अंधकार समाप्‍त होगा

रचयिता की योजना में संसार परीक्षा-गृह है, लेकिन हम इसको प्रत्‍युपकार-गृह के रूप में देखना चाहते हैं। जो कुछ कल के दिन सामने आने वाला है, उसे हम चाहते हैं कि आज ही के दिन हमारी आँखों के सामने आ जाए।

ईश्वर के संसार में इंसान प्रत्यक्ष रूप में एक विरोधाभास है। एक ऐसे संसार में जहाँ सूरज प्रतिदिन अपने ठीक समय पर निकलता है, वहाँ इंसान की स्थिति यह है कि आज वह एक बात कहता है और कल वह इससे पलट जाता है। जिस संसार में कठोर पत्थर के अंदर से भी पानी निकल पड़ता है, वहाँ एक इंसान दूसरे इंसान के सा‍थ बहुत ही क्रूरता का प्रमाण देता है।

जिस संसार में चाँद समस्‍त प्राणियों के ऊपर बिना भेदभाव के चमकता है, वहाँ इंसान एक के साथ कुछ व्यवहार करता है और दूसरे के साथ कुछ। जिस संसार का विवेक अपने आपको फूलों की कोमलता की स्थिति में प्रकट करता है, वहाँ इंसान काँटों से भी अधिक बुरे चरित्र का प्रदर्शन करता है। जिस संसार में हवाओं के झोंके चारों ओर नि:स्‍वार्थ सेवक की तरह प्रवाहित हैं, वहाँ इंसान इस प्रकार रहता है, जैसे निजी स्‍वार्थ पूरा करने के अतिरिक्‍त उसका कोई और उद्देश्‍य ही नहीं। जिस संसार में एक वृक्ष दूसरे वृक्ष को दुख नहीं देता, वहाँ एक इंसान दूसरे इंसान को सताता है। एक इंसान दूसरे इंसान को बरबाद करके प्रसन्न होता है।

यह सब कुछ इस संसार में प्रतिदिन हो रहा है, लेकिन ईश्वर यहाँ हस्‍तक्षेप नहीं करता और न ही वह इस विरोधाभास को समाप्‍त करता है। रचनाओं के लौकिक दर्पण में ईश्वर कितना सुंदर प्रतीत होता है, लेकिन इंसानी जीवन के जटिल होने में उसका चेहरा कितना अलग है। ईश्वर के सामने दरिंदगी की घटनाएँ घटती हैं, लेकिन उसके अंदर कोई तड़प पैदा नहीं होती। ईश्वर इंसानों को बलि पर चढ़ते हुए देखता है, लेकिन उसे उनकी कोई परवाह नहीं होती। वह सृष्टि के सबसे संवेदनशील लोगों के साथ क्रूरतापूर्ण व्यवहार का अवलोकन करता है, लेकिन उसके विरुद्ध उसके भीतर कोई व्याकुलता नहीं होती। क्या ईश्वर पत्थर की मूर्ति है? क्या वह एक बहुत ही सफल मूर्ति है, जो सब कुछ देखता है, लेकिन उसके बारे में अपनी प्रतिक्रिया प्रकट नहीं करता?

इस प्रश्न ने हर युग के सोचने वालों को सबसे अधिक परेशान किया है, लेकिन यह प्रश्न केवल इसलिए पैदा होता है कि रचनाओं के विषय में हम रचनाकार की तत्‍वदर्शिता का आदर नहीं करते। रचयिता की योजना में संसार परीक्षा-गृह है, लेकिन हम इसको प्रत्‍युपकार-गृह के रूप में देखना चाहते हैं। जो कुछ कल के दिन सामने आने वाला है, उसे हम चाहते हैं कि आज ही के दिन हमारी आँखों के सामने आ जाए।

जिस प्रकार प्रतिदिन रात के अँधेरे के बाद सूर्य का प्रकाश फैलता है, उसी प्रकार अनिवार्यत: यह भी होने वाला है कि जीवन का अंधकार समाप्‍त हो। पीड़ित और अत्याचारी एक-दूसरे से अलग किए जाएँ। विद्रोही इंसानों की गर्दनें तोड़ी जाएँ और सच्‍चे इंसानों को उनकी सच्चाई का पुरस्‍कार दिया जाए। यह सब कुछ अपने पूर्णतम रूप में होगा; लेकिन वह मृत्‍यु के बाद होगा, न कि मृत्‍यु से पहले।

Maulana Wahiduddin Khan
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