कुछ आदर्श महिलाएँ

इतिहास में कुछ ऐसी महिलाएँ रही हैं, जिन्हें दूसरों के लिए आदर्श माना जा सकता है। इन महिलाओं में से कुछ का संक्षिप्त उल्लेख यहाँ किया जा रहा है।

हज़रत हाजरा- हज़रत इस्माईल की माँ

इन महिलाओं में से एक हाजरा (इस्माईल की माँ) हैं, जो पैगंबर इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) की पत्नी थीं। उनका समय लगभग चार हजार साल पहले का है। अल्लाह के आदेश के अनुसार, पैगंबर इब्राहीम ने यह योजना बनाई कि अरब के रेगिस्तान के प्राकृतिक माहौल में एक नई पीढ़ी तैयार की जाए, जो मूर्तिपूजा और उसके प्रभाव से मुक्त हो। इस उद्देश्य के लिए एक महिला की महान कुर्बानी की आवश्यकता थी, और हाजरा (ह. इस्माईल की मां) ने यह कुर्बानी दी। वे मक्का के निर्जन और बंजर रेगिस्तान में अपने बच्चे के साथ बस गईं।

यह एक अत्यंत धैर्यपूर्ण और कठिन कार्य था। यह एक प्रकार से मृत्यु जैसे हालात में जीवन तलाशने के समान था। जब पैगंबर इब्राहीम ने उन्हें बताया कि यह अल्लाह का आदेश है, तो हाजरा ने विश्वास के साथ कहा, "फिर तो अल्लाह हमें व्यर्थ नहीं जाने देगा (إِذَن لَا يُضِيعُنَا)”

(सहीह अल-बुखारी, हदीस संख्या 3364)।

इतिहास इस बात की गवाही देता है कि ऐसा ही हुआ। उनकी संतान से एक ऐसी कौम उत्पन्न हुई, जिसे एक पश्चिमी लेखक ने "नायकों की कौम" (A Nation of Heroes) कहा है।

इस घटना में सभी महिलाओं के लिए एक महान सबक है:

यदि वे अल्लाह पर भरोसा रखकर किसी नेक काम के लिए आगे बढ़ें, तो निश्चित रूप से उन्हें अल्लाह की मदद मिलेगी। नेक काम के लिए दी गई उनकी कुर्बानी कभी व्यर्थ नहीं जाएगी, बल्कि वह हमेशा फलदायी होगी।

हज़रत आसिया बिन्ते मुज़ाहिम

इसी प्रकार की एक मिसाल आसिया बिन्ते मुज़ाहिम की है। उनका समय लगभग साढ़े तीन हजार साल पहले का है। उसी समय पैगंबर मूसा (अलैहिस्सलाम) का आगमन हुआ। उस समय फिरऔन मिस्र का राजा था। फिरऔन पैगंबर मूसा का सख्त दुश्मन बन गया। लेकिन फिरऔन की पत्नी आसिया बिन्ते मुज़ाहिम, पैगंबर मूसा के तौहीद (एकेश्वरवाद) के संदेश से प्रभावित हुईं और उन पर ईमान ले आईं।

इस पर फिरऔन बेहद नाराज हुआ और आसिया को मौत की सज़ा देने का हुक्म दिया। आसिया बिन्ते मुज़ाहिम ने मौत को कुबूल कर लिया, लेकिन तौहीद (एकेश्वरवाद) के धर्म को छोड़ने पर रज़ामंद नहीं हुईं। यह उनके लिए एक महान कुर्बानी का अमल था। उनकी इस कुर्बानी के कारण अल्लाह ने उनके ईमान को स्वीकार कर लिया। उस समय उनकी जुबान से यह दुआ निकली:

رَبِّ ابْنِ لِي عِندَكَ بَيْتًا فِي الْجَنَّةِ وَنَجِّنِي مِن فِرْعَوْنَ وَعَمَلِهِ وَنَجِّنِي مِنَ الْقَوْمِ الظَّالِمِينَ.

"ऐ मेरे रब, मेरे लिए अपने पास जन्नत में एक घर बना दे और मुझे फ़िरऔन और उसके कर्मो से छुटकारा दे और मुझे ज़ालिम क़ौम से मुक्ति प्रदान कर।" (क़ुरान, 66:11)

यह दुआ इस्म-ए-आज़म (ईश्वर के सर्वोच्च नाम) के साथ की गई थी, जो उसी समय कबूल कर ली गई। इस घटना से यह सीख मिलती है कि यदि कोई महिला (या पुरुष) आसिया जैसी कुर्बानी का उदाहरण पेश करे, तो उसे इस्म-ए-आज़म के साथ दुआ करने की तौफीक़ (सामर्थ्य) मिलती है और ऐसी दुआ को निश्चित रूप से स्वीकार किया जाता है।

हज़रत मरियम, हज़रत मसीह की माँ

ऐसी ही एक मिसाल हज़रत मरियम की है, जो पैगंबर हज़रत मसीह (अलैहिस्सलाम) की माँ थीं। उनका समय लगभग ढाई हज़ार साल पहले का है। उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी को पूरी तरह से अल्लाह के काम और उसके ज़िक्र व दुआ के लिए समर्पित कर दिया था। इस समर्पण के फलस्वरूप, उन्हें अल्लाह की तरफ़ से यह विशेष इनाम मिला कि उनके लिए ख़ुदाई रिज़्क़ (सूरह आले इमरान: 37) आने लगा।

ख़ुदाई रिज़्क़' का क्या मतलब है? यह अल्लाह की तरफ़ से दी जाने वाली आत्मिक खुराक (spiritual food) है। यह दिव्य दृष्टि (Divine Grace) है, जो वह अपने से करीब होने वाले बंदों को देता है। ऐसी महिलाएं (या पुरुष) उच्च आध्यात्मिक अवस्थाओं में जीने लगते हैं। उन्हें वह चीज़ प्रदान की जाती है, जिसे रब्बानी हिकमत (Divine Wisdom) कहा जाता है। ऐसे लोग अल्लाह के खास वहियों (दिव्य संदेश) का केंद्र बन जाते हैं।

अल्लाह की यह विशेष रहमत, जो हज़रत मरियम को हासिल हुई, इसका दरवाज़ा हर महिला और पुरुष के लिए खुला है, बशर्ते कि वे उसी इख़लास (सच्चाई और समर्पण) का सुबूत दें, जैसा हज़रत मरियम ने दिया था।

हज़रत खदीजा बिन्ते ख़ुवैलिद

इसी प्रकार की एक और मिसाल हज़रत खदीजा बिन्ते ख़ुवैलिद (वफ़ात: 620 ईस्वी) की है। वे पैगंबर-ए-इस्लाम की पहली पत्नी थीं। उन्हें यह विशेष दर्जा प्राप्त है कि उन्होंने सबसे पहले पैगंबर-ए-इस्लाम के संदेश को कुबूल किया।

मक्का का दौर पैगंबर-ए-इस्लाम के लिए अत्यधिक कठिनाई और मुसीबत का दौर था। इस पूरी अवधि में, हज़रत खदीजा ने खुले दिल से उनका साथ दिया। पैगंबर-ए-इस्लाम से निकाह के बाद उन्हें कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, लेकिन उन्होंने कभी भी किसी शिकायत का इज़हार नहीं किया। वे हर हाल में सब्र और शुक्र की मिसाल बनी रहीं।

रिवायत में आता है कि एक दिन हज़रत जिब्राइल उनके घर आए। पैगंबर-ए-इस्लाम ने जिब्राइल को देखा, लेकिन हज़रत खदीजा ने नहीं देखा। पैगंबर-ए-इस्लाम ने उनसे कहा कि यह जिब्राइल हैं, और वे तुम्हें अल्लाह की तरफ़ से सलाम पहुंचाने आए हैं।

हज़रत जिब्राइल ने उन्हें यह खुशखबरी दी कि जन्नत में तुम्हारे लिए एक खूबसूरत घर तैयार है, जहां न कोई शोर होगा और न कोई तकलीफ (لاَ صَخَبَ فِيهِ، وَلاَ نَصَبَ) सहीह अल-बुख़ारी, हदीस संख्या 3820।

हज़रत खदीजा को इसी दुनिया में जन्नत की खुशखबरी दी गई। यह घटना किसी अपवाद (exception) को नहीं, बल्कि एक आदर्श (example) को पेश करती है। हज़रत खदीजा के ज़रिए इतिहास में यह मिसाल कायम हुई कि जो महिला (या पुरुष) हज़रत खदीजा की तरह सब्र और शुक्र का प्रमाण दे, उन पर अल्लाह के फ़रिश्ते उतरेंगे और इसी दुनिया में उन्हें यह बशारत देंगे कि अगले जीवन में उनके लिए जन्नत, यानी खुशियों और सुकून की अनंत दुनिया तैयार है।

हज़रत आइशा बिन्ते अबू बक्र

इसी प्रकार की एक और मिसाल आइशा बिन्ते अबू बक्र अस्सिद्दीक़ (वफ़ात: 678 ईस्वी) की है। वे पैगंबर-ए-इस्लाम की पत्नी थीं। पैगंबर-ए-इस्लाम की वफ़ात के बाद वे लगभग पचास साल तक जीवित रहीं। इस दौरान उन्होंने इस्लाम की हिकमत और ज्ञानभरे संदेश को लोगों तक पहुँचाना जारी रखा। उस समय लिखित रिकॉर्ड नहीं होते थे, इसलिए वे पैगंबर की शिक्षाओं का एक जीवंत प्रमाण बनी रहीं। इस्लामी शिक्षा की समझ उनमें इतनी गहरी थी कि पैगंबर के साथी भी दूर-दूर से आकर उनसे धर्म का ज्ञान लिया करते थे।

हज़रत आइशा की जिंदगी हर महिला के लिए एक बेहतरीन आदर्श है। उन्होंने बहुत ही साधारण और सादा जीवन जिया। सांसारिक चीजों और आर्थिक मामलों में उन्होंने संतोष (क़नाअत) को अपनाया। इसी सादगी ने उन्हें यह मौका दिया कि वे पैगंबर-ए-इस्लाम की संगत से पूरा लाभ उठा सकें। उन्होंने अपना जीवन पूरी तरह से दीन का ज्ञान सीखने और समझने में लगा दिया। उनके इसी समर्पण की वजह से, पैगंबर की वफ़ात के बाद भी वे लंबे समय तक लोगों को धर्म की शिक्षा देती रहीं।

यह अवसर हर महिला के लिए खुला है। अगर वे सादा जीवन अपनाएँ और खुद को दीन का ज्ञान सीखने में समर्पित करें, तो उन्हें भी अल्लाह की मदद मिलेगी। इस तरह वे भी अपने समय में लोगों के लिए वही रहमत और मार्गदर्शक बन सकती हैं, जो हज़रत आइशा इसलाम के प्रारंभिक दौर में बनीं।

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