अमेरिकी अंतरिक्ष-यात्री नील आर्मस्ट्रांग (Neil Armstrong) पहला व्यक्ति है जिसने चार दिनों की अंतरिक्ष यात्रा के बाद 20 जुलाई, 1969 को चाँद पर अपना क़दम रखा और वहाँ पहुँचकर यह ऐतिहासिक शब्द कहे—
“एक इंसान के लिए यह एक छोटा क़दम है‚ लेकिन इंसानियत के लिए बहुत बड़ी छलाँग है।”
“That’s one small step for a man, one giant leap for mankind.” (I/530).
आर्मस्ट्रांग और उनके साथी एडविन एल्ड्रीन और माइकल कोलिंस ने एक विशेष रॉकेट अपोलो-11 पर यात्रा की और अंतिम चरण में एक अंतरिक्ष यान ईगल के द्वारा चाँद की सतह पर उतरे।
अपोलो रॉकेट और अंतरिक्ष यान ईगल कोई जादुई उड़नखटोला नहीं था। यह प्रकृति के अटल नियमों के तहत बनी हुई एक साइंटिफिक मशीन थी। उसने प्रकृति के नियमों का उपयोग करके यह पूरी अंतरिक्ष यात्रा तय की। ये नियम हमारी दुनिया में लाखों वर्षों से मौजूद थे, लेकिन इंसान इससे पहले कभी यह सोच न सका कि वह प्रकृति के इस नियम को जाने और इसे उपयोग करके चाँद तक पहुँचने का प्रयास करे।
प्रकृति में मौजूद संभावनाओं के बावजूद चाँद तक पहुँचने में इस देरी का कारण क्या था? यह कारण बड़े पैमाने पर फैला हुआ अनेकेश्वरवाद था। दूसरे शब्दों में, निर्जीव और सजीव चीज़ों को देवी-देवता समझकर उन्हें इबादत के योग्य समझना और उनकी पूजा-आराधना (worship) करना।
प्राचीनकाल में अनेकेश्वरवाद का विश्वास पूरी दुनिया में छाया हुआ था। इंसान दूसरी चीज़ों की तरह चाँद को भी अपना ईश्वर समझता था। चमकदार चाँद को देखकर इंसान के मन में उसके आगे झुकने का विचार उत्पन्न होता था, न कि उसे जीतने का प्रयास करने का। चाँद को पवित्र और पूजनीय समझना इसमें रुकावट बन गया कि इंसान चाँद को जीतने की बात सोच सके। सातवी सदी में पहली बार ऐसा हुआ कि इस्लाम के माध्यम से वह क्रांति आई, जिसने अनेकेश्वरवाद के वर्चस्व को समाप्त करके ‘एक ईश्वर में विश्वास’ को एक प्रभावी सोच बना दिया। यह क्रांति सबसे पहले अरब में आई। उसके बाद वह एशिया और अफ़्रीक़ा की यात्रा करती हुई यूरोप पहुँची, फिर वह अटलांटिक को पार कर अमेरिका में प्रवेश कर गई। मुस्लिम दुनिया में यह क्रांति धर्म के प्रभाव के माध्यम से आई, जबकि पश्चिमी दुनिया ने अपनी विशेष परिस्थितियों के प्रभाव में इस क्रांति को धर्म से अलग करके इसे एक सांसारिक ज्ञान और धर्मनिरपेक्ष विज्ञान के रूप में विकसित करना शुरू किया और फिर इसे आज के दिनों की ऊँचाइयों तक पहुँचाया।
जिस तरह राष्ट्रीयकरण (nationalization) मार्क्सवाद की दार्शनिक प्रणाली का एक आर्थिक हिस्सा है‚ उसी प्रकार आधुनिक विज्ञान (modern science) इस्लामी क्रांति का एक अधूरा हिस्सा है, जिसे उसकी पूरी हस्ती से अलग कर लिया गया है।
चाँद की यात्रा की चर्चा यहाँ एक उदाहरण के रूप में की गई है। यही उन सभी ज्ञान-विज्ञानों का मामला है, जिन्हें आज के समय में प्राकृतिक विज्ञान (natural science) कहा जाता है। ये विज्ञान प्राचीनकाल में प्रकृति की घटनाओं (nature’s phenomena) को पवित्र और पूजनीय समझ लिये जाने के कारण वर्जित ज्ञान बना दिए गए थे। ईश्वर को एक मानने की क्रांति ने प्राकृतिक चीज़ों को सम्मान और आस्था के पद से हटाकर उनकी जाँच और खोज का द्वार खोल दिया।
इस प्रकार मानव इतिहास में सृष्टि के बारे में स्वतंत्रतापूर्वक जाँच-पड़ताल और खोज के कामों का एक नया दौर शुरू हुआ। यह दौर हज़ार साल की मेहनत और सफ़र के बाद आख़िरकार आज के आधुनिक विज्ञान और टेक्नोलॉजी तक पहुँचा। आधुनिक विज्ञान पूरी तरह से इस्लामी क्रांति की देन है। शुरुआती दौर में प्रत्यक्ष रूप से (directly) और उसके बाद अप्रत्यक्ष रूप से (indirectly)।
इस सच्चाई को आम तौर पर किसी-न-किसी अंदाज़ में स्वीकार किया गया है। हाल के वर्षों में कई ऐसी किताबें लिखी गई हैं, जैसे— ‘अरबों के वैज्ञानिक कारनामे’ (The Scientific Achievements of the Arabs) या ‘सभ्यता के विकास में मुसलमानों का योगदान’ (The Muslim’s Contribution to Civilization) इत्यादि।
विद्वानों और खोज करने वालों ने आम तौर पर इस बात को माना है कि आधुनिक औद्योगिक प्रगति (modern industrial progress) अरब मुसलमानों के प्रभावों से ही हमारे सामने आई।
प्रसिद्ध वैज्ञानिक ए. हम्बोल्ट (A. Humboldt) ने कहा है—
“असल में अरब ही हैं जिन्हें सही अर्थों में भौतिक विज्ञान (physics) का असली संस्थापक समझा जाना चाहिए।”
It is the Arabs who should be regarded as the real founders of physics. (p. 25)
फ़िलिप हिट्टी ने अपनी किताब ‘हिस्ट्री ऑफ़ दि अरब’ में लिखा है कि मध्य युग के किसी भी समुदाय ने मानव विकास में इतना अधिक योगदान नहीं दिया, जितना अरबों ने और अरबी भाषा बोलने वालों ने दिया।
“No people in the Middle Ages contributed to human progress so much as did the Arabsand the Arabic-speaking people.” (p. 4)
इतिहासकारों ने आम तौर पर माना है कि अरब-मुसलमानों के माध्यम से जो ज्ञान-विज्ञान यूरोप पहुँचा‚ आख़िरकार वही यूरोप के नवजागरण (renaissance) या सही शब्दों में प्रथम जागरण पैदा करने का कारण बना। प्रोफ़ेसर हिट्टी ने लिखा है कि 832 ई० में बग़दाद में ज्ञान-सदन बनाने के बाद जिसे बैत-अल-हिक्मा (House of Wisdom) कहा जाता है, अरबों ने जो अनुवाद किए और जो पुस्तकें तैयार की‚ वह लैटिन भाषा में अनूदित होकर स्पेन और सिसली के रास्ते से यूरोप पहुँची और फिर वह यूरोप में नवजागरण के पैदा होने का कारण बनीं।
This stream was re-diverted into Europe by the Arabs in Spain and Sicily, whence it helped create the Renaissance of Europe. (p. 307)
लेकिन सवाल यह है कि ख़ुद अरब-मुसलमानों के अंदर यह मानसिकता और सोच का विशिष्ट दृष्टिकोण कैसे पैदा हुआ, जबकि वे ख़ुद भी पहले उसी आम पिछड़ेपन की हालत में पड़े हुए थे जिसमें सारी दुनिया के लोग पड़े हुए थे। इसका जवाब सिर्फ़ एक है, वह है— ‘ईश्वर को एक मानने का विश्वास’ (monotheism)। यही उनके लिए इस मानसिक और व्यावहारिक क्रांति का कारण बना। दूसरे समुदायों के पास अनेकेश्वरवाद की आस्था थी, जबकि इस्लामी क्रांति के बाद अरबों के पास एकेश्वरवाद की भावना का विशिष्ट दृष्टिकोण। इसी अंतर ने दोनों के इतिहास में यह अंतर पैदा कर दिया कि एक इतिहास का साधारण रूप बना रहा और दूसरा इतिहास को ख़ुद से आकार देने वाला बन गया।
इस पुस्तक का उद्देश्य केवल यह है कि एक विशेष ऐतिहासिक घटना, जिसे लोगों ने सिर्फ़ एक मुस्लिम समुदाय के कारनामों के नाम पर लिख रखा है‚ इसे ज़्यादा सही तौर पर ‘इस्लाम की देन’ के अंतर्गत दर्ज किया जाए। यह केवल एक ज्ञात घटना को स्पष्ट रूप से सामने लाना है‚ न कि किसी अज्ञात घटना की सूचना देना।
एक उदाहरण से इस बात को और अधिक स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है—
यह एक ज्ञात सत्य है कि भारत 1947 ईo में आज़ाद हुआ। कोई भी व्यक्ति यह कह सकता है कि भारत को गाँधी और नेहरू ने आज़ाद कराया, लेकिन गहराई से देखा जाए तो यह कहना सही होगा कि अपने देश में अपने लोगों के द्वारा अपनी ख़ुद की लोकतांत्रिक सरकार बनाने की नई सोच ने भारत को आज़ाद कराया। पिछले कुछ वर्षों में लोगों द्वारा सरकार चुनने और शासन चलाने की माँग तथा देशों और समुदायों की आज़ादी की सोच पर सारी दुनिया में जो विशेष प्रकार के परिवर्तन आए, उनसे वह हालात पैदा हुए कि कोई गाँधी या नेहरू उठे और देश को आज़ादी की ओर ले जाने में कामयाब हो सके। अगर दुनिया भर में हुए इस परिवर्तन का यह वातावरण समुदायों की आज़ादी की माँग के साथ ताल-मेल न कर रहा होता तो हमारे नेताओं के द्वारा शुरू किया गया स्वतंत्रता आंदोलन भी सफलता के साथ आगे न बढ़ पाता। इस पुस्तक में आगे की चर्चा का विषय भी यही है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि अरब-मुसलमानों के माध्यम से ही दुनिया में आधुनिक वैज्ञानिक क्रांति (modern scientific revolution) की शुरुआत हुई, लेकिन ख़ुद इस शुरुआती हौसले और जोश का कारण भी यही था कि इस्लाम ने इन्हें एक नई सोच और विचारधारा (new way of thinking) दी।
इस प्रकार विज्ञान का इतिहास सिर्फ़ एक क़ौम या समुदाय का कारनामा नहीं रहता, बल्कि उस दीन (धर्म) के योगदान के रूप में स्वीकार किया जाता है, जो हमेशा के लिए सारे इंसानों को सही और सीधा रास्ता दिखाने के लिए ईश्वर के द्वारा अपने बंदों की ओर भेजा गया है।
प्रसिद्ध इतिहासकार हेनरी पिरेन (Henri Pirenne) ने इस ऐतिहासिक सच्चाई को इन शब्दों में स्वीकार किया है—
“इस्लाम ने दुनिया का चेहरा बदल डाला। इतिहास के पुराने रीति-रिवाज वाले ढाँचे को उखाड़कर फेंक दिया गया।”
Islam changed the face of the globe. The traditional order of history was overthrown. (History of Western Europe)
प्रस्तुत पुस्तक इस्लाम की क्रांति के इसी पहलू की पहचान कराती है। इस विषय पर मैं विस्तृत किताब तैयार करना चाहता था। सूचना और जानकारी जमा करने का काम बहुत ही धीमी गति से चल रहा था। आख़िरकार मुझे अहसास हुआ कि मैं अपने मौजूदा काम के दबाव के कारण असल मक़सद की एक विस्तृत और बड़ी किताब शायद तैयार न कर सकूँगा‚ इसलिए यह फ़ैसला करना पड़ा कि जितना काम हो चुका है‚ उसे बिना किसी देरी के एक किताब का रूप देकर लोगों के सामने प्रस्तुत किया जाए।
अगर वक़्त और हालात ने मौक़ा दिया और ईश्वर ने चाहा तो आगे चलकर इसमें और अधिक खोज, रिसर्च और चर्चा की बढ़ोतरी की जा सकेगी और अगर ऐसा संभव न हुआ तो यह पहली किताब किसी बाद में आने वाले के लिए एक बेहतर किताब की तैयारी में मददगार हो सकती है।
वहीदुद्दीन ख़ान
14 अप्रैल, 1989