प्राकृतिक तक़ाज़ा
ब्रह्मचर्य (अविवाहित जीवन) को कुछ धर्मों में पवित्र माना गया है। लेकिन जब भी ब्रह्मचर्य को व्यवहार में लाया गया, समाज में असाध्य ख़राबियां पैदा हो गईं। मसलन यूनान में ब्रह्मचर्य (celibacy) पर अमल करने का अंजाम यह हुआ कि उनकी आबादी में गैर-मामूली कमी आ गई। इसी तरह मसीही चर्च में ब्रह्मचर्य को उच्च मानदंड माना गया, जिसका नतीजा इतना बदतर निकला कि उनमें विवाहेतर सम्बन्ध और नाजायज़ औलाद की समस्याएं पैदा हो गईं।
यह प्रकृति से हटने की सज़ा है। जब भी इन्सान के किसी प्राकृतिक तक़ाज़े पर पाबंदी लगाई जाएगी, यह पाबंदी भयंकर बुराइंया पैदा करेगी। जो तकाज़ा रचनात्मक रूप से इन्सान की प्रकृति में शामिल हो उस पर रोक लगाना मुमकिन नहीं। ऐसे किसी तक़ाज़े पर रोक लगाना सिर्फ़ इस क़ीमत पर होता है कि और भी ऐसी भयंकर बुराइयां पैदा हो जाएं, जिन पर नियंत्रण करना संभव न हो।
इसी क़िस्म की अप्राकृतिक पाबंदी की एक मिसाल लोगों को आलोचना (तनक़ीद) से रोकना है। आलोचना अन्य प्राकृतिक तक़ाज़ों की तरह एक स्वाभाविक तक़ाज़ा है। अगर इस पर रोक लगाई जाए तो इसका नतीजा सिर्फ़ यह होगा कि लोगों के दिलों में तो कुछ होगा, पर वे मुंह से कुछ और कहेंगे। इस तरह लोगों के अन्दर ‘मुनाफ़िक़त’ (पाखंड) की बुराई पैदा हो जाएगी और मुनाफ़िक़त तमाम बुराइयों में सबसे ज़्यादा बड़ी बुराई है।
यह एक स्वाभाविक सच्चाई है कि लोगों की सोच में फ़र्क़ होता है, इसलिए लोगों की राय में मतभेद पैदा हो जाता है। इसी वैचारिक मतभेद का नाम आलोचना है। आलोचना वैचारिक मतभेद के कारण प्रकट होती है और वैचारिक मतभेद प्रकृति के अनिवार्य तक़ाज़े के कारण।
आलोचना पर रोक लगाने से आलोचना का असली कारण तो ख़त्म न होगा; हां, इसका व्यावहारिक नतीजा यह होगा कि लोग ‘मुनाफ़िक़’ बन जाएंगे। लोगों के दिलों में आलोचना होगी और जुबान पर तारीफ़। वे बनावटी बाते करेंगे। उनके कथन और उनके भाव में प्रतिबद्धता न रहेगी। इसी ‘दो-अम्ली’ (दोहरे चरित्र) का नाम मुनाफ़िक़त है। सही बात यह है कि आलोचना को बर्दाशत करने का स्वभाव पैदा किया जाए, न कि आलोचना पर रोक लगाई जाए। आलोचना को बर्दाश्त करने से स्वस्थ समाज बनता है और आलोचना को बंद करने से मुनाफ़िक़ (पांखडी) समाज।