प्राचीन युग में सोच-विचार और राय व्यक्त करने पर लगी पाबंदी का कारण भी वही अनेकेश्वरवाद था, जिसकी चर्चा पिछले पृष्ठों में की गई है। अनेकेश्वरवादी विश्वास और धारणाओं के तहत यह समझ लिया गया था कि जो व्यक्ति राजा के तख़्त पर बैठा हुआ हो, वह साधारण लोगों से अलग होता है। उस युग में राजा को किसी-न-किसी रूप में ईश्वरीय या ईश्वरीय विशेषताओं का मालिक समझा जाता था। आम आदमी केवल प्रजा की हैसियत रखते थे और राजा को उनके ऊपर ईश्वरीय शासक की हैसियत प्राप्त थी।
यही अनेकेश्वरवादी या अंधविश्वासी आस्था थी, जिसने लोगों से विचार और राय व्यक्त करने की आज़ादी का अधिकार छीन रखा था। यह समझ लिया गया था कि जो राजा की राय है, वही सही राय है और दूसरे लोगों को केवल राजा की राय का अनुपालन करना है। उन्हें राजा की राय से अलग राय बनाने का कोई अधिकार नहीं। यही वह ग़लत आस्था थी, जिसने प्राचीन युग में सोच-विचार और राय व्यक्त करने की आज़ादी को समाप्त कर दिया था।
7वीं सदी में जब इस्लाम का आगमन हुआ तो उसने मानव जाति के लाभ के लिए घोषणा की कि हर प्रकार की प्रशंसा और महानता केवल एक ईश्वर के लिए है और ईश्वर की दृष्टि में सभी इंसान समान हैं, सब एक-दूसरे की तरह हैं। पैग़ंबर-ए-इस्लाम हज़रत मुहम्मद ने एक बार नहीं, बल्कि कई अवसरों पर अलग-अलग अंदाज़ से इस सच्चाई की घोषणा की कि सभी इंसान भाई-भाई हैं। यही वह चीज़ है, जिसे धार्मिक शब्दावली में एकेश्वरवाद कहा जाता है। पैग़ंबर-ए-इस्लाम ने इस सच्चाई की न केवल घोषणा की, बल्कि इसी बुनियाद पर एक संपूर्ण क्रांति करके इसे व्यावहारिक रूप से दुनिया में स्थापित कर दिया।
पैग़ंबरी के शुरुआती दौर में आपने इसी सच्चाई का प्रचार मौखिक रूप से किया था। इसके बाद जब अरब में आपको राजनीतिक वर्चस्व प्राप्त हो गया तो आपने एक शासक की हैसियत से इसकी घोषणा इस प्रकार की—
“निःसंदेह ईश्वर ने अज्ञानता के युग के गर्व और जातीय गर्व का तुमसे ख़ात्मा कर दिया, अब इंसान या तो अपने नैतिक मूल्यों के तहत श्रेष्ठ और सम्माननीय है या नीच और गुनाहगार है। सभी लोग आदम की संतान हैं और आदम मिट्टी से पैदा किए गए।”
इस प्रकार इस्लाम ने इंसानों के बीच जाति, नस्ल, रंग और पद जैसी बुनियादों पर भेदभाव को समाप्त कर दिया और नए सिरे से शिष्टाचार और नैतिक आधार पर इनकी व्यवस्था स्थापित की।