दृष्टिहीन, दृष्टिवान
दिन और रात का फ़र्क़ उसके लिए है जो आंखो वाला हो; जो आदमी नेत्रहीन हो उसके लिए दिन और रात के बीच कोई फ़र्क़ नहीं। उसके लिए दिन भी वैसा ही है जैसी रात। उसके लिए ज़िन्दगी अंधेरों का एक अथाह समुद्र है, जहां कोई उजाला नहीं। उसके लिए दुनिया एक अनन्त अंधकारपूर्ण शून्य है, जिसमें रोशनी की कोई किरण नहीं।
यही हाल अर्थ के लिहाज़ से उस इन्सान का है, जो ‘दृष्टि’ न रखता हो, जानने-समझने की संवेदना न रखता हो। ऐसे इन्सान के लिए सत्य और असत्य में कोई फ़र्क़ नहीं। उसके लिए सच भी वैसा ही होगा जैसा झूठ। उसके लिए जुल्म भी वैसा ही होगा जैसा इन्साफ़।
‘दृष्टि वाले’ और ‘बिना दृष्टि वाले इन्सान के बीच इससे भी ज़्यादा बड़ा फ़र्क़ है जो तथ्यों की समझ के बारे में पैदा होता है। ‘दृष्टि’ वाले आदमी के अन्दर ‘सूझबूझ’ होती है, जो सच्चाई को सच्चाई के रूप में और झूठ को झूठ के रूप में दिखाती है। उसकी बातों में स्तरहीनता और विरोधावास नहीं होता। वह हमेशा लगती हुई बात कहता है। उसकी जुबान सच्चाई के मुताबिक़ खुलती है। वह वही बात कहता है जो कहना चाहिए और वह बात नहीं कहता, जो कहने वाली नहीं।
इसके बरअक्स जो आदमी ‘दृष्टिहीन’ हो उसकी समझ अंधेरे में भटकने वाली समझ होती है। वह कभी कुछ कहता और कभी कुछ। उसकी बातों में सस्तापन और विरोधावास होता है। उसकी बातें अर्थहीन होती हैं, पर शब्दों से भरी होती हैं।
आप नेत्रवान आदमी को देखें तो उसके चेहरे पर रौनक दिखाई देगी। इसके बरअक्स नेत्रहीन आदमी के चेहरे पर एक तरह की बेरौनकी छाई हुई होती है। यही हाल दृष्टिहीन (बे-बसीरत) कथन और दृष्टिवान (बा-बसीरत) कथन का है। एक सुरुचिपूर्ण आदमी कुछ बातें सुनकर या कुछ पंक्तियां पढ़कर जान लेता है कि कहने वाला आदमी दृष्टिहीन आदमी है या दृष्टिवान।