पुण्य वास्तव में उस कर्म में है,
जो केवल ईश्वर की इच्छा के लिए किया गया हो।
जिन लोगों को ईश्वर ने पैसा दिया है, वे सामान्य रूप से ऐसा करते हैं कि अपने कर्मचारियों और अपने अंतर्गत कार्यकर्ताओं को तो केवल उचित वेतन या मज़दूरी देते हैं। दूसरी ओर कॉन्फ्रेंस या रिलीफ़ फंड या प्रसिद्ध संस्थाओं को बड़ी-बड़ी धनराशि देकर प्रसन्न होते हैं। अगर उनसे पूछा जाए कि आप ऐसा क्यों करते हैं तो वे कहेंगे कि कार्य करने वालों को जो धनराशि दी जाती है, वह तो उनके कार्य की मज़दूरी होती है। इस पर हमें पुण्य नहीं मिलेगा। उन्होंने हमारी सेवा की तो हमने उनको उसके बदले उन्हें धनराशि दी। इस पर पुण्य कैसा? यह तो दोनों ओर से मामला बराबर हो गया। इसके विपरीत संस्थाओं और जातीय कार्यों के लिए जो धनराशि दी जाती है, इनके संबंध में निश्चित है कि इन पर पुण्य मिलेगा; लेकिन इसकी तह में असल बात कुछ और है और यह उत्तर केवल असल बात पर पर्दा डालने का एक प्रयास है।
वास्तविकता यह है कि हर इंसान के दिल में यह छिपी हुई इच्छा है कि वह जो कुछ दे, उसका प्रतिफल उसे इसी संसार में मिले। ग़रीब आदमी यह प्रतिफल पैसे के रूप में चाहता है, लेकिन जिन लोगों के पास पर्याप्त धन आ जाता है, उन्हें जिस प्रतिफल की इच्छा होती है, वह सामाजिक प्रतिष्ठा (Social Status) है। यही वह छिपी हुई इच्छा है, जो इस प्रकार के लोगों के ख़र्च करने की दिशा में बड़ी-बड़ी वर्णन योग्य मदों (वस्तुओं) की ओर कर देती है।
स्पष्ट है कि ग़रीब नौकर या कर्मचारी यह प्रतिफल देने का सामर्थ्य नहीं रखता। उसके पास न अख़बार होता है, न स्टेज। उसके पास न ऊँची बिल्डिंगों वाले संस्थान हैं और न स्वागत करने वाली परिधि, लेकिन एक आदमी जब किसी प्रसिद्ध संस्थान या किसी ‘महान आलीशान’ जातीय अभियान में धनराशि देता है तो उसे यह उम्मीद रहती है कि उसे इसका शानदार बदला मिलेगा— सभाओं की अध्यक्षता, सार्वजनिक अवसरों पर स्पष्ट स्थान, संस्थानों में भव्य स्वागत, सामाजिक हैसियत में वृद्धि, अख़बारों में नाम छपना और बड़े-बड़े लोगों की पंक्तियों में स्थान मिलना आदि।
पुण्य का संबंध नियत से है, न कि वर्णन योग्य मदों से। पुण्य वास्तव में उस कर्म में है, जो केवल ईश्वर की इच्छा के लिए किया गया हो। पुण्य यह है कि ईश्वर के लिए धन ऐसी मदों में दिया जाए, जो लोगों को दिखाई नहीं देतीं। उन अवसरों पर ख़र्च किया जाए, जहाँ हर प्रकार के दूसरे प्रेरक चूक जाते हैं। जिस ख़र्च का लाभ इसी संसार में वसूल कर लिया गया हो, उसका लाभ किसी को परलोक में मिलेगा तो क्यों मिलेगा। लोग दिखाई देने वाले स्थानों पर ख़र्च कर रहे हैं। हालाँकि ईश्वर उनके ख़र्च को स्वीकार करने के लिए उस स्थान पर खड़ा हुआ है, जो दिखावा करने वाले इंसानों को दिखाई नहीं देता।