एक सुन्नत
मक्का की फ़तह (8 हिजरी) के बाद रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने मक्का से तायफ़ का सफ़र किया। इस सफ़र के दौरान जो वाक़िआत पेश आए, उनमें से एक वाक़िआ वह है जो इन अल्फ़ाज़ में नक़ल किया गया है:
फिर आप उस रास्ते में चले जिसे ज़ैक़ा (तंग) कहा जाता था। जब आप उस तरफ़ चले तो आपने उसका नाम पूछा और कहा कि उसका नाम क्या है। आपको बताया गया कि ज़ैक़ा (तंग)। आपने फ़रमाया कि नहीं, बल्कि वह युसरा (आसान) है। (सीरत इबने हिशाम)
यह वाक़िआ बताता है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का तालीम और तरबियत का तरीक़ा क्या था। वह आदमी के तर्ज़े-फिक्र और सोचने के अंदाज़ को बदलना था। लोग जिस चीज़ को ‘मुश्किल’ के रूप में देख रहे हों, उसके बारे में ऐसी नज़र पैदा करना कि वे उसको ‘आसानी’ के रूप में देखने लगें। आज ज़रूरत है कि पैग़म्बर की इस सुन्नत को ज़िंदा किया जाए। लोगों के सोचने के तरीक़े को बदलना और उनके ज़ेहन को दुरुस्त करना, यही आज करने का सबसे बड़ा काम है, इसी काम के करने पर मुस्लिम मिल्लत का मुस्तक़बिल टिका हुआ है।
मौजूदा मुसलमानों ने अपने पैग़म्बर को क़ौमी हीरो की हैसियत दे रखी है। इसके बजाए उनके अन्दर यह ज़ेहन बनाना कि पैग़म्बर एक क़ाबिले तक़लीद (अनुकणीय) मिसाल है। आज मुसलमान अपनी तारीख़ और अपने इतिहास से फ़ख़्र और गर्व की ख़ुराक ले रहे हैं; इसके बजाए उन्हें तारीख़ से सबक़ लेने वाला बनाना। मुसलमान अपने मसलों को ज़ुल्म की नज़र से देख रहे हैं। इसके बजाए उनको इस क़ाबिल बनाना कि वे उन्हें चेलैंज की नज़र से देखें। मुसलमान दूसरी क़ौमों को अपना शत्रु और प्रतिद्वंद्वी समझे हुए हैं; इसके बजाए उनके अंदर यह निगाह पैदा करना कि वे दूसरी क़ौमों को ‘मदऊ’ (निमंत्रित) की हैसियत दें और उनके साथ ‘दाअीयाना’ यानी आमंत्रण और आवाहन वाला अख़लाक़ बरतें। ख़ुलासा यह कि मुसलमानों के अंदर ऐसा फिक्री इन्क़िलाब (वैचारिक क्रांति) लाना कि वे मौजूदा क़ौमी निगाह को छोड़ दें और चीज़ों को रब्बानी निगाह से देखने लगें। आज सबसे बड़ी ज़रूरत यह है कि उस छोड़ी हुई सुन्नत को दोबारा ज़िन्दा किया जाए।