैयार की गई थी। शायद पूरी दुनिया में दूसरी ऐसी कोई किताब नहीं है, जिसके शब्द (text) बारह शताब्दियों तक उसी तरह बिना किसी परिवर्तन के बाक़ी हों।’’
(Life of Mohammad, 1912)
लेनपूल ने इस हक़ीक़त को इन शब्दों में स्वीकार किया है—
“क़ुरआन की बड़ी ख़ूबी यह है कि उसकी असलियत में कोई संदेह नहीं। हर अक्षर जो हम आज पढ़ते हैं, उस पर यह भरोसा कर सकते हैं कि लगभग तेरह शताब्दियों से अपरिवर्तित रहा है।”
(Selection from the Quran)
जर्मन खोजकर्ता वॉन हेम ग़ैर-मुस्लिम मुस्तशरिक़ीन (rientalists) का व्याख्या करते हुए लिखते हैं—
“हम क़ुरआन को मुहम्मद का कथन उसी तरह मानते हैं, जिस तरह मुसलमान उसे ख़ुदा का कथन मानते हैं।” (ऐजाज़-उत-तनज़ील, पे नं० 500)
उस्मानी ज़माने तक क़ुरआन के जितने संस्करण लिखे गए, वह सब हैरी लिपि में थे। चौथे ख़लीफ़ा अली के ज़माने में लिपि में सुधार हुआ और कूफ़ी लिपि अस्तित्व में आई, जो पिछली लिपि का उन्नत रूप थी। अली के ख़ास सहयोगी अबुल असवद अद्दौली (69 हिजरी) ने पहली बार इस लिपि को बनाया और फिर बनी उमैय्या के ज़माने में उसकी और अधिक उन्नति हुई। क़ुरआन में मात्राएँ लगाने की शुरुआत भी अबुल असवद अद्दौली ने चौथे ख़लीफा अली के ज़माने में की। इसी की बुनियाद पर हज्जाज बिन यूसुफ़ ने बाद में क़ुरआन के नियमानुसार मात्राएँ लगे हुए संस्करण तैयार कराए। आज तक क़ुरआन ठीक उसी शैली में लिखा जा रहा है।