इंसान से अधिक संवेदनशील रचना ईश्वर ने कोई नहीं बनाई, लेकिन इंसान से अधिक संवेदनहीनता का प्रमाण भी कोई नहीं देता।
हज़रत मसीह के उपदेशों में से एक उपदेश में निमंत्रणकर्ता और आमंत्रित की तुलना है। यहाँ इस तुलना का अनुवाद नक़ल करते हैं— “अतएव इस ज़माने के लोगों को मैं किससे उदाहरण दूँ। वह उन लड़कों की तरह हैं, जो बाज़ारों में बैठे हुए अपने साथियों को पुकारकर कहते हैं, हमने तुम्हारे लिए बाँसुरी बजाई और तुम न नाचे। हमने शोक किया और तुम नहीं रोए।” (बाइबिल, मत्ती, 11:16-17)
ईश्वर का निमंत्रणकर्ता ईश्वर के सागर में नहाता है। इस प्रकार उसके लिए संभव होता है कि वह ईश्वर के संसार में ईश्वर के गीत गाए। वह प्रकृति के सुरों पर ईश्वर के कभी न समाप्त होने वाले गीत गाए। इन गीतों में एकतरफ़ा ईश्वर की सुंदरता व चमत्कार की प्रभाएँ होती हैं, जिनकी माँग होती है कि इन्हें सुनकर इंसान नृत्य कर उठे। दूसरी ओर इन गीतों में ईश्वर की पकड़ की चेतावनियाँ होती हैं, जो एक संवेदनशील इंसान को तड़पाकर उसे रुला दें। ईश्वर का निमंत्रणकर्ता सौंदर्य और प्रताप का प्रकटन होता है, लेकिन इंसान इतना लापरवाह है कि उस पर इन चीज़ों का प्रभाव नहीं हुआ।
निमंत्रणकर्ता के कथन के रूप में ईश्वर बिल्कुल उसके निकट आ जाता है, लेकिन उस समय भी वह ईश्वर को नहीं पाता। उसमें न तो ईश्वर की प्रशंसा की अवस्थाएँ जाग्रत होती हैं और न ही ईश्वर के डर से आँखें भीगती हैं। वह कोमल संदेशों को भी पत्थर की तरह सुनता है, न कि उस इंसान की तरह जिसको ईश्वर ने वह बुद्धि दी है, जो बातों की गहराई को पा ले और वह हृदय दिया है, जो दर्द से तड़प उठे।
ईश्वर की ओर से एक पुकारने वाले का अस्तित्व में आना किसी मशीन पर बजने वाले रिकॉर्ड का अस्तित्व में आना नहीं है। यह इंसानी आत्मा में एक ऐसी क्रांति को पैदा करना है, जिसकी प्रचंडता ज्वालामुखी पर्वतों से भी अधिक कठोर होती है।
निमंत्रणकर्ता का बोलना अपने जिगर के टुकड़े को बाहर लाना होता है। उसका लिखना अपने रक्त को स्याही बनाने के बाद अस्तित्व में आता है। उसके गीत केवल गीत नहीं होते, बल्कि इंसानी आत्मा में एक ईश्वरीय भूचाल की आवाज़ होते हैं, लेकिन इस संसार की शायद सबसे विचित्र घटना यह है कि ऐसे ईश्वरीय कथन भी इंसान को प्रभावित नहीं करते। निमंत्रणकर्ता अपने पूरे अस्तित्व के साथ उसके सामने ‘स्पष्ट उदाहरण’ बन जाता है, इसके पश्चात भी वह अंधा बना रहता है।
इंसान के सामने स्वर्ग की खिड़कियाँ खोली जाती हैं, फिर भी वह हर्ष के उन्माद में नहीं आता। उसको भड़कते हुए नरक का नक़्शा दिखाया जाता है, फिर भी उस पर रुदन नहीं छाता। उसके सामने ईश्वर स्वयं खड़ा हो जाता है, फिर भी वह सज्दा नहीं करता। इंसान से अधिक संवेदनशील रचना ईश्वर ने कोई नहीं बनाई, लेकिन इंसान से अधिक संवेदनहीनता का प्रमाण भी कोई नहीं देता।