जो पूजनीय नहीं है, उसे पवित्र और पूजनीय मान लेना ही सारी बुराइयों की जड़ है। यही वह चीज़ है, जिसे धर्म की भाषा में अनेकेश्वरवाद कहा जाता है। अनेकेश्वरवाद को क़ुरआन में सबसे बड़ा अन्याय (31:13) कहा गया है। अन्याय का वास्तविक अर्थ है किसी चीज़ को ऐसी जगह रखना, जो उसकी जगह न हो।
अनेकेश्वरवाद सबसे बड़ा अन्याय इसलिए है कि वह इस तरह का सबसे ज़्यादा संगीन और बुरा काम है। वह ऐसी चीज़ों को पूज्य-पवित्र और ईश्वर मान लेता है, जो वास्तव में ईश्वर नहीं है। वह ईश्वर के सिवा किसी चीज़ या किसी व्यक्ति को वह हैसियत दे देता है, जो सिर्फ़ एक ईश्वर के लिए ख़ास है।
इस अन्यायपूर्ण काम का सबसे बड़ा नुक़सान यह है कि आदमी की इबादत का मूल केंद्र बदल जाता है। वह ऐसी हस्तियों को पूजने लगता है, जो इस योग्य नहीं कि उन्हें पूजा जाए। इसका परिणाम यह होता है कि वह ब्रह्मांड में उस एकमात्र सहारे से वंचित हो जाता है, जिसके सिवा आदमी के लिए कोई सहारा नहीं। वह अपने आपको इस योग्य नहीं बना पाता है कि वह ईश्वर की कृपा का अधिकारी बने और जो व्यक्ति ईश्वर की कृपा से वंचित हो जाए, वह हमेशा-हमेशा के लिए वंचित हो गया, क्योंकि किसी और के पास यह शक्ति ही नहीं कि वह किसी व्यक्ति को अपनी कृपा दे सके। यह वह नुक़सान है, जो हमेशा-हमेशा की ज़िंदगी के मामले से संबंधित है, लेकिन वर्तमान दुनिया के अस्थायी जीवन की दृष्टि से भी इसमें नुक़सान के सिवा और कुछ नहीं।
प्राचीन समय में इंसानों ने बहुत-सी चीज़ों को पवित्र और पूजनीय मान लिया था‚ जो वास्तव में नहीं थीं। इसके परिणामस्वरूप वे लगातार नुक़सान का शिकार होते रहे। इस अनेकेश्वरवादी सोच और विचारधारा ने बहुत सारी विचित्र आस्थाओं को जन्म दिया। यहाँ तक कि मिथकों और अंधविश्वासों की एक पूरी श्रृंखला स्थापित हो गई, जैसे— जब बिजली चमकी तो समझ लिया गया कि यह देवता का जलता हुआ कोड़ा है। चाँद या सूरज ग्रहण पड़ा तो मान लिया गया कि देवता पर कोई मुसीबत का समय आया है इत्यादि।
पवित्रता की यह अनेकेश्वरवादी आस्था धार्मिक गुरुओं के लिए बहुत ही फ़ायदेमंद थी। उन्होंने इसे पूरा दृष्टिकोण बना डाला तथा ईश्वर और इंसानों के बीच बिचौलिया बनकर लोगों को ख़ूब लूटने लगे। उन्होंने लोगों के अंदर यह सोच पैदा की कि धार्मिक गुरुओं को प्रसन्न करना अप्रत्यक्ष रूप से ईश्वर को प्रसन्न करना है। इसका सबसे बड़ा फ़ायदा राजाओं को मिला। उन्होंने प्रजा की इस सोच का प्रयोग करते हुए ईश्वरीय राजा (God-King) का दृष्टिकोण बनाया।
राजा के पास किसी समाज में सबसे ज़्यादा शक्ति और धन होता है। वह कई दूसरे मामलों में भी आम लोगों से अलग होता है। इस ख़ास हैसियत से फ़ायदा उठाते हुए राजाओं ने लोगों को विश्वास दिलाया कि वे आम इंसानों से बेहतर और श्रेष्ठ हैं। वे धरती पर ईश्वर के प्रतिनिधि हैं। किसी ने सिर्फ़ इतना कहा कि वे ईश्वर और बंदों के बीच की कड़ी हैं। किसी ने आगे बढ़कर यह विश्वास दिलाया कि वे ईश्वर का अवतार या उसकी शारीरिक उपस्थिति हैं। वे अलौकिक और दिव्य शक्तियों के मालिक हैं। इस आधार पर प्राचीन समय के राजा अपनी प्रजा पर संपूर्ण अधिकार रखने वाले बन गए।
एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका (1984) की थीसिस में लेखक ने पूजनीय और पवित्र राजशाही (Sacred Kingship) के तहत लिखा है कि एक समय जबकि धर्म हर तरह से आदमी के पूरे जीवन, साथ-ही-साथ सामाजिक जीवन से पूरी तरह जुड़ा हुआ था और जबकि राज्य विभिन्न स्तरों पर धार्मिक शक्तियों या धार्मिक संस्थाओं से जुड़ा हुआ था‚ उस समय कोई भी राज्य दुनिया में ऐसा न था, जो किसी पहलू से पवित्र और पूजनीय न समझा जाए।
At one time, when religion was totally connected with the whole existence of the individual as well as that of the community and when kingdoms were in varying degrees connected with religious powers or religious institutions, there could be no kingdom that was not some sense sacred.
[Encyclopaedia Britannica (1984), Vol. 16, p. 118]
प्राचीन समय के अनेकेश्वरवाद ने जब शासकों को पूज्य और पवित्रता की हैसियत दी तो उसने एक साथ दो गंभीर बुराइयाँ समाज में पैदा कर दीं। उसने सत्ता और शासन की बुराई को उसकी अंतिम संभव सीमा तक पहुँचा दिया। जैसा कि इतिहासकार और राजनीतिज्ञ लॉर्ड ऐक्टन (सन् 1834-1902) ने कहा कि सत्ता बिगाड़ती है और पूर्ण सत्ता बिल्कुल बिगाड़ देती है।
Power corrupts and absolute power corrupts absolutely.
इसी के साथ यह कि अब प्रजा के लिए शासक को बदलना संभव न था, क्योंकि जो शासक ईश्वर का प्रतिनिधि हो या ईश्वर का अवतार हो, बल्कि ख़ुद ही ईश्वर हो तो उसके बारे में प्रजा यह सोच ही नहीं सकती थी कि उसे सत्ता से हटाए और इसलिए बढ़े हुए अत्याचार से छुटकारा पाए।
यह राजनीतिक बुराई जिसे बेल्जियन इतिहासकार हेनरी पिरेन ने बेलगाम राजशाही कहा है‚ हर प्रकार की उन्नति की राह में स्थायी रुकावट बन गई। इस्लाम ने जब प्राचीन साम्राज्यों को तोड़ा‚ उसके बाद ही यह संभव हुआ कि इंसान के ऊपर हर प्रकार की उन्नति का दरवाज़ा खुले। इस सिलसिले में हेनरी पिरेन की किताब ‘हिस्ट्री ऑफ़ वेस्टर्न यूरोप’ का अध्ययन बहुत उपयोगी और जानकारी बढ़ाने वाला है।
हेनरी पिरेन के नज़रिये का सार यह है कि प्राचीन रोमन साम्राज्य जो लाल सागर (Red Sea) के दोनों ओर छाया हुआ था‚ वह विचार और राय व्यक्त करने की आज़ादी को समाप्त करके मानवीय उन्नति का दरवाज़ा बंद किए हुए था। इस बेलगाम और तानाशाही वाले साम्राज्यवाद को तोड़े बिना इंसानी दिलो-दिमाग़ को आज़ादी नहीं मिल सकती थी और इंसान को जब तक स्वतंत्र और निर्बाध वातावरण में काम करने का अवसर न मिले‚ तब तक मानव विकास की शुरुआत भी नहीं हो सकती।
लेखक इस सूची में ईरानी राजशाही को भी शामिल करता है। ये दोनों राजशाहियाँ बसे हुए प्राचीन संसार के काफ़ी बड़े हिस्से पर क़ब्ज़ा किए हुए थीं, जो रियासत के सीमित शाही लाभ से संबंधित सोच-विचार के विरुद्ध स्वतंत्र होकर सोचने के अधिकार को पूरी तरह से रद्द किए हुए थीं। यही कारण है कि लंबे शासन के बावजूद ईरानी साम्राज्य के इलाक़े में साइंटिफिक या वैज्ञानिक तरीक़े की सोच-विचार की सही शुरुआत नहीं हो सकी।