धार्मिक सहनशीलता के कुछ उदहारण

पैग़ंबर और पैग़ंबर के साथियों के माध्यम से जो इस्लामी क्रांति आई, वह साधारण अर्थों में केवल एक धार्मिक क्रांति न थी, बल्कि उसने लगभग पूरी आबाद दुनिया को प्रभावित किया। इस्लाम के अनुयायियों ने अरब की सीमाओं से परे शक्तिशाली शासन की स्थापना की। इन सभी नई इस्लामी रियासतों में हर जगह सभी लोगों को पूरी तरह से अपने विचार अभिव्यक्त करने की आज़ादी प्राप्त रही। यह सिलसिला एक हज़ार वर्ष तक जारी रहा। इस पूरी अवधि में कहीं भी मानवीय चिंतन-मनन पर प्रतिबंध नहीं लगाए गए। यहाँ हम ब्रिटिश प्रोफ़ेसर सर अर्नोल्ड की पुस्तकद प्रीचिंग ऑफ़ इस्लाम से इस संबंध में लिखे गए कुछ प्रमुख अंश का वर्णन करते हैं।

प्रोफेसर अर्नोल्ड ने स्पेन के एक मुसलमान के भाषण का वर्णन इस प्रकार किया है

“यह सही है कि जो व्यक्ति हमारा दीन स्वीकार करने का फ़ैसला करे, हम उसे गले लगाने के लिए तैयार रहते हैं, लेकिन हमारा क़ुरआन हमें इसकी अनुमति नहीं देता कि हम दूसरों की अंतरात्मा और विवेक पर अत्याचार करें...।”

(T.W. Arnold, The Preaching of Islam, p. 143)

प्रोफेसर अर्नोल्ड तुर्कों की धार्मिक सहनशीलता की चर्चा करते हुए लिखते हैं

“उन्होंने (ओटोमन सम्राटों ने) यूरोपीय देश ग्रीस में विजय के बाद ...कम-से-कम दो सौ वर्ष तक अपनी ईसाई प्रजा के साथ धार्मिक मामलों में ऐसी सहनशीलता का सबूत दिया, जिसका उदाहरण उस युग में यूरोप के शेष भागों में बिल्कुल ही नहीं मिलता।”

(T.W. Arnold, The Preaching of Islam, p. 157)

17वीं सदी में रोमनकालीन प्राचीन यूनानी शहर एंटीओक के पैट्रिआर्क (बिशप) मैकेरियस ने तुर्कों की इस विशेषता के कारण उनके लिए दुआ की थी

“ईश्वर तुर्कों की सल्तनत को हमेशा-हमेशा के लिए बनाए रखे, क्योंकि वे अपना जज़िया (कर) लेते हैं, लेकिन प्रजा के धर्म में हस्तक्षेप नहीं करते, चाहे वह ईसाई हों या यहूदी या सामरी।” 

(T.W. Arnold, The Preaching of Islam, p. 158-59)

 प्रोफ़ेसर अर्नोल्ड ने मुस्लिम शासन के युग में विचार और राय व्यक्त करने की आज़ादी के बहुत से उदाहरण दिए हैं। इसके बाद वे लिखते हैं कि रोमन सल्तनत के वह प्रदेश और सूबे जिनको मुसलामानों ने बड़ी तेज़ी से विजित किया था, वहाँ के लोगों ने अचानक अपने आपको ऐसी सहनशीलता के माहौल में पाया, जो कई सदियों से उनके लिए अनजान बने हुए थे।...इस प्रकार की सहनशीलता 7वीं सदी के इतिहास में कितनी आश्चर्यजनक थी— “...Such tolerance was quite striking in the history of the seventh century.”       

Maulana Wahiduddin Khan
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