बोलने का तरीक़ा

रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का बोलने का तरीक़ा यह था कि आप हमेशा साफ़ अन्दाज़ में बोलते थे और अल्फ़ाज़ को ठहर-ठहर कर अदा करते थे। आपकी अहलिया हज़रत आयशा रज़ी अल्लाहु अन्हा ने बाद के ज़माने के लोगों से फरमायाः

रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम तुम लोगों की तरह तेज़-तेज़ नहीं बोलते थे, बल्कि आपके कलाम में ठहराव होता था। आप के पास बैठा हुआ आदमी उसको याद कर लेता था (ज़ादुल-मआद)।

एक और रिवायत में ये अल्फ़ाज़ आए हैं:

रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम इस तरह तेज़-तेज़ बातें नहीं करते थे जैसे तुम करते हो, आप इस तरह बात करते थे कि अगर गिनने वाला गिने तो उसको गिन ले। (बुख़ारी, मुस्लिम)

मोमिन का बोलना एक ऐसे शख़्स का बोलना होता है जो अल्लाह से डरने वाला हो। मोमिन को यक़ीन होता है कि उसका हर लफ़्ज़ फ़रिश्ते लिख रहे हैं। वह अपनी कही हर बात के लिए ख़ुदा के यहां जवाबदेह होने वाला है। मोमिन का यह यक़ीन उसके अन्दर ज़िम्मेदारी का एहसास पैदा कर देता है। वह जब बोलता है तो उसको ऐसा महसूस होता है जैसे वह ख़ुदा और फ़रिश्ते के सामने बोल रहा है। यह एहसास उसकी ज़ुबान पर लगाम लगा देता है। वह बोलने से पहले सोचता है। वह जब बोलता है तो अल्फ़ाज़ तोल कर अपने मुंह से निकालता है। ख़ुदा का ख़ौफ़ उससे तेज़-कलामी का अन्दाज़ छीन लेता है। आख़िरत की जवाबदेही का एहसास उसके बोलने के जोश के लिए रुकावट बन जाता है।

जो शख़्स इस क़िस्म के शदीद एहसासों से दबा हुआ हो वह आख़िरी हद तक संजीदा इन्सान बन जाता है। और संजीदा इन्सान की बातचीत का अन्दाज़ वही होता है, जिसका नक़्शा हज़रत आयशा की ऊपर वाली रिवायत में नज़र आता है।

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