जंग नहीं

टाइम्स ऑफ इंडिया (4 दिसम्बर 1989) ने एक सार्वभौमिक आकलन शुरू किया था। इसमें बताया गया कि आज दुनिया के कूटनीतिक किस अन्दाज़ में सोचते हैं। इसमें बिल्कुल दुरुस्त तौर पर आधुनिक ज़ेहन की नुमाइन्दगी करते हुए कहा गया कि विश्व शक्ति या समाजी तब्दीली के लिए जंग के हथियार का इस्तेमाल अब एक नामुमकिन चीज़ बन चुका है।

मौजूदा ज़माने में ऐसे बहुत से सबब सामने आए हैं, जिन्होंने जंग के तरीके को एक नामुमकिन तरीक़ा बना दिया है। आज कोई क़ौम जंग करके वह फ़ायदा हासिल नहीं कर सकती, जो पुराने ज़माने में शासक वर्ग इससे हासिल किया करता था।

नई सूरतेहाल ने तमाम दुनिया में लोगों का ज़ेहन बदल दिया है। तमाम लोग टकराव के बजाय बातचीत के तरीके की वकालत करने लगे हैं। जिन देशों के पास सबसे ज़्यादा जंगी ताकत है, वे भी आपस में सुलह व समझौते की बातें कर रहे हैं, ताकि उनमें टकराव की नौबत न आए।

आज की दुनिया में अब सिर्फ़ एक क़ौम ऐसी है जो आज भी जंग में मश्गूल है, जिसके रहनुमा आज भी लड़ रहे हैं। मुस्लिम रहनुमा आज भी जंगी भाषा में जोशीली तक़रीरें करने में मश्गूल हैं।

आज बेहद ज़रूरी हो गया है कि मुसलमानों के अन्दर बेमानी लड़ाई का मिज़ाज़ ख़त्म किया जाए। उनकी ज़ेहनी तरबियत के ज़रिए उन्हें ऐसा बनाया जाए कि वे आज की दुनिया को समझें और तलवार के बजाय नज़रियों और विचारों की ताक़त से अपनी ज़िन्दगी की तामीर करें।

यह सूरते-हाल अल्लाह की अज़ीम नेमत है, जो पूरी तरह मुसलमानों के हक़ में है। इस तरह ख़ुदा इतिहास को मुक़ाबले के उस मैदान में लाया है, जहां इस्लाम साफ़ तौर पर निर्णायक हैसियत रखता है। भौतिक ताक़त में कोई दूसरा इस्लाम वालों से आगे बढ़ सकता है, मगर विचार और नज़रिए के मामले में इस्लाम को एकाधिकार (monopoly) की हद तक अटूट ताकत हासिल है। हथियार के मैदान में जीत और हार दोनों की संभावना है। मगर वैचारिक मुकाबले में इस्लाम की फ़त्ह यक़ीनी है। यहां कोई उसके ऊपर फ़तह पाने वाला नहीं।

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