भौतिक विज्ञान

20वीं सदी के प्रसिद्ध अंग्रेज़ इतिहासकार अर्नोल्ड टॉयनबी ने यह सवाल उठाया कि प्राकृतिक चीज़ों और नियमों को प्रयोग करने का दूसरा नाम विज्ञान हैफिर प्रकृति को नियंत्रित करने और उसे इंसान के प्रयोग में लाने में इतनी देर क्यों लगी, जबकि यह करोड़ों वर्षों से हमारी दुनिया में मौजूद थी?

फिर उसने स्वयं ही इसका उत्तर दिया है कि प्राचीन समय में प्राकृतिक चीज़ें और घटनाएँ इंसान के लिए उपासना का विषय बनी हुई थीं और जिस चीज़ को इंसान उपासना की चीज़ समझ ले, ठीक उसी समय वह उसे जाँच-पड़ताल, खोज और प्रयोग की चीज़ नहीं समझ सकता।

अर्नोल्ड टॉयनबी ने ठीक ही लिखा है कि प्राचीन इंसान के लिए प्रकृति केवल प्राकृतिक संसाधनों के एक ख़ज़ाने के समान न थी, बल्कि वह देवी थी। वह उनके लिए जगत जननी और धरती माँ थी। धरती पर फैले हुए पेड़-पौधे और वनस्पतियाँउसकी सतह पर घूमने वाले जीव-जंतुउसके अंदर छुपे हुए खनिज पदार्थ सब-के-सब ईश्वरीय विशेषताओं के मालिक थे। यही हाल सारी प्राकृतिक चीज़ों का था। जल-स्रोत, झरने, नदियाँ और समुद्र, पहाड़, भूकंप और बिजली की गरज व चमकसभी देवी-देवता थे। यही प्राचीनकाल में सारी मानवता का धर्म था।

For ancient man nature was not just a treasure trove of ‘natural resources,’ but a goddess, ‘Mother Earth.’ And the vegetation that sprang from the earth, the animals that roamed the earth’s surface, and the minerals hiding in the earth’s bowels, all partook of nature’s divinity, so did all natural phenomena—springs and rivers and the sea; mountains; earthquakes and lightning and thunder. Such was the original religion of all mankind.

(Arnold J. Toynbee quoted in Reader’s Digest, March 1974)

जिस प्राकृतिक जगत को इंसान देवी-देवता या ईश्वर की दृष्टि से देखता होउसे वह शोध और खोज की दृष्टि से नहीं देख सकता। टॉयनबी ने ऊपर लिखी ऐतिहासिक घटना को बताते हुए यह माना है कि प्राकृतिक चीज़ों की पवित्रता के उस युग को जिसने समाप्त किया, वह विशुद्ध एकेश्वरवाद का विश्वास और आस्था थी। एकेश्वरवाद के विश्वास ने प्रकृति को ईश्वर की पदवी से उतारकर सृष्टि के पद पर रख दिया। प्राकृतिक जगत को उपासना की चीज़ क़रार देने के बजाय उसे जाँच-पड़ताल और खोज की चीज़ क़रार दे दिया।

एकेश्वरवाद का यह दृष्टिकोण पहले दौर में सभी पैग़ंबर पेश करते रहे। तब भी पिछले पैग़ंबरों के युग में एकेश्वरवाद की क्रांति केवल व्यक्तिगत स्तर की घोषणा तक सिमटी रहीवह आम लोगों की लोकव्यापी क्रांति के स्तर तक नहीं पहुँची। पैग़ंबर-ए-इस्लाम और आपके साथियों के प्रयासों ने एकेश्वरवाद के विश्वास और आस्था को आम लोगों की क्रांति के स्तर तक पहुँचा दिया। इसके बाद उसके अनिवार्य परिणाम के तौर पर प्राकृतिक जगत के बारे में पवित्रता की मानसिकता समाप्त हो गई। अब इंसान ने प्रकृति को उस दृष्टि से देखना शुरू किया कि वह उसे जाने और उसे अपने काम में लाए। यह कार्य रचनात्मक ढंग से लगातार जारी रहा। कभी धीमी रफ़्तार से और कभी तेज़ रफ़्तार सेयहाँ तक कि वह आज के विज्ञान के युग तक पहुँच गया।

एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका (1984) मेंभौतिक विज्ञान का इतिहासके तहत लिखा है कि यूनानी विज्ञान दूसरी सदी के बाद बाधा और गतिरोध का शिकार हो गया, क्योंकि रूमियों को इसमें कोई दिलचस्पी नहीं थी। सामाजिक दबावराजनीतिक अत्याचार और चर्च के ज़िम्मेदारों की विज्ञान-विरोधी पॉलिसी का यह परिणाम हुआ कि यूनानी विद्वान अपने देश को छोड़कर पूर्व की ओर चले गए।

7वीं सदी में जब इस्लाम का उदय हुआ तो इस्लामी दुनिया में अंततः इस प्रकार के विद्वानों का सम्मान के साथ स्वागत किया गया। महत्वपूर्ण यूनानी पुस्तकों में अधिकतर को अरबी भाषा में अनूदित कर उन्हें नष्ट होने से बचा लिया गया। अरबों ने प्राचीन यूनानी ज्ञान एवं विज्ञान पर कुछ बहुत विशेष और महत्वपूर्ण बढ़ोतरी की। 12वीं और 13वीं सदी में जब पश्चिमी यूरोप में यूनानी ज्ञान-विज्ञान के प्रति दिलचस्पी पैदा हुई तो यूरोप के विद्वान शिक्षा और अध्ययन के लिए मुस्लिम-स्पेन जाने लगे। अरबी पुस्तकों के लैटिन भाषा में अनुवाद के सैलाब से पश्चिमी यूरोप में विज्ञान को फिर से ज़िंदगी मिली

मध्ययुग के विद्वान और वैज्ञानिक योग्यता एवं महारत के उच्च स्तर तक पहुँचे और उन्होंने 16वीं एवं 17वीं सदी की वैज्ञानिक क्रांति की ज़मीन तैयार की।

scientists of the Middle Ages reached high levels of sophistication and prepared the ground for the scientific revolution of the sixteenth and seventeenth centuries.

[Encyclopaedia Britannica (1984), Vol.14, p. 385]

फ़्रांसीसी सामाजिक विज्ञानी गुस्ताव ले बॉन ने अपनी पुस्तकसिविलाइज़ेशन ऑफ़ द अरबमें लिखा है कि यूरोप में अरबी ज्ञान-विज्ञान सलीबी जंगों (Crusades) के माध्यम से नहीं पहुँचाबल्कि यह अंदुलुस (स्पेन)‚ सिसली और इटली के माध्यम से पहुँचा। 1230 o में टोलेडो (स्पेन) के मुख्य धर्माध्यक्ष आर्कबिशप रेमंड (St. Raymond, Spain) की अध्यक्षता में अनुवाद के लिए संस्थाएँ (बार्सिलोना और ट्यूनिस में) बनाई गईं, जिन्होंने प्रसिद्ध अरबी पुस्तकों का अनुवाद लैटिन भाषा में किया। इन अनुवादों से यूरोप की आँखों को एक नई दुनिया दिखाई देने लगी।

14वीं सदी तक इस अनुवाद-कार्य का सिलसिला जारी रहा। न केवल अल-राज़ी, इब्न सीना (Avicena) और इब्न रूश्द (Averroes) इत्यादि की पुस्तकें, बल्कि गैलेन (जालीनूस)‚ हिप्पोक्रेट्स, प्लेटो, अरस्तू, यूक्लिड्स और टॉलेमी इत्यादि की पुस्तकों का भी अरबी भाषा से लैटिन भाषा में अनुवाद किया गया। डॉक्टर गिलकिर्क ने उस समय के इतिहास पर लिखी अपनी पुस्तक में तीन सौ से अधिक अरबी पुस्तकों का लैटिन भाषा में अनुवाद होने की चर्चा की है। (तमद्दुन-अरब)

दूसरे पश्चिमी विद्वानों ने और अधिक स्पष्ट रूप में इस ऐतिहासिक सच्चाई को स्वीकार किया है। उदाहरण के तौर पर— रॉबर्ट ब्रिफॉल्ट ने लिखा है कि यूनानियों ने सिस्टम पैदा किया, इसके आम प्रयोग का विचार दिया, नियम और सिद्धांत निर्धारित किए, लेकिन लंबे समय के अवलोकन की मेहनत और जाँच-प्रयोग द्वारा खोज का काम यूनानी स्वभाव के लिए बिल्कुल अजनबी था। वैज्ञानिक प्रगति के प्रसिद्ध इतिहासकार जॉर्ज सार्टन लिखते हैं कि जिस चीज़ को हम विज्ञान कहते हैं, इसकी मूल और सबसे बड़ी कामयाबी, जो बाद की वैज्ञानिक गतिविधियों को बढ़ावा देने का कारण बनी, वह व्यावहारिक जाँच-प्रयोग, अवलोकन, अनुभव और हिसाब के नए तरीक़ों के परिणामस्वरूप पैदा हुई थी और इसे मूल रूप से मुसलमानों द्वारा अस्तित्व में लाया गया। जाँच-प्रयोग की यह भावना 12वीं सदी तक बनी रही और यह चीज़ यूरोप को अरबों के माध्यम से मिली।

इस प्रकार की जानकारी देते हुए ब्रिफॉल्ट ने कहा है कि हमारे विज्ञान पर अरबों का जो अहसान है, वह केवल यह नहीं है कि उन्होंने हमें क्रांतिकारी दृष्टिकोण के बारे में आश्चर्यजनक खोजें प्रदान कीं, बल्कि विज्ञान इससे भी अधिक अरब संस्कृति का अहसानमंद हैवह यह कि इसके बिना आधुनिक विज्ञान का अस्तित्व ही न होता।

(Briffault, Making of Humanity, p-190)

ब्रिफॉल्ट के इन व्यख्यानों को वैज्ञानिक प्रगति और विकास के प्रसिद्ध इतिहासकार जॉर्ज सार्टन ने मज़बूती दी है। इस्लामी सभ्यता और मुसलमानों के कामों ने वैज्ञानिक इतिहास की धारा को किस प्रकार प्रभावित किया, उनके इस योगदान को जॉर्ज सार्टन ने अपनी पुस्तकहिस्ट्री ऑफ़ साइंसके तीन खंडों में दर्शाया है।

(lntroduction to the History of Science, 3 Volumes, George sarton. Baltimore, Williams and Walkins, 1945)

जॉर्ज सार्टन ने लिखा है कि मध्ययुग की मूल और सबसे बड़ी सफलता जाँच-प्रयोग की भावना को पैदा करना था। जाँच-प्रयोग और अनुसंधान की यह भावना वास्तव में मुसलमानों ने पैदा की, जो 12वीं सदी तक जारी रही और यह चीज़ यूरोप को अरबों के माध्यम से मिली। निःसंदेह आधुनिक विज्ञान आधुनिक दुनिया के लिए इस्लामी सभ्यता की सबसे बड़ी और महानतम देन है।

Maulana Wahiduddin Khan
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