आह इन्सान
इन्सान ख़ुदा को नाराज़ करने वाले अल्फ़ाज़ बोलता है। वह भूल जाता है कि उसका ख़ुदा उसको देख रहा है। इन्सान जहन्नमी कर्म करता है, हालांकि जहन्नम की एक आंच सहने की ताक़त भी उसके अन्दर नहीं। आह, कितना ज़्यादा कमज़ोर है इन्सान, इसके बावजूद वह कितना ज़्यादा ढीट बना हुआ है!
इन्सान के सामने एक सच्चाई आती है, जिसका वह इन्कार न कर सके। इसके बावजूद वह उसको हिक़ारत के साथ नज़र अन्दाज़ कर देता है। इन्सान की ग़लती दिन की रोशनी की तरह उस पर खोल दी जाती है, फिर भी वह अपनी ग़लती को नहीं मानता। इन्सान के पास अपने नासेह (नसीहत करने वाला) की बात को ठुकराने के लिए कोई दलील नहीं होती, लेकिन वह ऐब निकाल कर और इल्ज़ाम लगा कर ज़ाहिर करता है कि नासेह (नसीहत करने वाले) इस क़ाबिल ही नहीं कि उसकी बात मानी जाए।
इन्सान ख़ुद ज़ालिम होता है और वह दूसरे के ज़ुल्म का एलान करता है। इन्सान अपने क़दमों के नीचे फ़साद बरपा किए हुए होता है और दूसरों को फ़सादी कह कर उन्हें तबाह करने की मुहिम चलाता है। इन्सान अपने हकों की अदायगी में आख़िरी हद तक ग़ाफ़िल होता है और दूसरे के हक़ों का झंडा उठा कर ज़मीन व आसमान एक कर देना चाहता है।
इन्सान अपनी क़यादत और सरदारी की ख़ातिर झूठे नारे लगाता है, चाहे इसके नतीजे में पूरी क़ौम तबाह व हलाक हो जाए। इन्सान अपने को बड़ा बनाने के लिए दूसरे को छोटा कर देना चाहता है, चाहे दूसरे को छोटा करने की यह कोशिश ख़ुदाई हक़ीक़त को छोटा करने जैसी हो। इन्सान ख़ुशख़्यालियों में जीता है, हालांकि इस दुनिया में हक़ीक़त के सिवा कोई चीज़ नहीं, जहां आदमी को ज़िन्दगी का साया मिल जाए।
इन्सान का यह हाल है कि वह बिल्कुल बेहक़ीक़त होता है और अपने को हक़ीक़त के रूप में ज़ाहिर करता है। इन्सान अपनी बड़ाई के मीनार को बाक़ी रखने के लिए अपनी सारी ताक़त लगा देता है, हालांकि आख़िरकार जो वाक़िया होने वाला है, वह यह कि वह और उस के बड़ाई का मीनार दोनों एक ही क़ब्रिस्तान में हमेशा के लिए दफ़न हो जाएं। ख़ुदा ने इन्सान को जन्नत में बसने के लिए बनाया था, मगर इन्सान को जहन्नम के रास्तों में दौड़ने के सिवा किसी और चीज़ से कोई दिलचस्पी नहीं।