विकास के तीन स्तर
एक हदीस अलग अलग किताबों में आई है। मुसनद इमाम अहमद में इसके शब्द इस प्रकार हैं: हज़रत अबू हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) से वर्णन है कि पैगंबर-ए-इस्लाम ने कहा:
“मनुष्य धातु की तरह हैं, जैसे सोने और चांदी की धातु। जो व्यक्ति जिहालत (अज्ञानता) में बेहतर था, वही इस्लाम में भी बेहतर है, बशर्ते वह समझ हासिल कर ले।” (मुसनद अहमद, हदीस संख्या 10956)
इस हदीस में इंसान के बौद्धिक विकास के चरणों को बताया गया है। पहला चरण वह है जिसमें इंसान जन्म लेता है। दूसरा चरण वह है जो इंसान अपने प्रयासों से बनाता है। तीसरा चरण मारिफ़त (ज्ञान) का है। जब इंसान मारिफ़त के चरण में पहुंचता है, तो वह अपने विकास की अंतिम मंज़िल पर पहुंच जाता है, जिसे इस्लाम कहा गया है।
इंसान की स्थिति धातु (मेटल) जैसी है। जैसे लोहा जमीन से निकलता है। प्रारंभिक स्थिति में वह कच्चा लोहा (ore) होता है। इसके बाद उसे पिघलाकर साफ किया जाता है और वह स्टील बन जाता है। फिर वह वह बनाने के मुख्तलिफ़ मरहले से गुजरता है और अंततः एक मशीन का रूप ले लेता है। यानी पहले चरण में कच्चा लोहा, दूसरे चरण में स्टील, और तीसरे और अंतिम चरण में मशीन।
इंसान भी ऐसा ही है। जब वह पैदा होता है, तो वह प्रकृति की खदान से बाहर आता है। इसके बाद वह बड़ा होता है और अपनी सोच को क्रियान्वित करता है। वह शिक्षा और प्रशिक्षण के चरणों से गुजरता है। इस प्रकार परिपक्वता की आयु में पहुंचकर वह एक संपूर्ण व्यक्ति बन जाता है। यह इंसानी जीवन का मध्य चरण है। इसके बाद यदि वह अपनी अक़ल को सही दिशा में उपयोग करे, तो वह मारिफ़त-ए-हक़ के चरण में पहुंच जाता है। यह वह चरण है, जहां इंसान कमाल-ए-इंसानियत के स्तर पर पहुंचकर ईश्वर का ज्ञान (आ’रिफ़ बिल्लाह) प्राप्त करता है।
इन तीन चरणों को इस प्रकार वर्णित किया जा सकता है:
- जन्मजात व्यक्तित्व (Born Personality)
- विकसित व्यक्तित्व (Developed Personality)
- ज्ञानी व्यक्तित्व (Realized Personality)
जन्मजात व्यक्तित्व ईश्वर का दिया हुआ व्याक्तितिव होता है। इस दृष्टि से सभी मनुष्य समान हैं। क्षमता के मामले में एक व्यक्ति और दूसरे व्यक्ति में हमेशा अंतर होता है, लेकिन संभावित योग्यता (Potential Capacity) के संदर्भ में सभी मनुष्य समान होते हैं।
इसी तथ्य को एक हदीस में इस प्रकार व्यक्त किया गया है:
“ताक़तवर ईमान वाला ईश्वर के निकट कमजोर ईमान वाले से बेहतर और अधिक प्रिय है, और हर किसी में भलाई है। जो चीज़ तुम्हारे लिए फायदेमंद हो, उसे प्राप्त करने की कोशिश करो और ईश्वर से मदद मांगो, लेकिन हार मत मानो। और अगर तुम्हारे खिलाफ कोई बात पेश आए तो यह न कहो कि काश, मैंने ऐसा और ऐसा किया होता। बल्कि यह कहो कि यह अल्लाह का तक़दीरी योजना था, उसी ने जो चाहा किया। क्योंकि ‘‘अगर’’ कहना शैतान के काम का दरवाजा खोलता है।” (सहीह मुस्लिम, हदीस संख्या 2664)
इस हदीस में ईमान वाले से मुराद इंसान है। इसका मतलब यह है कि कोई इंसान अगर अपने अंदर किसी एक पहलू से कमी महसूस करे तो उसे मायूस नहीं होना चाहिए, क्योंकि दूसरे पहलू से उसके अंदर कोई और गुण अधिक होगा। इंसान को चाहिए कि वह उस छमता (potential) को पहचाने जो उस को ख़ुदा की की तरफ़ से मिली हुई है और हिम्मत के साथ अपनी ज़िंदगी की रचना करे। जीवन के संघर्ष के दौरान अगर उसे कोई नुकसान पहुँचे तो उसे यकीन रखना चाहिए कि इस नकारात्मक अनुभव में भी कोई सकारात्मक लाभ छुपा होगा। इंसान को चाहिए कि वह अपने हर नकारात्मक अनुभव से सकारात्मक सीख ले और किसी भी हाल में हिम्मत न हारे।
इस तरह आदमी अपनी शख्सियत का निर्माण करता रहता है। वह अपना मूल्यांकन करके अपनी कंडीशनिंग को दूर करता रहता है। वह अपने चेतना को जागरूक करके अपने अंदर ऐसी शख्सियत का विकास करता रहता है जिसमें सत्य को स्वीकार करने की योग्यता मौजूद हो, जिसमें वह क्षमता हो जिसे पैगंबर की एक दुआ में इस तरह व्यक्त किया गया है:
"हे अल्लाह, तू मुझे सत्य को सत्य के रूप में दिखा और उसकी अनुगति करने की शक्ति दे। और हे अल्लाह, तू मुझे असत्य को असत्य के रूप में दिखा और उससे बचने की शक्ति प्रदान कर। और हे अल्लाह, तू मुझे चीजों को वैसा ही दिखा जैसा कि वे वास्तव में हैं।" (तफसीर इबन कसीर, भाग 1, पृष्ठ 427; तफसीर अल-राज़ी, भाग 1, पृष्ठ 119)
यही वह इंसान है जिसे हमने ऊपर की व्याख्या में विकसित व्यक्तित्व (developed personality) कहा है। वही आदमी बुद्धिमान होता है जो अपने अंदर इस तरह के व्यक्तित्व का निर्माण करे। जहाँ तक प्राकृतिक अस्तित्व की बात है, हर इंसान को प्राकृतिक अस्तित्व का उपहार ईश्वर की ओर से समान रूप से मिलता है, लेकिन उसके बाद स्वयं को एक विकसित व्यक्तित्व बनाना, यह हर इंसान का स्वयं का प्रयास होता है। ठीक उसी तरह जैसे कच्चा लोहा प्रकृति की ओर से प्रदान किया जाता है, लेकिन इस कच्चे लोहे को स्टील और मशीन में बदलने की प्रक्रिया इंसानी कारखाने में होती है।
इसी आत्म-तैयारी (self-preparation) की प्रक्रिया पर अगले विकास के चरण की निर्भरता होती है। जो लोग स्वयं को पहचानें, जो लोग अपने कर्मों का ईमानदारी से मूल्यांकन करें, जो लोग अपनी कमियों को खोजकर अपने अंदर सुधार करें, जो लोग हर कीमत चुकाकर अपने "कच्चे लोहे" को "स्टील" बनाने का काम करें, जिन लोगों की यह स्थिति हो कि वे अहंकार, घमंड, लालच, जलन, गुस्सा और बदले की भावना जैसे नकारात्मक भावों का कभी शिकार न बनें, जो कि व्यक्तित्व के विकास में एक घातक बाधा की तरह होते हैं। संक्षेप में, जो लोग लगातार अपने ऊपर आत्म-शुद्धि (purification) की प्रक्रिया जारी रखें, वही लोग होते हैं जो ईश्वर की कृपा से सत्य को खोजते हैं और उसे पूरी तत्परता से स्वीकार कर लेते हैं।
"तजकिया" शब्द का शाब्दिक अर्थ है, पवित्र करना (purification)। यह हर इंसान की ज़रूरी आवश्यकता है। यह हर इंसान की समस्या है कि वह अपने माहौल का असर लेता है, जिसे मानसिक जकड़न (conditioning of mind) कहा जाता है। अपनी भावनाओं और इच्छाओं के अनुसार, उसकी कुछ आदतें बन जाती हैं। अपने स्वार्थ और लाभ के प्रभाव में, सचेत या अचेत रूप से, उसका अपना एक स्वभाव बन जाता है। ये सभी चीजें इंसान की आध्यात्मिक प्रगति में बाधा डालती हैं। इन बाधाओं को दूर करने के लिए इंसान को स्वयं का पहरेदार (guard) बनना पड़ता है। वह खोज-खोज कर अपनी गलतियों को सुधारता है। वह एक कठोर आत्म-सुधार (merciless deconditioning) की प्रक्रिया को अपनाता है। यही तजकिया की अनिवार्य शर्त है। इसके बिना किसी का वास्तविक तजकिया नहीं हो सकता— कठोर आत्म-सुधार के बिना तजकिया नहीं, और तजकिया के बिना जन्नत नहीं।
जो लोग स्वयं को इन चरणों से गुजारें और अपनी तैयारी के नतीजे में सत्य को प्राप्त करें, उन्हें ही कुरआन में "अन-नफ्स अल-मुतमइनना" (अल-फज्र: 27) कहा गया है। ये वे लोग हैं जो ईश्वर की सृजनात्मक योजना से संतुष्ट हुए, जिन्होंने ख़ुद को इस योजना में ढालकर अपने अंदर वांछित व्यक्तित्व का निर्माण किया। यही वे लोग हैं जो ईश्वर की प्रसन्नता प्राप्त करेंगे और ईश्वर की कृपा से जन्नत के अनंत बागों में बसाए जाएँगे।