वास्तविकता यह है कि प्रभाव जितना अधिक हो, शब्द उतना ही कम हो जाते हैं। जो लोग धर्म व समुदाय के दुख में प्रतिदिन शब्दों की नदी बहाते रहते हैं, वे केवल इस बात का प्रमाण दे रहे हैं कि धर्म व समुदाय के दुख में वे सबसे पीछे हैं।
मिस्टर जोह्न ब्राउन उत्तरी इंगलिस्तान के एक ट्रक ड्राइवर थे । वे संतान से वंचित थे। उनकी पत्नी की शारीरिक व्यवस्था में कुछ जैविक अंतर के कारण दोनों के जीव-तत्व (शुक्राणु व डिंब) गर्भाशय में परस्पर मिलते नहीं थे। वे संतान की ओर से निराश हो चुके थे कि ऐसे कठिन समय में विज्ञान ने उनकी सहायता की। लंदन के डॉक्टर पैट्रिक स्टेप्टो, जो वर्षों से इस क्षेत्र में परीक्षण कर रहे थे, उन्होंने अपनी प्रयोगशाला में जोह्न ब्राउन का वीर्य निकाला और मिसेज ब्राउन से एक अंडा (डिंब) लिया। दोनों को उन्होंने एक विशेष टेस्ट ट्यूब में रखा। प्राकृतिक नियम के तहत दोनों निषेचित हो गए।
चार दिन बाद डॉक्टर ने उसे कृतिम रूप से गर्भाशय में धारण कराया। अब गर्भाशय में इस बच्चे का पोषण होने लगा। परीक्षण सफल रहा। अगस्त, 1978 में इतिहास का पहला टेस्ट ट्यूब बेबी अस्तित्व में आ गया। इस पूरी प्रक्रिया का चित्रण होता रहा और जन्म के बाद उसे पूरी तरह से टी०वी० पर दिखाया गया। जब टेस्ट ट्यूब बेबी लुइस ब्राउन के पिता से इस पूरी घटना पर टिप्पणी करने के लिए कहा गया तो उसने कहा, “ब्यूटीफुल।” इस एक शब्द के अलावा वह कुछ न कह सका।
दुख की घटना प्रसन्नता से अधिक बड़ी घटना होती है। इंडियन नेवी के एक अफ़सर की पत्नी मिसेज उमा चोपड़ा को 26 अगस्त, 1978 को जब पता चला कि उनके दोनों बच्चे गीता (17) और संजय (15) की नई दिल्ली में बड़ी क्रूरता से किसी ने हत्या कर दी है तो उसके बाद उनका यह हाल हुआ कि सात घंटे तक वह एक शब्द न बोल सकीं।
वास्तविकता यह है कि प्रभाव जितना अधिक हो, शब्द उतना ही कम हो जाते हैं। जब बहुत अधिक प्रसन्नता हो तो तब भी इंसान अधिक बोल नहीं पाता और बहुत अधिक दुख हो, तब भी अधिक बोलना इंसान के लिए संभव नहीं रहता। जो लोग धर्म व समुदाय के दुख में प्रतिदिन शब्दों की नदी बहाते रहते हैं, वे केवल इस बात का प्रमाण दे रहे हैं कि धर्म व समुदाय के दुख में वे सबसे पीछे हैं। जो इंसान दुख-दर्द से ग्रस्त हो, उसकी तो चुप्पी लग जाती है, न कि वह शब्दों में भाषाई पहलवानी के करतब दिखाने लगे।
वास्तविकता यह है कि लोगों ने ईश्वर को न कृपालु के रूप में पाया है और न ही प्रतिशोधक के रूप में। अगर वे दोनों में से किसी रूप में भी ईश्वर को पा लेते तो यह स्थिति न रहती कि हर इंसान ऐसे शब्दों का भंडार बना हुआ है, जो किसी तरह समाप्त होने में नहीं आते।