बामक़्सद ज़िन्दगी
दोस्तो, हम मुसलमान हैं, इसका मतलब यह है कि हम अपने बारे में दावा रखते हैं कि हम बामक़्सद लोग हैं, क्योंकि इस्लाम ज़िन्दगी का एक मक़्सद है। मगर मैं आपको याद दिलाना चाहता हूं कि बामक़्सद होने का मतलब सिर्फ़ यह नहीं है कि एक मक़्सदी या एक उद्देश्यपूर्ण कल्पना आपके ज़ेहन में पाई जा रही हो। कुछ तक़रीरों को सुन कर या कुछ तहरीरों को देख कर एक मक़्सदी नज़रिया किसी के दिमाग़ में पहुंच जाए तो सिर्फ़ इस बिना पर उसको बामक़्सद इन्सान नहीं कहा जा सकता। बामक़्सद इन्सान तो वही होता है जो अपने पूरे वजूद के साथ बामक़्सद बन गया हो, जिसकी ज़िन्दगी उसके मक़्सद में इस तरह ढल जाए कि दोनों के बीच कोई दूरी बाक़ी न रहे।
आप इस वक़्त एक मस्जिद में बैठे हैं, जिसके ऊपर ऊंचे-ऊंचे मीनार खड़े हैं। अगर हवा के ज़रिए कुछ आम के पत्ते उड़ कर आएं और इन मीनारों पर अटक जाएं तो इससे आप इन मीनारों को आम दरख़्त नहीं कहने लगेंगे। आम का दरख़्त तो वही है, जो अपनी जड़ में भी आम हो, अपने तने में भी आम हो, अपनी शाखों में भी आम हो, अपने पत्तों में भी आम हो और वह आम ही के फल दें। आम का दरख़्त आप उसको कहते हैं, जो इस तरह ऊपर से नीचे तक आम हो। महज़ किसी लम्बी खड़ी हुई चीज़ पर आम जैसी लगने वाली चीज़ों का इत्तिफ़ाक़ से जमा हो जाना उसको हरगिज़ आम नहीं बना देता। इसी तरह आपको भी बामक़सद इन्सान उसी वक़्त कहा जा सकता है जब आप सिर से पांव तक अपने पूरे वजूद में बामक़्सद बन गए हों। महज़ कुछ नज़रियों का कहीं से आकर आपके जेहन में अटक जाना आपको बामक़्सद नहीं बना देता। इस्लाम ज़िन्दगी का एक मक़्सद है और हम उसी वक़्त मुसलमान कहे जाने का हक़ रखते हैं जब हमने वाक़ई एक मक़्सद की तरह इस्लाम को अपनी ज़िन्दगी में शामिल कर लिया हो।
बामक़्सद इन्सान की पहचान क्या है? इसको दर्जनों पहलुओं से बयान किया जा सकता है। इस वक़्त मैं इसकी चन्द खूबियों का संक्षेप में ज़िक्र करूंगा।
1. बामक़्सद आदमी की पहली पहचान वह है, जिसको मैं ‘इरतिकाज़’ (एकाग्रता) का लफ़्ज़ देना चाहूंगा। इसका मतलब यह है कि आपकी तमाम वैचारिक और ज़ेहनी ताकतें आपके मक़्सद में पूरी तरह लग जाएं। आपका सोचना, आपका मुहब्बत करना, आपका नफ़रत करना, सब कुछ आपके मक़्सद के साथ बावस्ता हो गया हो। आपकी कोई चीज़ दूसरी तरफ़ बिखरी हुई न हो। जूता बनाने वालों के यहां आपने देखा होगा, काम करते-करते उनके पास बहुत-सी कीलें फैल जाती हैं। उस वक़्त वे यह करते हैं कि चुम्बक का एक टुकड़ा लेकर वहां फेरते हैं, जिससे तमाम बिखरी हुई कीलें खिंच खिंच कर उससे चिमट जाती हैं और फिर वे उसे उठा कर ख़ाने में रख लेते हैं। इस मिसाल में अगर चुम्बक की जगह आप अपने मक़्सद को रखें और कीलों के बजाए अपनी सोच, खयालात और जज़्बात और एहसासात को रखें तो ज़िन्दगी और मक़्सद के बीच ताल्लुक़ को आप समझ सकते हैं। इसका मतलब यह है कि चुम्बक के आसपास लोहे के टुकड़े जिस तरह एक-एक करके इकट्ठा हो जाते हैं और आसपास का कोई टुकड़ा ऐसा नहीं होता, जो उससे चिमट न गया हो, इसी तरह आदमी के मक़्सद के आसपास उसके सारे दिल और सारे दिमाग को इकट्ठा हो जाना चाहिए।
यहां एक घटना मुझे याद आती है। एक बार एक साहब मेरे यहां आए। उनको बाज़ार का कुछ काम था। बाज़ार जाकर जब वह लौटे तो उन्होंने एक वाकिआ बताया, जिससे मुझे बड़ा सबक़ मिला। वाक़िआ बहुत छोटा-सा है, मगर उसमें हमारे लिए बड़ी नसीहत है। उन्होंने कहा कि मैं एक जगह पहुंचा, जहां सड़क के किनारे बहुत से मोची अपनी-अपनी दुकान लिए बैठे थे। जब मैं उनके पास से गुज़रा तो मैंने देखा कि उनमें से हरेक शख़्स मेरे जूते की तरफ़ देख रहा है। जिस मोची की नज़र उठती है वह बस मेरे जूते पर आकर रुक जाती है। मैंने सोचा कि ये मोची भी अपने मक़्सद में किस क़दर गुम हैं उनको इन्सान सिर्फ़ जूते की शक्ल में नज़र आता है। भरे हुए बाज़ार में सैकड़ों इन्सान उनके सामने से आते जाते हैं। मगर उन्हें इन्सानों से कोई दिलचस्पी नहीं। वे उनको नज़र उठा कर देखते भी नहीं। वे सिर्फ़ यह जानते हैं कि ये आने जाने वाले लोग अपने पांव में एक ऐसी चीज़ पहनते हुए हैं, जिसकी पालिश करके या जिसकी मरम्मत करके वे कुछ पैसे हासिल कर सकते हैं। जैसे इन्सान उनकी नज़र में सिर्फ़ एक ‘जूता’ है और बस।
इसी तरह बामक़्सद आदमी अपने मक़्सद में गुम रहता है। उसको हर चीज़ में सिर्फ़ अपना मक़्सद नज़र आता है। वह हर घटना को, हर मसले को, हर बात को अपने मक़्सद की रोशनी में देखता है। यहां तक कि वह अपने मक़्सद के खयालों में इतना खो जाता है कि दूसरी चीज़ें उसे भूलने लगती हैं। एक साहब हैं जो बहुत सक्रिय, आदमी हैं जो काम भी करते हैं, उसको पूरी तरह लग कर करते हैं। एक बार मैं एक ऐसे ज़माने में उनसे मिलने गया जब वह अपना नया मकान बनवाने में लगे हुए थे। मैंने देखा कि उनके पायजामे में एक जगह बहुत से लाल- लाल धब्बे पड़े हुए है। पूछा यह क्या है। उन्होंने देख कर कहा, मुझे खुद भी नहीं मालूम। इसके बाद उन्होंने पायजामा उठाया तो मालूम हुआ किसी सख़्त चीज़ से टकराने की वजह से टांग में एक जगह चोट लग गई है। चोट लग कर खून बहा, कपड़े में लगा, फिर अपने आप सूख कर बंद हो गया और उन्हें बिल्कुल पता नहीं चला। जब आदमी के सामने कोई मक़्सद हो तो वह इसी तरह उसमें खो जाता है, उस वक़्त वह एक और ही दुनिया में पहुंच जाता है, जहाँ दूसरी चीज़ें उसका साथ छोड़ देती हैं, जहाँ दूसरी चीज़ें उसे महसूस नहीं होतीं। यहां तक कि खुद अपने जिस्मानी तक़ाज़े भी उसे याद नहीं रहते।
यह वह बात है, जिसको मैंने ‘इरतिकाज़’ कहा है। बामक़सद आदमी वही है जो अपने मक़्सद में इतना ही खो जाए, गुम हो जाए, समर्पित हो जाए। इसके बगै़र अपने आपको बामक़्सद आदमियों की फेहरिस्त में लिखना मक़्सद के लफ़्ज़ से एक तरह का मज़ाक़ करना है।
2. बामक़्सद आदमी की दूसरी पहचान यह है कि वह अपने मक़्सद के मुताबिक़ ज़िन्दगी गुज़ारता हो। ‘मक़्सद के मुताबिक़ अमल’ से मैं एक खास चीज़ की तरफ़ इशारा करना चाहता हूं। जिसको आप एक मिसाल से समझ सकते हैं। एक हकीम साहब हैं जो एक देहात में दवा इलाज का काम करते हैं। उनके पास कोई सनद या डिग्री नहीं है, न वह पढ़े लिखे आदमी हैं। बस लोगों की सोहबत और तजुर्बा की वजह से कुछ बातें जान गए हैं। और उसके मुताबिक काम कर रहे हैं, बल्कि अपनी मेहनत और लगन की वजह से अपने इलाके में मशहूर हो गए हैं। उनके घर पर कुछ खेती बाड़ी का काम होता है। एक बार उन्होंने कहा कि मैं खेती के मोटे काम मसलन खोदना, हल चलाना वग़ैरह अपने हाथ से नहीं करता। आप समझेंगे कि वह शायद कोई शेरवानीपोश आदमी होंगे। और अपनी शेरवानी की इज़्ज़त रखने के लिए ऐसे कामों से बचते होंगे। मगर उनको ‘शेरवानी’ और ‘पतलून’ की ज़िन्दगी से कोई दिलचस्पी नहीं। वह बिलकुल सीधे-सादे देहाती हकीम है। खेती के सख़्त कामों से अलग रहने की वजह उन्होंने यह बताई कि अगर मैं इस तरह के काम करूं तो मेरा हाथ सख़्त हो जाएगा। उंगलियों की खाल मोटी हो जाएगी। इसका नतीजा यह होगा कि मरीज की नब्ज़ मैं ठीक तरह से देख न सकूंगा। नब्ज़ की धड़कनें बहुत हल्की होती हैं और उनमें बहुत नाजुक फ़र्क होते हैं। उनको महसूस करने के लिए उंगलियों का नर्म होना बहुत ज़रूरी है। अगर उंगलियां हल और कुदाल पकड़ते-पकड़ते सख़्त हो जाएं, जैसा कि इस तरह का काम करने वालों की होती हैं, तो वे नब्ज़ की धड़कनें महसूस करने के क़ाबिल नहीं रहेंगी।
हर मक़्सद अपने इख़्तियार करने वाले से इसी का तक़ाज़ा करता है। जो शख़्स भी किसी मक़्सद को अपनाए, ज़रूरी है कि वह अपनी अमली ज़िन्दगी और अपनी रोज़ाना की सरगर्मियों का अपने मक़्सद के साथ तालमेल रखे, वह दोनों में कोई विरोधाभास पैदा न होने दे। बामक़सद आदमी एक जागा हुआ आदमी होता है। अगर उसके अन्दर हक़ीक़त में एक मक़्सद उतरा हुआ है तो इसका लाज़िमी नतीजा यह होना चाहिए कि वह अपने आपको ऐसे हालात और ऐसे कामों की तरफ़ न ले जाए जहां वह और उसका मक़्सद अलग-अलग हो जाएं, जब वह वैसा बन कर न रह सके जैसा अपने मक़्सद के लिए बन कर उसे रहना चाहिए।
मैं एक ऐसे मुस्लिम ख़ानदान को जानता हूं, जिसकी आमदनी इतनी थी कि वह ठीक-ठाक ढंग से एक सादा ज़िन्दगी गुज़ार रहा था और उसी के साथ दीन के तक़ाजे भी पूरे कर रहा था। इसके बाद उसके यहां एक लड़की और एक लड़के की शादी हुई। उसके मक़्सद का तकाज़ा तो यह था कि वह शादी को इस तरह करे कि उसकी वजह से उसके घर में जो सामान्य ज़िन्दगी चल रही है, उसमें कोई ख़लल पैदा न हो। मगर उसने पहली ग़लती यह की कि शादी के लिए एक ऐसे ख़ानदान को चुना, जिसका स्टैंडर्ड उसके मुकाबले में बढ़ा हुआ था, फिर शादी भी इस तरह की जैसे आम दुनियादार लोग अपनी शादियां करते हैं। इसका नतीजा यह हुआ कि न सिर्फ़ उसके घर की सारी पूंजी शादी में लग गई, बल्कि वह काफ़ी क़र्ज़दार भी हो गया। उसका सारा कारोबार उजड़ गया। अगर सिर्फ़ इतना ही नुक़सान हुआ होता तब भी ग़नीमत था, क्योंकि जिस तरह कई तरह के वक़्ती हादिसे आदमी के ऊपर पड़ते हैं और फिर वह संभल जाता है, उसी तरह दोबारा संभल जाता, मगर शादी ने उसको एक नई मुसीबत में डाल दिया, जिसके बारे में पहले उसने सोचा भी न था। अपनी लड़की को उसने जो कपड़े और सामान दिए और सुसराल से उसके लिए जो कपड़े वग़ैरह आए, उसकी वजह से शादीशुदा लड़की का रहन-सहन का स्तर यकायक बहुत बढ़ गया। और अब घर की एक लड़की का स्तर बढ़ा तो उसी के साथ दूसरों का लिहाज़ करना ज़रूरी था, फिर इसी के साथ नए-नए फर्नीचर से लदी हुई पूरी एक गाड़ी भी उसके घर उतरी। इन चीज़ों के नतीजे में उसकी घरेलू ज़िन्दगी का स्तर बिल्कुल बनावटी तौर पर यकायक बदल गया। अब हर चीज़ में पहले से ज़्यादा खर्च होने लगा। इस तरह एक तरफ़ पिछले क़र्ज़ों की अदायगी और दूसरी तरफ़ बढ़े हुए खर्चों को पूरा करना, ऐसे दो पाट बन गए जिन के बीच में उसकी ज़िन्दगी पिस कर रह गई। उसका घर देखते-देखते एक दीनदार घराने से एक दुनियादार घराने में बदल गया।
यह सिर्फ़ एक घटना नहीं है, बल्कि मैंने कितने लोगों को देखा है कि इसी तरह वे अपने दुन्यवी मामलों में ऐसा रवैया अपनाते हैं कि आख़िरकार वह उन्हें घसीटकर तबाही के गढ़े में पहुंचा देता है।
जो शख़्स किसी मक़्सद के लिए दुनिया में जीना चाहता हो, उसके लिए ज़रूरी है कि वह होश की ज़िन्दगी गुज़ारे, वह अपनी सरगर्मियों पर नज़र रखे। अगर उसने ऐसा नहीं किया तो इस भौतिक दुनिया में हर वक़्त इस बात की संभावना है कि आदमी ऐसे बन्धनों में अपने आपको फंसा ले जिसके बाद वह ऊपर से ज़िन्दा तो नज़र आता हो, मगर मक़्सद के लिहाज़ से उसने खुदकशी कर ली हो। दुनिया की नुमाइशी चीज़ों में दिलचस्पी, भौतिक साज़ो-सामान की बहुतायत, सतही कामों में पड़ना, गै़रज़रूरी आदतों में अपने को डालना, घटिया लिट्रेचर पढ़ना—ये चीज़ें आदमी को मक़्सद से दूर कर देती हैं। उसके वक़्त को गै़रज़रूरी चीज़ों में लगा देती हैं। उसके जज़्बात और एहसास को मक़्सद के बारे में कमज़ोर करके दूसरी चीज़ों के बारे में तीव्र कर देती हैं। उसको ऐसे सम्बन्धों और ऐसे तक़ाजों में उलझा देती हैं कि वह न चाहने के बावजूद दूसरी तरफ़ खिंचता चला जाता है। यहां तक कि अपने मक़्सद से दूर हो जाता है।
अगर आपको इस्लाम से लगाव है और आप इसको अपना मक़्सद बना कर इसी के लिए जीना और इसी के लिए मरना चाहते हैं तो आपके लिए ज़रूरी है कि अपनी अमली ज़िन्दगी, अपने ताल्लुक़ात और अपनी रोज़ाना की मसरूफ़ियतों का इसके साथ तालमेल रखें, आप दोनों में कोई विरोधाभास पैदा न होने दें। इस मामले में आपको उस हकीम की तरह बन जाना चाहिए जो अपनी उंगलियों तक की इस हैसियत से हिफ़ाज़त करता है कि वे ऐसे हालात से दो-चार न हों कि वे नब्ज़ देखने की सलाहियत को खो दें। फिर एक मुलसमान का मक़्सद इससे ज़्यादा नाजुक और इससे ज़्यादा मुश्किल है। इसलिए आपको इससे ज़्यादा होशियारी के साथ अपने कामों पर नज़र रखनी चाहिए।
3. तीसरी चीज़ बामक़्सद आदमी को पहचानने की यह है कि उसके अमल में मक़्सद की रूह मौजूद हो। यहां ‘अमल’ से मेरा मतलब आम अमल नहीं है, बल्कि वह अमल है जो मक़्सद के ताल्लुक़ से जाहिर होता है। आप ताज्जुब न करें। मक़्सद से जुड़ा अमल भी कभी बेमक़्सद होता है। ऊपर से देखने में आदमी मक़्सद का सा अमल कर रहा होता है, मगर हक़ीक़त में उसके अमल का मक़्सद से कोई ताल्लुक़ नहीं होता।
एक मिसाल लीजिए। हमारे यहां जो मज़हबी फ़िरक़े हैं उनकी शुरुआत भी अस्ल में एक मक़्सदी गिरोह की हैसियत से हुई थी। वे एक ख़ास मिशन लेकर उठे थे, मगर हर शख़्स जानता है कि आज वे अपनी मक़्सदी हैसियत को खो चुके हैं। वह एक तहरीक के बजाए एक ठोस क़िस्म की रिवायती अंजुमन बन कर रह गए है। इसका मतलब यह नहीं कि उनकी मक़्सदी धारणा उनके ज़ेहन से निकल गई और न ऐसा है कि मक़्सद के लिए काम करना उन्होंने छोड़ दिया है। ये सब चीज़ें आज भी किसी न किसी शक्ल में उनके अन्दर पाई जाती हैं। मगर उनमें अब वह स्प्रिट बाक़ी न रही, जो एक मिशन के अलमबरदार के अन्दर होती है। अब उनका मक़्सद महज़ एक बहस और बातचीत का विषय है, जिस पर वह कभी आपस में, कभी दूसरों से बातें कर लेते हैं। उनके रिसाले और अख़बार निकलते हैं। मगर इन रिसालों और अख़बारों की हैसियत मक़्सदी परचों से ज़्यादा कारोबारी संस्थाओं की है। उनके इज्तिमे और सभा सम्मेलन भी होते हैं, मगर उन इज्तिमों की हैसियत किसी मक़्सदी सरगर्मी की नहीं, बल्कि वह बीते हुए वक़्त की पड़ी हुई एक लकीर है, जिस पर वे रस्मी तौर पर चले जा रहे हैं। उनके जमाअती फंड भी हैं, जिनमें वे अपनी आमदनी का एक हिस्सा देते हैं। मगर यह देना ज़्यादातर एक जमाअती तक़ाज़े के तहत होता है न कि हक़ीक़त में अल्लाह के रास्ते में देने के जज़्बे के तहत। वे अपने ख़्यालात को फैलाने के लिए दौरे और तक़रीरें करते हैं, मगर यह सब किसी मक़्सदी बेताबी का नतीजा नहीं होता, बल्कि या तो सिर्फ़ पारम्परिक अभिरुचि का इज़हार होता है या उसी क़िस्म के जज़्बे के तहत होता है जैसे किसी फर्म की पब्लिसिटी ब्रांच का अफ़सर अपनी ड्यूटी निभाने के लिए किया करता है। वे अपने मख़सूस (आरक्षित) विषयों पर किताबें और पैम्फलेट छापते हैं। मगर इसकी हक़ीक़त इसके सिवा और कुछ नहीं होती कि एक बने हुए हल्के की मांग पूरी कर दी जाए।
वह अमल जो हक़ीक़त में ‘दाईयाना’ जज़्बे के तहत निकलता है और वह अमल जो पारम्परिक तौर पर या महज़ ड्यूटी अंजाम देने के लिए किया जाता है, दोनों में बड़ा फ़र्क है। एक हक़ीक़त है और दूसरा हक़ीक़त की नक़ल। एक जगह बात सिर्फ़ मुंह से निकलती है और दूसरी सूरत में जब आदमी बोलता है तो ऐसा महसूस होता है कि उसने अपने कलाम में अपनी पूरी शख़्सियत को उंडेल दिया है। एक सूरत में आदमी का अमल सिर्फ़ एक लगी-बंधी कार्रवाई नज़र आता है और दूसरी सूरत में उसका अमल उसके बेताब जज़्बात का इज़हार होता है। एक सूरत में आदमी की तमाम ज़िन्दगी उसके मक़्सद में डूबी हुई होती है और दूसरी सूरत में कुछ मक़्सदनुमा हिस्से उसकी ज़िन्दगी के साथ इस तरह इधर-उधर अटके हुए होते हैं जैसे किसी मीनार में आम के कुछ पत्ते।
यह ख़तरा हर उस गिरोह को है जो एक मक़्सद को लेकर उठे और उस पर उसको पच्चीस-पचास साल गुज़र जाएं। लेकिन याद रखिए कोई गिरोह उसी वक़्त तक मक़्सदी गिरोह है जब तक हक़ीक़त में वह मक़्सदी तड़प के तहत काम कर रहा हो। उसके बाद जब उसकी गाड़ी उससे उतर कर पारंपरिक डगर पर चल पड़े, जब उसकी सरगर्मियां बेताब जज़्बात के इज़हार के बजाए घिसी-पिटी कार्रवाई बन कर रह जाएं तो वह तहरीक के बजाए रस्म और जमाअत के बजाए अंजुमन बन जाती है, इसके बाद भी हालंकि वह एक बामक़्सद गिरोह दिखाई देता है। मगर मक़्सदी हैसियत से अब वह मर चुका होता है।
वह बामक़्सद इन्सान नहीं होता बल्कि गुज़रे हुए बामक़्सद इन्सानों की लाश होती है, जो देखने में तो पिछले इन्सान की तरह नज़र आती है, मगर हक़ीक़त में इन्सान नहीं होती। अल्लाह जो चीज़ चाहता है वह कोई रस्मी ढांचा या कोई संगठनात्मक कारगुज़ारी नहीं है। ऐसे ढांचे या कारगुज़ारी का नमूना तो मशीनी इन्सान भी पेश कर सकते हैं। अल्लाह को हमारी ज़िंदा चेतना और हमारे जागे हुए इरादे का नज़राना चाहिए। अल्लाह को हमारे अमल का ‘तक़्वा’ पहुंचता है न कि अमल के ज़ाहिरी हंगामे। अमल के दौरान हम अपनी चेतना को जिस तरह ‘एक्टिव’ करते हैं, हमारी भावना में जो अन्दरुनी हलचल पैदा होती है। अमल करते हुए हमारी रूह को एहसास की जो खुराक मिलती है, वही हमारा अस्ल हासिल है। जब मक़्सदियत ज़िन्दा हो तो आदमी का अमल एक ज़िन्दा अमल होता और जब मक़्सदियत मर जाती है तो अमल एक बेजान कार्रवाई बन कर रह जाता है। आदमी हरकत करता है मगर उसकी रूह पर जड़ता छाई रहती है। आदमी ज़ाहिरी कारनामे दिखाता है मगर आदमी का अन्दरूनी वजूद इस तरह सोया रहता है जैसे उस पर नींद छाई हुई हो। आदमी ऊपर से जिन्दा दिखाई देता है, मगर अन्दर से वह एक मरा हुआ इन्सान होता है।
अब मैं एक आखिरी बात कह कर अपनी बात ख़त्म करूंगा। इस तरह की बातें जब कही जाती हैं तो कुछ लोग जवाब देते हैं, “आपकी बातें तो ठीक हैं, हम खुद भी अपने अन्दर यही चीज़ पैदा करना चाहते हैं। मगर समझ में नहीं आता कि यह चीज़ कैसे पैदा हो?’
वैसे तो यह महज़ एक सवाल है मगर दरअस्ल इसके ज़रिए से अपने इल्ज़ाम को अपने से हटा कर दूसरे के सिर डालने की कोशिश की गई है। मगर सोचिए कि वह ‘दूसरा’ कौन है, जिसके ऊपर आप अपना इल्ज़ाम डालना चाहते हैं। ज़ाहिर है कि वह इस दुनिया का मालिक ख़ुदा है। उसने सारी चीज़ों को बनाया है। इसलिए दूसरे को इल्ज़ाम देने का मतलब यह है कि ख़ुदा ने यह दुनिया इस ढंग से बनाई है कि हम वहां अपने ईमानी तक़ाज़ों को हासिल करना चाहें तो हासिल न कर सकें। ज़ाहिर है कि यह बिल्कुल ग़लत बात है। ख़ुदा इससे पाक है कि उस पर या उसके सृजन पर इस किस्म का इल्ज़ाम लग सके। इसलिए दूसरे पर इल्ज़ाम डाला नहीं जा सकता, वह अपनी तरफ़ ही लौटेगा।
हक़ीक़त यह है कि हमारी अपनी ज़ात के सिवा और कोई नहीं है जो हमारी तरक्की की राह में रुकावट डालने वाला हो। अच्छी तरह समझ लीजिए कि प्रकृति और सच्चाई में टकराव नहीं हो सकता। अगर यह हक़ीक़त है कि हमको ऐसा ही बनना चाहिए तो लाज़िमी तौर पर प्रकृति और जगत को ऐसा ही होना चाहिए कि हम ऐसे बन सकें।
इसलिए हर ख़राबी का कारण अपने अन्दर ढूंढिए, क्योंकि आपके बाहर हक़ीक़त में कोई चीज़ ही नहीं है, जहां ये कारण पाए जा रहे हों।
(आजमगढ़ के एक इज्तिमा में की गई तक़रीर 1963)
कलिम-ए-इस्लाम की हक़ीक़त इख़्लास और तक़्वा है हज़रत उस्मान बिन अफ्फ़ान कहते हैं कि मैंने रसूलुल्लाह सल्लल्लाह अलैहि वसल्लम को यह कहते सुना कि मैं एक ऐसा कलिमा जानता हूं कि जो बन्दा भी इसको अपने दिल से कहे वह आग पर हराम हो जाएगा। हज़रत उमर फ़ारूक़ ने कहा कि मैं तुमको बताऊं कि वह कलिमा क्या है? वह ‘इख़्लास’ का कलिमा है, जिसको अल्लाह तआला ने मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम और आपके असहाब पर लाज़िम किया था। वह तक़्वा का कलिमा है, जिसकी तल्क़ीन अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अपने चचा अबू तालिब को मौत के वक़्त की की थी। वह इस बात की गवाही देना है कि अल्लाह के सिवा कोई मा’बूद नहीं।
मेहनत की कमाई सबसे बेहतर
रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से किसी ने पूछा, “ऐ ख़ुदा के रसूल, सबसे बेहतर कमाई कौन-सी है? आपने जवाब दिया, “हाथ की कमाई”।